रुपहले पर्दे पर प्रदेश की पहली अदाकारा वनमाला

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रुपहले पर्दे पर प्रदेश की पहली अदाकारा वनमाला

छाया :गोपा पांडे के फेसबुक  अकाउंट से

 अपने क्षेत्र की पहली महिला
 

·         वास्तविक नाम था सुशीला देवी पवार

·         ग्वालियर की पहली ग्रेजुएट छात्रा थीं

·         फिल्म ‘सिकंदर’ की प्रसिद्धि से मिली पहचान

पृथ्वीराज कपूर (Prithviraj Kapoor) उन्हें डायना यानि चन्द्रमा की देवी कहकर बुलाते थे, पहाड़ी सान्याल उन्हें ‘माला’ कहते थे और मोतीलाल ने उन्हें नाम दिया था ‘ब्राइट आईज़’। दरअसल ये हाथी दांत में तराशे गए चेहरे पर उनकी हरी-नीली शरबती आँखें ही थीं, जिन्होंने उन्हें ऐतिहासिक फिल्म सिकंदर (Sikandar movie 1941) में रुखसाना की भूमिका दिलवाई। इस भूमिका में उन्होंने जबरदस्त अभिनय किया। यह फिल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई और वे रातों रात सितारा बन गईं। मिनर्वा मूवीटोन (Minerva Movietone) के बैनर तले बनी इस फिल्म में उनके साथ सोहराब मोदी (Sohrab Modi)और पृथ्वीराज कपूर थे। हिन्दी और मराठी फिल्मों की यह सुप्रसिद्ध अभिनेत्री दरअसल ग्वालियर की सुशीला देवी पवार (ushila Devi Pawar) थीं। फिल्मों की दुनिया में उनका नामकरण हुआ – वनमाला (vanmala) । उनका जन्म 23 मई 1915 को उज्जैन में हुआ था। उनके पिता कर्नल सरदार राव बहादुर बापूराव पवार (Colonel Sardar Rao Bahadur Bapurao Pawar) माधव राव सिंधिया ‘प्रथम’ के विश्वासपात्र और ग्वालियर रियासत में कलेक्टर और कमिश्नर जैसे ऊंचे पदों पर रहे। मां सीता देवी एक गृहिणी थीं। सुशीला देवी की प्रारंभिक शिक्षा सरदार डॉटर्स स्कूल (Sardar Daughters School) में हुई। वे विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर (Victoria College, Gwalior) जो तब आगरा विश्वविद्यालय के अंतर्गत था, की पहली महिला स्नातक थीं।

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16 साल की उम्र में उनका ब्याह मुंबई के वकील पी.के.सावंत (Advocate P.K.Sawant) के साथ कर दिया गया। वकील साहब की माली हालत कोई ख़ास अच्छी नहीं थी, जबकि सुशीला देवी राजसी जीवन जीने की आदी थीं। कुछ ही समय बाद वे पति का घर छोड़कर ग्वालियर आ गईं, जिससे उनके पिता बहुत नाराज़ हुए और उन्हें वापस मुंबई जाने का फरमान सुना दिया। सुशीला देवी ग्वालियर से निकल तो गईं, लेकिन मुंबई जाने के बजाय पुणे में अपनी मौसी के पास चली गईं। वहां उन्होंने सन् 1938 में बीटी की उपाधि हासिल की और आचार्य प्रह्लाद केशव अत्रे द्वारा संचालित आगरकर हाई स्कूल में अध्यापक बन गईं, जहाँ उनकी मौसी प्राचार्य थीं। लेकिन अपनी प्रतिभा को अभिव्यक्त करने की उनकी इच्छा प्रबल थी, इसलिए वे फिल्मों की तरफ मुड़ीं। आचार्य अत्रे के जरिए उनका संपर्क व्ही. शांताराम (v. Shantaram) जैसे मशहूर फिल्मकारों से हुआ। वह भारतीय फिल्म उद्योग का शुरुआती वक़्त था, जिसमें थोड़े-बहुत भी पढ़े-लिखे अभिनेता और सहयोगी पाना मुश्किल था। इसलिए व्ही. शांताराम ने आचार्य अत्रे के साथ अपनी फिल्मों के बारे में चर्चा के दौरान सुशीला देवी से कहा कि वे पटकथा लेखन में उनकी सहायता करें।

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शायद यह एक संकेत भी था कि उच्च वर्ग की स्त्रियों के लिए फिल्मों में अभिनय की कोई गुंजाइश नहीं है। वैसे भी उस समय संभ्रांत समाज में सिनेमा देखना अच्छा नहीं माना जाता था और सुशीला देवी तो उस पारंपरिक मराठा परिवार से आती थीं जिसमें पिता का कठोर अनुशासन था और माँ द्वारा दिए गए रूढ़िवादी धार्मिक संस्कार। हालांकि इस अनुशासन और संस्कार के कारण जब ज़रुरत हुई, उन्हें फिल्मों और रंगमंच से पीठ फेरने में ज़्यादा तकलीफ़ नहीं हुई। बहरहाल, सुशीला देवी ने शांताराम जी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। लेकिन जब उन्हें मराठी फिल्म ‘लपंडाव’ (Marathi film 'Lapandaav' 1940) में बतौर नायिका काम करने मौका मिला तो जैसे उनके मन की मुराद पूरी हो गई। इस फिल्म में उन्होंने एक परिष्कृत लेकिन बिंदास लड़की की भूमिका अदा की जो घुड़सवारी कर सकती थी, टेनिस खेल सकती थी और जिसे तैराकी की पोशाक पहनने से भी गुरेज नहीं था। सुशीला देवी उर्फ़ वनमाला के लिए यह सब करना स्वाभाविक ही था, क्योंकि बचपन में उन्हें इन चीज़ों का प्रशिक्षण मिल चुका था। ‘लपंडाव’ में उनके काम को भरपूर सराहना मिली सोहराब मोदी तो वनमाला के काम से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ‘सिकंदर’ में रुखसाना का किरदार अदा करने के लिए उन्हें चुन लिया।

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इस फिल्म में पृथ्वीराज कपूर और वनमाला की जोड़ी ऐसी जमी कि दोनों एक-दूसरे के हुनर की तारीफ़ करते थकते नहीं थे। पृथ्वीराज जी तो पृथ्वी थियेटर द्वारा तैयार किए गए नाटकों में भी अपने साथ काम करने के लिए वनमाला की मनुहार किया करते थे। फिल्म आज़ादी की राह पर (1948) में भी दोनों ने साथ काम किया। लेकिन जिन आँखों की वजह से वनमाला को सिकंदर मिली थी अगली फिल्म ‘परबत पे अपना डेरा’ में उन्हें वे आँखें बंद रखना पड़ीं, क्योंकि उसमें उन्हें एक नेत्रहीन लड़की की भूमिका निभानी थी, जिसमें वे इस कदर डूब गईं कि अपने आपको सचमुच नेत्रहीन समझने लगीं। ‘कादम्बरी’ नामक एक फिल्म में उन्होंने शांता आप्टे और पहाड़ी सान्याल के साथ काम किया, तो ‘परिंदे’ में सुरेन्द्र के साथ ‘मुस्कुराहट’ (1943) और एज़रा मीर की ‘बीते दिन’ (1947) में वे मोतीलाल (Motilal) की नायिका थीं। दोनों ही परिष्कृत व्यक्तित्व के मालिक और मंजे हुए अभिनेता थे और दोनों की जोड़ी उन दिनों बहुत लोकप्रिय हुई। वाडिया मूवीटोन की, ‘शरबती आँखें’ (1945) में भी वनमाला ने काम किया और ‘अंगारे’ (1954) में तो वे नरगिस  (Nargis) की मां बनीं।

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वनमाला की शुरुआती फिल्मों में एक थी वसंत सेना (1942) जो हिन्दी और मराठी में एक साथ जारी हुई थी और जिसमें वे एक दरबारी नर्तकी बनी थीं। महाकवि कालिदास के नाटक पर आधारित इस फिल्म का निर्माण चित्र मंदिर ने किया था, जिसकी स्थापना खुद वनमाला और आचार्य अत्रे ने मिलकर की थी। मराठी में वनमाला की एक और फिल्म ‘पायाची दासी’ (Payachi Dasi)  बाद में ‘चरणों की दासी’ (1941) नाम से हिन्दी में जारी हुई। इस फिल्म में उन्होंने सताई जा रही बहू और दुर्गा खोटे (Durga Khote) ने उनकी सास की भूमिका निभाई थी। यह फिल्म भी वनमाला ने बनाई थी इसके अलावा तस्वीर (1943) ‘परिंदे’ (1945) और कुछ अन्य मराठी फिल्मों का निर्माण भी उन्होंने किया। हिन्दी और मराठी दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखने वाली वनमाला को मराठी फिल्म श्यामची आई (Shyamchi Aai 1953) में अविस्मरणीय भूमिका के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रपति स्वर्ण कमल पुरस्कार (President's Golden Lotus Award for Best Actress) मिला। किसी भी फिल्म को मिलने वाला यह पहला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार था, जो भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (President Dr. Rajendra Prasad) ने प्रदान किया था। स्वतंत्रता सेनानी और प्रसिद्ध मराठी रचनाकार साने गुरुजी (Marathi writer Sane Guruji) के आत्मकथात्मक उपन्यास पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन आचार्य अत्रे ने किया था।

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महज 21 वर्ष की आयु में फिल्मी करियर शुरू कर वनमाला ने 22 हिन्दी और 10 मराठी फिल्मों में काम किया। उनकी अन्य यादगार फिल्मों में महाकवि कालिदास (1943) दिल की बात (1944), आरती (1945), चन्द्रहास (1947), हातिमताई (1947), खानदानी (1947), बैचलर हसबैंड (1950), नागपंचमी (1953), श्रीराम भरत मिलाप (1965 ) और मोरूची मावशी आदि शामिल हैं। व्ही. शांताराम के अलावा उन्होंने नवयुग चित्रपट कंपनी बनाने वाले  बाबूराव पेंढारकर और मास्टर विनायक  जैसे महान फिल्म निर्देशकों के साथ काम किया। लेकिन इतनी सफलताओं के बावजूद वनमाला के पिता उनसे नाराज़ ही रहा करते थे। उनके अंतिम समय में उनकी देखभाल करने के लिए वनमाला ग्वालियर वापस आ गईं और अपने जीवन के आख़िरी साल उन्होंने वृन्दावन में कृष्ण भक्ति में बिताए। वे एक परम देशभक्त महिला थीं, ग्वालियर में  उन्होंने प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी अरुणा आसफ अली, अच्युत पटवर्धन और आचार्य नरेंद्र देव को अपने घर भूमिगत रखा।

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वनमाला ने कुछ मराठी नाटकों में भी काम किया। उनके समग्र योगदान के लिए दादा साहेब फाल्के एकेडमी, मुंबई (Dada Saheb Phalke Academy, Mumbai) ने वनमाला को लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड (Lifetime Achievement Award) से सम्मानित किया तो महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें व्ही. शांताराम सम्मान दिया। वे महाराष्ट्र सरकार की ‘वीर शिवाजी स्मारक समिति’ की संस्थापक सदस्य भी थीं। उन्होंने भारतीय परंपरा और संस्कृति को बढ़ावा देने वृन्दावन में शास्त्रीय नृत्य एवं गायन के लिए हरिदास कला संस्थान (haridas kala sansthan) नाम से विद्या केंद्र स्थापित किया। इससे पहले नाट्यगृहों के सिनेमाघरों में तब्दील होते जाने से चिंतित वनमाला और दुर्गा खोटे ने मुंबई के ग्रांट रोड पर मराठी साहित्य संघ का सभागार बनवाया था। लम्बे समय तक कैंसर से पीड़ित वनमाला का निधन 92 वर्ष की आयु में 29 मई, 2007 को ग्वालियर में हो गया।

(यह आलेख  सिने प्लाट डॉट कॉम पर प्रकाशित  वनमाला जी की छोटी बहन सुमति देवी के साक्षात्कार, सिने माज़ी डॉट कॉम पर प्रकाशित आलेख तथा वनमाला जी की भतीजी श्रीमती मन्दाकिनी माथुर से पलाश सुरजन की चर्चा के आधार पर तैयार किया गया है।)

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