अंकिता जैन : इंजीनियरिंग के बाद थामी

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अंकिता जैन : इंजीनियरिंग के बाद थामी
कलम, करती हैं खेती भी

छाया : अंकिता जैन के फेसबुक अकाउंट से 

•  सीमा चौबे

छत्तीसगढ़ के छोटे से जिले जशपुर की अंकिता जैन उन लोगों में शामिल हैं, जो एक साथ कई क्षेत्रों में अपनी ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज करा चुकी हैं। वे न सिर्फ सफल उद्यमी, लेखिका और किसान हैं बल्कि एक बेहतरीन कलाकार भी हैं। जैविक कृषि तथा उत्पादन  संस्था - 'वैदिक वाटिका' की निदेशक के हुनर, काबिलियत और कार्यकुशलता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बहुत ही कम समय में ही वे साहित्य में अपनी ख़ास पहचान बनाने में कामयाब हुई हैं, वहीं एक साथ कई काम करते हुए उन्होंने अपने हरफनमौला होने का परिचय दिया है।

श्री महेंद्र कुमार जैन और श्रीमती शकुन जैन के यहाँ 05 मई 1987 को ग्वालियर में जन्मीं अंकिता दो बहनों में बड़ी हैं। उनकी बारहवीं तक की शिक्षा मध्यप्रदेश के छोटे-छोटे गाँव-कस्बों-नगरों (चंदेरी, ईसागढ़, भौंती, खनियाधाना, अशोकनगर, गुना आदि) के ग्रामीण सरकारी एवं कुछ निजी स्कूलों में हुई। उनके पिताजी मध्यभारत ग्रामीण बैंक में शाखा प्रबंधक रहे, इसलिए बचपन 'खानाबदोशी' में बीता। कभी इस स्कूल, तो कभी उस स्कूल। इस तरह 8-9 जगह पढ़ने के बाद उन्होंने बारहवीं की शिक्षा गुना से प्राप्त की।

कम्प्यूटर साइंस के साथ गुना से बीएससी करने के बाद अंकिता ने वनस्थली विद्यापीठ से एम.एससी और एम.टेक की डिग्री हासिल की। एम.एससी के दौरान विप्रो, गुड़गांव में 6 महीने इंटर्नशिप और एमटेक के समय एक साल सीडैक पुणे में रिसर्च एसोसिएट के रूप में शोध कार्य किया।

बकौल अंकिता “हम दोनों बहनों के कैरियर के पीछे जो मजबूत किरदार था वो हमारी माँ ही थीं। हमें उच्च शिक्षा दिलाने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। ग्वालियर-मुरैना जैसे इलाकों में जहाँ बेटियों को पढ़ाने की परंपरा न हो, घर की बहू जो बेटा न दे सकी हो और जो अपनी दोनों बेटियों को मनचाहा पढ़ाने की ज़िद पर अड़ी हो, वहाँ ‘मोड़ीयन को इत्तो पढ़ा-लिखा कर का कलेक्टर बनाओगे’ जैसे ताने आये दिन सुनने मिलते थे, लेकिन खुद पढ़ी-लिखी हमारी माँ ने किसी की परवाह न करते हुए हम दोनों बहनों को न सिर्फ अच्छी तालीम दी, बल्कि काबिल बनाकर लोगों के मुंह भी बंद कर दिए।”

अंकिता पुणे में रहकर ही अपने कैरियर को आगे बढ़ाना चाहती थीं, लेकिन वर्ष 2011 में कुछ कारणों से उन्हें भोपाल आना पड़ा। यहाँ आने के बाद उन्होंने बतौर व्याख्याता, बंसल कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया, लेकिन एक ही धारा में बहते हुए बंधकर काम करना उन्हें रास नहीं आया और वर्ष 2012 में  इस्तीफ़ा दे दिया। इस निर्णय ने उन्हें लेखन जगत में ला खड़ा किया, जहाँ उन्होंने बतौर सम्पादक एवं प्रकाशक ‘रूबरू दुनिया’ नाम से मासिक पत्रिका का तीन साल प्रकाशन किया। इससे पहले उन्होंने 2010 से थोड़ा बहुत फेसबुक पर लिखना शुरू कर दिया था, जहाँ ‘राइटर्स एंड आर्ट डायरेक्टर्स’ नाम के फ़ेसबुक ग्रुप पर उनकी कविताओं को लोगों ने खूब पसंद किया। इस ग्रुप में फ़िल्म निदेशक कमल राघानी जी भी शामिल थे। एक फ़िल्म में गीत लिखने के उनके आग्रह पर अंकिता ने 5 गीत लिखे, जिसके लिये उन्हें 25 हज़ार का पारिश्रमिक भी मिला। हालाँकि फिल्म आज तक रिलीज़ नहीं हुई लेकिन उसका एक गीत ‘मुंबई 143’ भारत का सबसे बड़ा फ़्लैश मॉब बनकर हिट हुआ। यह गीत लिम्का बुक ऑफ़ नेशनल रिकार्ड्स में भी दर्ज हुआ। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय कहानी लेखन में अंकिता की लिखी कहानी को शीर्ष 10 में सातवें स्थान पर जगह मिली और 100 डॉलर का चेक भी। तब उन्हें लगा कि वे भी थोड़ा बहुत लिख सकती हैं। उन्होंने सोचा नौकरी नहीं, तो कलम ही सही। इसी सोच ने उन्हें वर्ष 2014 में नीलेश मिश्रा के बिग एफएम फेमस रेडियो ‘यादों का इडियट बॉक्स’ तक पहुंचा दिया। महज दो वर्ष में इस एफएम पर उनकी लिखी 15 कहानियाँ तथा रेडियो के एक अन्य कार्यक्रम ‘यूपी की कहानियों’ में उनकी लिखी 10 कहानियाँ प्रसारित हुईं।

अचानक से ही कोई इतना अच्छा कैसे लिख सकता है? इस बारे में अंकिता बताती हैं “बचपन में वे छोटी-छोटी कविताएं और डायरी लिखा करती थीं। अंकिता जब कक्षा 6वीं में थी उस समय पर्यूषण पर्व पर बड़े स्तर पर आयोजित कहानी प्रतियोगिता में इनकी कहानी को पहला पुरस्कार मिला था। इस तरह बचपन से ही स्कूल और सामाजिक उत्सवों में अंकिता कहानी-कविताएं लिखने लगीं थी। दरअसल उनके पिताजी और माँ दोनों ही पढ़ने-लिखने के शौक़ीन थे। पिताजी कहानियां, भजन लिखने के अलावा शौकिया चित्रकारी भी किया करते थे, वहीं माँ को किसी भी विषय में भाषण तथा वाद-विवाद लिखने में महारत हासिल थी। वे स्कूलों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए भाषण तथा वाद-विवाद विषय पर लिखा करती थीं, कहना न होगा कि लेखन और चित्रकारी के गुण अंकिता को विरासत में ही मिले।

अंकिता बताती हैं उनके नौकरी छोड़ लेखन में कैरियर बनाने की बात पर पिताजी बेहद नाराज़ हुए। कहते “क्या इसलिए इतना पढ़ाया-लिखाया था। अच्छी खासी नौकरी छोड़कर तुम लेखक बनोगी”? लेकिन मैं भी अपने निर्णय पर अडिग रही। अंकिता अपनी बातों में माँ का उदाहरण भी देती हैं जिन्होंने अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर किया था, बावजूद इसके उन्होंने नौकरी नहीं की, लेकिन माँ के अर्थशास्त्र के ज्ञान ने हमारे घर की वित्तीय व्यवस्था को किस तरह बखूबी संभाला। पढ़ाई नौकरी के लिए करो, ये ज़रूरी नही। मेरी समझ में पढ़ाई आपके ज्ञान और सोचने-समझने का दायरा बढ़ाती है। अंकिता कहती हैं कि पिताजी उनसे नाराज़ भले ही हुए, लेकिन जब विश्व हिंदी संस्थान मॉरीशस द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में उनकी कहानी टॉप टेन में आई तो उसकी ख़बर की कतरन को उनके पिताजी जेब में लेकर कई दिनों तक घूमते रहे थे।

वर्ष 2015 में जशपुर निवासी नैनो टेक्नोलॉजी एक्सपर्ट साइंटिस्ट समर्थ जैन के साथ अंकिता शादी के बंधन में बंधी। इसकी कहानी भी अनूठी है। दोनों की बात मैगजीन ‘रूबरू दुनिया’ के एक कॉलम लिखने के सिलसिले से शुरू हुई थी। बात आगे बढ़ी और परिवार की रजामंदी के साथ दोनों की शादी हो गई। शादी के बाद परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी आई, लेकिन समर्थ और पूरे परिवार का साथ-समर्थन बना रहा, जिसके बलबूते अंकिता का लिखना-पढ़ना जारी रहा।

शादी के बाद अंकिता समर्थ द्वारा स्थापित एग्रो फर्म ‘वैदिक वाटिका’ से बतौर डायरेक्टर जुड़कर लेखन के साथ फर्म से जुड़े खेती किसानी के काम भी सम्हालने लगीं। फर्म में अंकिता निदेशक के अलावा प्रोडक्शन-मार्केटिंग की जिम्मेदारी भी संभालती हैं। लेखन से अचानक खेती किसानी में आने के सवाल पर अंकिता कहती हैं “हमारा पूरा बचपन ही ग्रामीण परिवेश में बीता। मैंने और छोटी बहन ने गांव और वहां के तौर-तरीके न सिर्फ खूब देखे हैं, बल्कि उन्हें भरपूर तरीके से जिया भी है। मध्यप्रदेश के गांव, कस्बों में रहते होश संभाला, इसलिए यह काम मेरे लिए बिलकुल भी नया नहीं था।”

मार्च 2017 में उनकी पहली किताब ‘ऐसी वैसी औरत’ प्रकाशित हुई, जिसने कम समय में ही जागरण- नीलसन बेस्टसेलर का दर्जा हासिल किया। नवंबर 2018 में दूसरी किताब आई ‘मैं से माँ तक’, जो पाठकों के बीच आज भी खासी लोकप्रिय है। इस किताब के अभी तक चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। गर्भावस्था पर आधारित यह अपनी तरह की पहली हिंदी किताब है। वर्ष 2020 में कहानी संग्रह के रूप ‘बहेलिए’ तथा छोटे किसानों की समस्याओं और जैविक खेती पर आधारित उनकी चौथी पुस्तक ‘ओह रे! किसान’ प्रकाशित हुई। जिसे पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रतिष्ठित मेदिनी पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अलावा उनके साहित्यिक संग्रह में 'मुहल्ला सलीमबाग' (उपन्यास-2023) और ‘आतंकी मोर’ (बाल उपन्यास -2023) जैसी कृतियाँ शामिल हैं, जिन्हें खूब सराहना मिली है।

उनके लेख अहा! ज़िन्दगी, इंडिया टुडे, आईचौक, नवभारतटाइम्स में प्रकाशित होते रहते हैं। उन्होंने राजस्थान पत्रिका के लिए पूरे एक साल तक मासिक सम्पादकीय भी लिखी। अंकिता प्रभात ख़बर अखबार की साप्ताहिक मैगज़ीन सुरभी एवं लल्लन टॉप न्यूज़ पोर्टल पर अपने ‘माँ-इन-मेकिंग’ कॉलम के लिए भी पाठकों के बीच काफी लोकप्रिय रहीं। दरअसल वर्ष 2016 में गर्भपात हो जाने के बाद वे गहरे अवसाद में चली गईं। उनका लिखना-पढ़ना सब कुछ छूट गया। सौरभ द्विवेदी ने उन्हें फिर से लिखने के लिए प्रेरित किया और उन्हीं की सलाह पर अंकिता ने ‘माँ-इन-मेकिंग’ नाम से एक कालम के लिए करीब 18 लेखों की श्रृंखला लिखी, जिसे लोगों ने, खासतौर से पुरुषों ने बहुत पसंद किया। इसके बाद प्रभात खबर की साप्ताहिक पत्रिका 'सुरभि' में भी इसी विषय पर 56 लेखों की लम्बी श्रृंखला प्रकाशित हुई। ‘मैं से माँ तक’ पुस्तक इसी श्रृंखला पर तैयार हुई। किताब में अंकिता और उनकी ही तरह की उन माँओं के जज़्बात शामिल हैं, जो उन्होंने गर्भपात से उपजे अवसाद के समय महसूस किये थे।

रशियन स्कल्प्चर पेंटिंग स्कूल में प्रमाणित और पंजीकृत शिक्षक अंकिता को रशियन स्कल्पचर पेंटिंग, थ्री-डी पोट्रेट पेंटिंग बनाने में महारत हासिल है। अपने कला प्रेम को पूरी तरह व्यावसायिक रूप देने अगस्त 2022 में उन्होंने अपना एक आर्ट स्टूडियो ‘आर्ट एंड अंकिता’ भी शुरू किया है, जहाँ वे उपहार में देने योग्य कलात्मक वस्तुएं तैयार करती हैं। वे अभी तक 210 ऑर्डर पूरे कर चुकी हैं। 

अपनी साहित्यिक गतिविधियों के अलावा, अंकिता का किसान और उद्यमी होने का सफर सफलता के साथ जारी है। छोटी बहन कृतिका ने आईआईटी कानपुर से एमटेक किया है और वर्तमान में एक प्रायवेट कम्पनी के लिए ऑनलाइन काम कर रहीं हैं। अंकिता के दो बच्चे बेटा अद्वैत सात साल का कक्षा 2 में पढ़ रहा है, जबकि बेटी सर्वात्मिका अभी 3 साल की है और अभी-अभी स्कूल जाना शुरू किया है।

अंकिता कहती हैं “रोने से किसी समस्या का समाधान नहीं होता। ऐसा करके महिलाएं केवल दया की पात्र बनकर रह जाती हैं। उन्हें उनके अधिकार तभी मिलेंगे, जब वे सकारात्मक दिशा में लड़ना सीख जायेंगी”।

सन्दर्भ स्रोत : अंकिता जैन से सीमा चौबे की बातचीत पर आधारित

© मीडियाटिक

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