छाया : बार एंड बेंच
तेलंगाना हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक फैसले में शिया मुसलमानों के अकबरी संप्रदाय की महिलाओं को हैदराबाद के दारुलशिफा में स्थित इबादतखाने में धार्मिक गतिविधियों का संचालन करने के अधिकार की पुष्टि की। यह फैसला अंजुमने अलवी शिया इमामिया इत्ना अशरी अख़बारी रजिस्टर्ड सोसायटी द्वारा दायर रिट याचिका के जवाब में आया, जिसमें परिसर में मजलिस जश्न और अन्य धार्मिक प्रार्थनाओं के संचालन के लिए महिलाओं की पहुंच से इनकार करने को चुनौती दी गई थी। यह मामला इबादतखाने में महिलाओं की पहुंच को लेकर लंबे समय से चल रहे विवाद से उत्पन्न हुआ है।
याचिकाकर्ता-सोसायटी ने पहले अक्टूबर 2023 में तेलंगाना राज्य वक्फ बोर्ड को कई अभ्यावेदन प्रस्तुत किए, जिसमें शिया मुस्लिम महिलाओं को धार्मिक गतिविधियों के संचालन की अनुमति मांगी गई। हालांकि कोई जवाब नहीं मिलने पर उन्होंने राहत के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। 11 दिसंबर, 2023 को अदालत ने शुरू में दलीलें सुनीं और अंतरिम आदेश पारित किया, जिसमें प्रतिवादियों को अकबरी संप्रदाय की महिलाओं को इबादत खाने में धार्मिक गतिविधियों के संचालन की अनुमति देने का निर्देश दिया गया। इस आदेश को इबादत खाने के तीसरे प्रतिवादी/मुतवल्ली ने चुनौती दी, जिन्होंने एक जवाबी हलफनामे के साथ इसे खाली करने के लिए आवेदन दायर किया।
याचिकाकर्ता के वकील सीनियर एडवोकेट पी. वेणुगोपाल ने तर्क दिया कि अकबरी संप्रदाय की महिलाओं को प्रवेश से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 25(1) के तहत उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, जो समानता और धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। उन्होंने वक्फ बोर्ड द्वारा 2007 की कार्यवाही का भी हवाला दिया, जिसमें शिया मुस्लिम महिलाओं को इबादत खाने में मजलिस आयोजित करने की अनुमति दी गई।
विरोध में वक्फ बोर्ड के स्थायी वकील अबू अकरम ने तर्क दिया कि धार्मिक भावनाओं और परंपराओं का सम्मान किया जाना चाहिए। हालांकि वे प्रार्थना कक्षों में महिलाओं के प्रवेश को प्रतिबंधित करने वाला कोई विशिष्ट धार्मिक ग्रंथ प्रदान करने में असमर्थ थे। तीसरे प्रतिवादी ने तर्क दिया कि मामला न्यायाधिकरण के समक्ष विचाराधीन था और याचिकाकर्ता के पास वक्फ अधिनियम के तहत हितधारक के रूप में खड़े होने का अभाव था।
जस्टिस नागेश भीमपाका ने अपने फैसले में कई प्रमुख विचारों पर भरोसा किया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक सबरीमाला मंदिर मामले का हवाला दिया, जिसमें महिलाओं के पूजा स्थलों में प्रवेश के अधिकार को बरकरार रखा गया। न्यायाधीश ने कहा कि पवित्र कुरान महिलाओं को विशिष्ट अवधि को छोड़कर प्रार्थना कक्षों में प्रवेश करने से नहीं रोकता। उन्होंने यह भी बताया कि वक्फ बोर्ड ने पहले शिया मुस्लिम महिलाओं को प्रार्थना कक्षों में प्रवेश करने की अनुमति दी जिससे अकबरी संप्रदाय का बहिष्कार भेदभावपूर्ण हो गया।
इसके अलावा, इस न्यायालय ने कहा कि पवित्र पुस्तक में कहीं भी सर्वशक्तिमान ने महिलाओं को प्रार्थना करने के लिए प्रार्थना कक्षों में प्रवेश करने से नहीं रोका। यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति द्वारा महिलाओं के लिए आराम अवधि के रूप में दिए गए विशेष अवधि को छोड़कर महिलाओं के प्रार्थना करने पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इसलिए इस न्यायालय ने दिनांक 15.06.2007 की कार्यवाही पर भरोसा करते हुए यह राय व्यक्त की कि जब वक्फ बोर्ड ने शिया मुस्लिम महिलाओं को प्रार्थना कक्षों में प्रवेश करने की अनुमति दी, तो यह ज्ञात नहीं है कि वे उसी समुदाय के अखबारी संप्रदाय को इबादत खान में प्रवेश करने से क्यों रोक रहे हैं। यह अपने आप में प्रतिवादियों की ओर से स्पष्ट भेदभाव को दर्शाता है।
न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि संविधान का अनुच्छेद 25(1) प्रत्येक व्यक्ति को अंतरात्मा की स्वतंत्रता और बिना किसी भेदभाव के धर्म को मानने, प्रार्थना करने और प्रचार करने का अधिकार प्रदान करता है। न्यायाधिकरण के समक्ष लंबित मामले को स्वीकार करते हुए न्यायाधीश ने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए अनुच्छेद 226 के तहत न्यायालय की शक्ति पर जोर दिया।
इसके अलावा, न्यायालय ने वक्फ बोर्ड के इस कथन पर विचार किया कि इबादत खाना पूरे शिया समुदाय का है, जिसमें अकबरी और वूसूली दोनों संप्रदाय और शिया महिलाएं शामिल हैं। इस स्वीकारोक्ति ने प्रार्थना कक्ष में समान पहुंच के लिए याचिकाकर्ता के मामले को मजबूत किया। अंत में हाईकोर्ट ने रिट याचिका को अनुमति दी 11 दिसंबर 2023 का अंतरिम आदेश बरकरार रखा।
संदर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट
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