सरोज श्याम : प्रकृति प्रेम और पति के

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सरोज श्याम : प्रकृति प्रेम और पति के
प्रोत्साहन ने बनाया चित्रकार

छाया: स्वसंप्रेषित

• सीमा चौबे

सरोज श्याम (saroj shyam), परधान गोंड आदिवासी चित्रकला शैली (pardhan Gond Adivasi community art) की बहुप्रशंसित चित्रकार हैं। उन्होंने भारत में अनेक कार्यशालाओं में भाग लिया है, जिसमें भोपाल, नागपुर और सूरत में आयोजित कार्यशालाएँ  शामिल हैं। उनके चित्र भारत और विदेशों में कई प्रतिष्ठित दीर्घाओं में प्रदर्शित हो चुके हैं। हालांकि एक समय ऐसा भी था, जब उन्हें पेंटिंग करना बिलकुल पसंद नहीं था। वे अपने पति को भी ये काम करने के लिए मना किया करतीं थीं, लेकिन कभी नौकरी करने के लिए अपने पति से ज़िद करने वाली सरोज आज किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। बचपन में घर की दीवार पर डिंगना बनाते हुए सरोज ने कभी नहीं सोचा था कि वे एक दिन चित्रकारी करेंगी और उनका काम देश-विदेश में सराहा जाएगा।

10 नवम्बर 1978 में मध्यप्रदेश के पाटनगढ़ (ग्राम मेढाखार) में ललित सिंह टेकाम और जानकी बाई के घर जन्मी सरोज के घर का परिवेश कलात्मक नहीं था। घर-परिवार में सभी मजदूरी करने जाते थे। केवल नानी ही थीं, जो विशेष मौकों पर घर की लिपाई-पुताई करने के बाद ढिंगना बनाया करती थीं। नानी की देखा देखी सरोज भी छुट्टी वाले दिन लाल-पीली मिट्टी, गेरू और गोबर से अपनी कल्पना से आकृतियां उकेरा करतीं। वे गांव के आसपास रहने वाले बैगाओं से खासी प्रभावित थीं। प्रकृति प्रेम के चलते सरोज कई बार सहेलियों के साथ जंगल की ओर निकल जाती और बहुत सारा वक़्त वहां बितातीं। अनजाने में ही सही, प्रकृति के विभिन्न रूप-रंग और अपने आसपास के परिवेश को वे अपनी स्मृतियों में सहेजती रहीं। उन्हीं स्मृतियों की झलक आज उनकी कलाकृतियों में नज़र आती हैं।

माता-पिता की इकलौती संतान सरोज का लालन-पालन और नौवीं तक की शिक्षा ननिहाल में हुई। दरअसल इनके पिता ने जब दूसरी शादी कर ली तो सरोज की माँ अपनी बेटी को लेकर अपने मायके ( ग्राम रसोई, डिंडोरी) आ गईं, लेकिन यहाँ आने के बाद उनके मामा ने अपनी बहन यानी सरोज की माँ का भी पुनर्विवाह करवा दिया। विवाह के बाद उनकी मां भोपाल के समीप औबेदुल्लागंज आकर रहने लगीं। इस तरह उनका बचपन अपनी नानी और मामा की छत्रछाया में बीता। उनके मामा, मौसी और नानी ने उन्हें बहुत लाड़-प्यार से रखा। गाँव से प्राथमिक शिक्षा हासिल कर आगे की पढ़ाई उन्होंने 8 किमी दूर कुकर्रा मठ गाँव से की। यहाँ उन्हें एक बड़ी नदी पार कर स्कूल तक पहुंचना होता था। बारिश के दिनों में ऐसा करना और भी मुश्किल हो जाता। नानी के घर नौवीं तक पढ़ने के बाद वे अपनी माँ के पास औबेदुल्लागंज आ गईं और यहाँ रानी लक्ष्मीबाई स्कूल से दसवीं की पढ़ाई की। निपट देहाती माहौल से कस्बे में आई सरोज को यहाँ घुलने-मिलने में काफ़ी दिक्कतें आई, क्योंकि वे हिन्दी बिलकुल नहीं जानती थीं। जैसे-तैसे हिन्दी में थोड़ा-बहुत बोलना शुरू किया तो कई बार वे हंसी का पात्र भी बनीं - ख़ासतौर पर स्त्रीलिंग-पुल्लिंग में अंतर समझ न आने के कारण, लेकिन धीरे-धीरे स्थितियां सामान्य होने लगीं।

दसवीं के बाद वर्ष 1996 में सरोज का विवाह उभरते हुए गोंड चित्रकार वेंकटरमण सिंह श्याम ( gond artist venkatraman singh shyam)से  हो गया। गुजारा करने के लिए वेंकट चित्रकारी करने के अलावा होर्डिंग्स का काम भी करते थे। शादी के बाद सरोज भोपाल आ गईं। वे आगे पढ़ना चाहती थी, लेकिन उनके पति ने इसकी इजाज़त नहीं दी। चूंकि वेंकट खुद चित्रकार थे, तो वे अपने पत्नी को भी चित्रकारी (paintings) के लिए प्रेरित करते, लेकिन सरोज को यह सब करना पसंद नहीं था। इनकी इच्छा नौकरी करने की थी। चित्रकारी में रुचि न होने के कारण उन्हें अपने पति का ये काम समय और पैसों की बर्बादी लगता। वे अपने पति से भी यह काम करने के लिए मना किया करतीं। उस समय बड़ी मुश्किल से परिवार की गुजर-बसर होती और उधर वेंकट थे कि होर्डिंग्स से होने वाली आमदनी भी चित्रकारी में लगा दिया करते। इससे सरोज कई बार नाराज़ भी हो जाती थीं।

बार-बार प्रेरित करने बाद भी जब सरोज ने पेंटिंग बनाना शुरू नहीं किया तो वेंकट ने आसपास के लड़कों को बुलाकर काम करवाना शुरू कर दिया। शाम को काम से लौटने के बाद वे उन लड़कों को उनके काम में कमियां बताते और पेंटिंग की बारीकियां समझाते और खुद भी देर रात तक पेंटिंग  किया करते। वे सरोज की अनिच्छा के बावजूद उसे लगातार प्रेरित करते रहे, नतीजतन वह इस काम में वेंकट की थोड़ी-बहुत मदद करने लगीं। इसका नतीजा ये हुआ कि तरह धीरे-धीरे पेंटिंग में उन्हें मज़ा आने लगा। शुरुआत में वेंकट स्केच बनाकर दे देते और उसमें रंग भरने का काम सरोज करती रहीं। इस तरह कई वर्ष तक उन्होंने वेंकट की सहायक के तौर पर काम किया। वर्ष 2000 में वे खुद भी कुछ चित्र बनाने लगीं।

सरोज अपने पति को ही अपना कला गुरु मानती हैं। उन्होंने ही सरोज को चित्र बनाना और रंग संयोजन की बारीकियां सिखाईं। 2003 में पहली बार सरोज पति के साथ दिल्ली के प्रगति मैदान में लगी प्रदर्शनी एवं चित्र शिविर में गईं। यह प्रवास उनके जीवन का महत्वपूर्ण अध्याय साबित हुआ। वहां लोगों ने उनके बनाये चित्रों की न सिर्फ तारीफ़ की, बल्कि उनका बनाया चित्र भी अच्छी खासी कीमत में बिका। दिल्ली से आने के बाद उन्होंने रंगों से दोस्ती कर ली और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। लगभग 21 वर्षों की कला यात्रा में सरोज देश-विदेश में आयोजित अनेक चित्र शिविरों, कला कुंभ एवं चित्र प्रदर्शनियों में अपने चित्रों को प्रदर्शित कर चुकी हैं। अपने चित्रों में एक्रेलिक के बजाय प्राकृतिक रंगों को प्राथमिकता देने वाली सरोज के अधिकांश चित्र पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं पर ही आधारित होते हैं। वे अपने कुलदेवता ‘बड़ादेव’ के चित्र भी अक्सर बनाती हैं। इसके अलावा अपने समुदाय के किस्से-कहानियां - जो उन्होंने अपनी नानी से सुने हैं, उनकी चित्रकारी की मुख्य विषय रहते हैं।

सरोज बताती हैं जब उन्होंने काम करना शुरू किया तो कलावती श्याम जी के बाद वे ही थीं जो गोंड चित्रकारी किया करतीं थीं। उस समय पति के कुछ घनिष्ठ मित्रों की शाम से लेकर देर रात तक हमारे घर पर ही बैठक हुआ करती। जब वे  मेरे बनाये चित्र देखते तो घर जाकर अपनी पत्नियों से कहते देखो - सरोज घर के काम के साथ पेंटिंग से पैसे कमा रही है। क्यों न तुम भी ये काम करो। इस तरह सरोज की प्रेरणा से करीब 8-10 महिलाओं ने अपने-अपने हाथों में कूची थामी और चित्रकारी सीखना शुरू किया। वे महिलाएं जहां रेखांकन या स्केचिंग के लिए अपने पतियों पर निर्भर होतीं, वहीं वेंकट, सरोज से कहते कि तुम अपनी कल्पना और रचना के साथ चित्र और रंग संयोजन अपने आप ही करो। इससे तुम्हारा आत्मविश्वास बढ़ेगा और तुम्हे खुशी भी होगी।

वर्ष 2016 में पति के साथ अमेरिका में वर्जीनिया विश्वविद्यालय में विशाल भित्तिचित्र (म्यूरल) के निर्माण में शामिल होने का अनुभव सरोज के लिए बेहद ख़ास रहा। वे बताती हैं “यह विदेश की उनकी पहली यात्रा थी। हवाई यात्रा करना भी एक नया अनुभव था। ज़ाहिर है, कुछ डर था तो कुछ झिझक भी। हम वहां 20 दिन रुके। वहां हमें भित्तिचित्र का काम सीधे दीवार पर न करवाकर लकड़ी के ऊपर पन्नी बिछाकर करवाया गया। उस काम को करने में हमें बहुत मुश्किल आई। जैसे तैसे हमने भित्ति चित्र तैयार किया, लेकिन दूसरे दिन आकर देखा तो पन्नी के फटने से पूरी कृति बिगड़ गई थी। ये देखकर वे पहले निराश हुईं, लेकिन उन्होंने बचपन में अपनी नानी से जो सीखा (नानी जब दीवार छापती थीं तो कई बार वो फट जाती थी, जिसे वो गोबर से भर देती थीं) उस तरकीब से उन्होंने गोबर और फेविकोल मिलाकर भित्ति चित्र को फिर से आकार दे दिया। उनका यह काम लोगों को खूब पसंद आया। वे कहती हैं “विदेशी धरती पर अपनी संस्कृति की छाप छोड़कर आना, गोंड कला और उसके महत्व को दुनिया के सामने रखना, एक अलग ही तरह का रोमांच था, जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाई हूँ।”

सरोज आज भी काम से अधिक अपने परिवार को प्राथमिकता देती हैं। 1997 में बेटे और 2000 में बेटी का जन्म होने के बाद उनके लालन-पालन पर भी ध्यान दिया। बच्चों की पढ़ाई खासतौर पर परीक्षा के दिनों में काम को विराम देना पड़ता था। बच्चों की परीक्षा के दौरान वे किसी भी वर्कशॉप में जाने से मना कर देते थीं। अब उनके दोनों बच्चे ग्रेजुएट हो चुके हैं। बेटा नवीन रंगमंच से जुड़ा है, तो बेटी मृणालिनी माता-पिता के काम में सहयोग करती है।

उपलब्धि  

• इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय-भोपाल में नर्मदा कला दीर्घा में भित्ति चित्र (2008)

• रेड फ़ोर्ड यूनिवर्सिटी संग्रहालय-वर्जीनिया में मिट्टी के भित्तिचित्र की स्थापना (सितंबर 2016)

• एशिया सोसाइटी, हांगकांग और भारत के महावाणिज्य दूतावास के सहयोग से हांगकांग में आयोजित कल्याणी महोत्सव 2021 में शामिल

भागीदारियां

• चित्रकला कार्यशाला, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय-भोपाल (2003)

• लोकरंग, रवीन्द्र भवन परिसर-भोपाल (2004)

• स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पर चित्रकला कार्यशाला स्वराज संस्थान-भोपाल (2006)

• क्ले म्यूरल नर्मदा गैलरी,  इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल   (2008)

• कालिदास अकादमी उज्जैन द्वारा आयोजित चित्रकला कार्यशाला, चित्रकूट एवं  इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल द्वारा आयोजित चित्रकला कार्यशाला-अमरकंटक (2009)

• भोपाल हाट, भोपाल (2009)

• चित्रकला परिषद,बेंगलुरु (2010)

• डिजाइन वर्कशॉप, ट्राइब्स इंडिया

• मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय, भोपाल (2012)

• पारंपरिक वार्षिक प्रदर्शनी,  कुमार स्वामी हॉल, छत्रपति शिवाजी महाराज संग्रहालय-मुंबई (2013-14)

• कालिदास अकादमी, उज्जैन द्वारा आयोजित चित्रकला कार्यशाला- झाबुआ एवं ओरछा (2014)

• कालिदास अकादमी उज्जैन द्वारा आयोजित चित्रकला कार्यशाला- महेश्वर (2015)

• स्पिक मैके द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आईआईटी मुंबई (2015)

• चित्रकला कार्यशाला-बड़ौदा (2015)

• ललित कला फेस्टिवल मांडू (2015)

• पेंटिंग वर्कशॉप तापी महोत्सव-सूरत (2015)

• स्पिक मैके द्वारा चित्रकला कार्यशाला, हैदराबाद (2016)

• स्पिक मैके द्वारा चित्रकला कार्यशाला, नागपुर  (2017)

• इंटरनेशनल पेंटिंग वर्कशॉप- ट्राइबल मयूज़ियम, भोपाल (2017)

• माइंड ट्री स्कूल, अम्बाला द्वारा 11वां राष्ट्रीय लोक एवं जनजातीय चित्रकला शिविर-पंजोखरा, अम्बाला (2023)

प्रदर्शनियाँ

• क्राफ्ट्स म्यूजियम, नई दिल्ली (2002)

• जनगढ़ कलम ललित कला अकादमी,भोपाल (26 नवंबर से 1 अक्टूबर 2006)

• पेंटिंग एग्जीबिशन - रेबेका हो सेक गैलरी,लंदन (2011)

• चित्रकला परिषद-बंगलौर (2010)

• हंड्रेड हेड्स एग्जीबिशन (2011-12)

• मिलर आर्ट गैलरी वर्जीनिया, यूएसए (2015)

•  कलाकृति आर्ट गैलरी हैदराबाद (2016-17)  

• एकल चित्र प्रदर्शनी, मप्र जनजातीय संग्रहालय, भोपाल (3 से 30 दिसम्बर 2022)

संग्रह:

• सेलू कंजर्वेंसी, रेडफोर्ड यूनिवर्सिटी, वर्जीनिया, यूएसए

• जॉन बाउल्स, आर्ट हिस्टोरियन, यूएसए

• डॉ. रोमा चटर्जी, आर्ट हिस्टोरियन, दिल्ली

• डॉ. औरोगीता दास, कला समीक्षक, लंदन सहित भारत और विदेशों में कई निजी और सार्वजनिक संग्रह

सन्दर्भ स्रोत : सीमा चौबे की सरोज श्याम  से हुई बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

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