छाया : अनीता दुबे
साहित्य-विचार
हिन्दी साहित्य में मध्यप्रदेश की लेखिकाओं का योगदान भाग-1
• सारिका ठाकुर
भारत में महिला लेखन के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो अतीत में दूर तक बेचैन करने वाली एक रहस्यात्मक चुप्पी नज़र आती है। महिला लेखन को रेखांकित करने के लिए एक दैदीप्यमान नाम भक्तिकाल की मीराबाई के पश्चात आधुनिक काल की सुभद्रा कुमारी चौहान एवं महादेवी वर्मा पर आकर दृष्टि ठिठक जाती है मगर वह समयरेखा में व्याप्त बेचैन करने वाली वह रहस्यात्मक चुप्पी नहीं टूटती बल्कि संकेत सा देती है कि बहुत कुछ ऐसा है जो पीछे छूट गया और जिसके बारे में हम कुछ नहीं जानते अथवा उन्हें जानने योग्य नहीं समझा गया। इसलिए स्त्री लेखन का समस्त भारतीय परिपेक्ष्य में ही कोई व्यवस्थित सा इतिहास नहीं मिलता। विविध साहित्यों में टुकड़ों में कहीं कोई नामोल्लेख तो कहीं दो पंक्तियाँ किसी आदिकालीन अथवा मध्यकालीन कवियित्रियों की अवश्य मिल जाती हैं। उन टुकड़ों को जोड़ा जाए तो भी स्पष्ट चित्र तो नहीं बनता परन्तु धुंधला सा एक आकार जरुर चित्रित हो जाता है। समस्त महिला लेखन को सटीक वरिष्ठता के अनुक्रम में पिरोते हुए प्रस्तुत करना भी दुष्कर है क्योंकि प्राप्त विवरणों में कहीं मात्र संवत, कहीं शक संवत, कहीं विक्रम संवत तो कहीं अंग्रेजी केलेंडर के दिनांक अंकित हैं। यद्यपि तत्कालीन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर उन्हें प्रमुख काल में अवश्य विभाजित किया जा सकता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि अब तक साहित्य में जिस प्रकार का काल विभाजन किया जाता रहा है, उससे अलग दृष्टि रखते हुए महिला लेखन को देखने की आवश्यकता है क्योंकि प्रथमतः महिला लेखन को स्थान देने में ही कंजूसी बरती गई, द्वितीय जिस रीति काल में कवि गण नख-शिख वर्णन में डूबे हुए थे, उस युग में भी स्त्रियाँ कृष्ण के समक्ष अपनी अनकही पीड़ा गीतों या कविताओं में पिरो रही थीं । तत्कालीन स्त्री लेखन में श्रृंगार रस का आंशिक स्पर्श भी आध्यात्म और भक्ति की पोशाक में ही अभिव्यक्त होती है।
आदिकालीन स्त्री लेखन
स्त्री लेखन के पगचिन्हों का पीछा करते हुए अतीत के बौद्धकाल में जाकर कदम ठिठक जाते हैं। इस काल में रचित ‘थेरी गाथा’ पड़ताल का प्रमुख बिंदु है।
थेरी गाथा: बौद्ध ग्रंथों के त्रिपिटकों में सुत्तपिटक का एक भाग खुद्दक निकाय है, जिसमें सोलह ग्रन्थ संग्रहीत हैं। इन सोलह ग्रंथों में थेरी गाथा एवं थेर गाथा का महत्वपूर्ण स्थान हैं, जिनमें संघ के परमपद प्राप्त भिक्षु एवं भिक्षुणियों की आंतरिक अभिव्यक्तियों को स्थान दिया गया है, जिन्हें उदान(उद्गार) कहा गया है। दोनों गाथाओं में प्रमुख अंतर यह है कि थेर गाथा में अधिकाँश गाथाएँ आध्यात्मिक परिशुद्धि एवं आत्मविजय का जयघोष करती हैं जबकि थेरी गाथा में विगत की पीड़ा, मुक्ति की आकांक्षा, सुरक्षा बोध के साथ-साथ सौंदर्यानुभूति भी परस्पर गुंथे हुए प्रतीत होते हैं। इनमें सभी आयु एवं वर्ग की स्त्रियाँ सम्मिलती हैं। थेरी गाथा में अंकित भिक्षुणियों में अधिकांश बुद्ध के समकालीन थीं तथापि कुछ भिक्षुणी ऐसी भी हैं जिन्हें सम्राट अशोक का समकालीन बताया जाता है । अतः इसका रचनाकाल बौद्ध काल से तृतीय संगीति( इसका आयोजन 250/255 ईसा पूर्व हुआ था) स्वीकार किया जा सकता है। नीलिमा पाण्डेय द्वारा रचित पुस्तक ‘थेरी गाथा’ में अभय की माँ, अभया एवं इसीदासी नाम से तीन ऐसी थेरियाँ दर्ज हैं है जिनका सम्बन्ध उज्जैयिनी से बताया जाता है। हालाँकि इन तीनों लेखिकाओं का सटीक रचना काल ज्ञात नहीं है।
अभय की माँ (गाथा संख्या : 26. छंद संख्या: 33-34)
अभयमाता उज्जयिनी की गणिका थी। मगध के शासक बिम्बिसार से उसका एक पुत्र हुआ जिसका नाम अभय रखा गया। सन्दर्भों में कहा गया है कि सम्राट बिम्बिसार अभय से विशेष रखते थे एवं अभय ने वयस्क होने पर बौद्ध धर्म अपना लिया एवं भिक्षुक बन गए। पुत्र अभय के उपदेश से ही उसकी माँ ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी । उनकी गाथा इस प्रकर है –
माँ! देखो/ इस काया को/ नख से शिख तक/ शिख से नख तक/ क्या ये/ अशुद्ध दुर्गन्धयुक्त नहीं हैं?(33)
विचार किया मैंने/ विमर्श में अब भी हूँ रत / जब तक/ लालसाओं से/ न हो / हर धड़कन मुक्त/ इच्छा का ज्वार न मिट जाए/ धैर्यवान और शांत हूँ अब/ निर्वाण की परम शांति है। (34) सन्दर्भ: थेरीगाथा–नीलिमा पाण्डेय पृ- 41
अभया (गाथा संख्या : 27 छंद संख्या : 35-36)
अभया थेरी का जन्म उज्जयिनी के उच्च कुल में हुआ था। वे थेरी अभयमाता की सखी थीं। गाथा भाष्य में कहा गया है कि पारस्परिक मैत्री के कारण अभयमाता द्वारा संघ में प्रवेश लेने पर अभया ने भी भिक्षुणी बनने का निर्णय लिया था। उनकी गाथा इस प्रकार है –
क्षण भंगुर है देह/ आसक्ति है अज्ञान / तज दूंगी यह देह / स्थिर कर चित्त/ स्मृति और ज्ञान(35)
दुःख वासना प्रमाद/ से लड़कर/पाया मैंने ज्ञान/इस तरह थामी/बुद्ध शासन की कमान। (36) सन्दर्भ: थेरीगाथा –नीलिमा पाण्डेय पृ- 42
इसीदासी (गाथा संख्या : 72 छंद संख्या : 400-447)
इसीदासी की गाथा स्त्री जीवन की त्रासदी का आख्यान है। उसका सम्बन्ध उज्जयिनी के संपन्न वैश्य परिवार से था। अपनी गाथा में वह अपने तीन बार विवाह और परित्यक्त होने का उल्लेख करती है। पहले विवाह के उपरांत एक मास तक पति के साथ सुख से रही, पति परायण, गृहकार्य दक्ष और सदाचारिणी होने के बाद भी उसे पति द्वारा त्याग दिया गया। पिता ने दो बार उसका पुनर्विवाह करवाया और दोनों ही बार उसका परित्याग किया गया। अंततः निराश होकर जिनदत्ता नामक भिक्षुणी से उपसम्पदा ली और भिक्षुणी संघ में प्रवेश लिया।
पाटलिपुत्र शहर में/ शाक्य कुल में जन्मी / दो कुलीन भिक्षुणियाँ। (400)
नाम एक का इसीदासी / दूसरी कहलाई बोधि / सदाचारिणी शीलवती / थीं दोनों / ध्यान में रत, बहुश्रुत/ चित्त मल रहित (401)
बैठी एक दिन दोनों / खा-पी कर बर्तन धोकर / सुखपूर्वक करतीं गपशप/ (402)
इसिदासी तू सुख में पली / उम्र भी तेरी नहीं ढली / फिर किस अभाव में / तूने प्रव्रज्या चुनी? (403)
बोधि के प्रश्न का उत्तर देते हुए इसीदासी कहती हैं –
सुन बोधि / जिस प्रकार मैंने प्रव्रज्या ली/ उसकी कथा गुन(404)
उज्जयनी जो अवन्ती का सबसे बड़ा नगर है / वहां वास करते हैं मेरे / धर्मप्राण पिता / उनकी मैं इकलौती पुत्री / अति प्यारी / उनके जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा। (405)
और तब / साकेत से आया एक नागरिक / उच्च कुल का वैभवशाली / अपने पुत्र से विवाह के लिए / मांगने मेरा हाथ / और पिता ने दे दिया मुझे / उसकी पुत्रवधु के रूप में।
इसके बाद के छंदों में इसीदासी का संपूर्ण जीवन वृत्त दर्ज है।
सन्दर्भ: थेरीगाथा–नीलिमा पाण्डेय पृ-162
इस काल में जब भाषा के रूप में हिंदी का जन्म नहीं हुआ था एवं साहित्यिक संचार की भाषा संस्कृत अथवा उससे से भी पूर्व प्राकृत हुआ करता था , तीन स्त्री रचनाकारों का उल्लेख मिलता है। सीता पंडिता, शशिप्रभा एवं शीला भट्टारिका। तीनों ही रचनाकारों के ही सन्दर्भ में पुष्ट अक्षरशः प्रमाण कहीं नहीं मिलते। मालवा के परमार वंश के इतिहास से ज्ञात होता है कि उपेन्द्र कृष्णराज(800-818ई.) इस वंश के संस्थापक थे। धारा नगरी में इन्होंने अपने साम्राज्य की स्थापना की। 11वीं शती ईसवी में महाकवि पद्मगुप्त परिमल द्वारा रचित ‘नवसाहसांकचरित’ महाकाव्य में अंकित एक श्लोक से ज्ञात होता है कि ‘सीता’ नामक तेजस्विनी विदुषी द्वारा राजा उपेन्द्र की प्रशंसा में कोई काव्य रचना की गई थी। (नवसाहसांकचरित, 11वाँ, पृ.76-78.) इस आधार पर कुछ विद्वान् उन्हें राजा उपेन्द्र कृष्णराज की दरबारी कवियित्री मानते हैं एवं कुछ विश्लेषकों की राय में वे उनकी समकालीन थीं। इतिहास में दरबारी कवि के अनेक उदाहरण प्राप्त होते हैं जबकि कवियित्रियों का कहीं उल्लेख भी नहीं मिलता। इस दृष्टि से ‘सीता पंडिता’ का महत्व बढ़ जाता है। द्वितीय धारणा के अनुसार यदि उन्हें मात्र उपेन्द्र कृष्णराज की समकालीन कवियित्री माने तो भी वे पत्थर की लकीर ही सिद्ध होती हैं क्योंकि राजा की प्रशंसा के अतिरिक्त उन्होंने अन्य काव्य भी रचे होंगे जो अतीत के अंध कूप में कहीं गुम हो चुका है। परन्तु इस आधार पर निर्विवाद रूप से उन्हें मध्यप्रदेश की आदि कवियित्री के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। हिंदी 8वीं शाताब्दी से 14वीं शताब्दी तक की अवधि को साहित्य का आदिकाल माना गया है। सीता पंडिता इस काल विभाग की सीमा से परे अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
सीता पंडिता के नामोल्लेख के पश्चात् कई सौ वर्षों के उपलब्ध साहित्य के विस्तृत इतिहास में स्त्री लेखन का उल्लेख शून्य है। कालक्रमानुसार संस्कृत से पूर्व प्राकृत की रचनाएं मिलती हैं जिनका स्रोत है ‘गाथा सप्तशती’, जिसमें लगभग सात सौ गाथाएँ संकलित की गईं हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि – प्राकृतकाल 1-550 ई. संस्कृत काव्य का स्वर्णयुग माना जाता है। इस सुवर्ण-युग के थोड़े ही से प्राकृत छींटे ‘गाथा सप्तशती’, ‘सेतुबंध’ आदि के रूप में हमारे ऊपर पड़े। अतः प्राकृत और संस्कृत दोनों ही काल में कवियित्रियों ने रचनाएँ की हैं, परन्तु उनमें बहुत कम हमें उपलब्ध है।( हिंदी साहित्य का आधा इतिहास: सुमन राजे, पेज-111)\
गाथा सप्तशती की सात सौ गाथाओं में 16 गाथाएँ स्त्री कवियों की हैं, इनमें शशिप्रभा की गाथा क्रमांक 4 में संकलित है, इनके सम्बन्ध में अनुमान लगाया जाता है कि परमार राजा मुंज एवं उनके उत्तराधिकारी के दरबारी पद्मगुप्त ने अपनी रचना ‘नवसाहसांक चरित’ में राजा सिन्धुल की रानी शशिप्रभा का उल्लेख किया है, संभवतः यही वह कवियित्री हैं। ( हिंदी साहित्य का आधा इतिहास: सुमन राजे, पेज-111) उल्लेखनीय है कि राजा सिन्धुल धारा नगरी (वर्तमान धार) के राजा थे जिनके पुत्र राजा भोज हुए, हालाँकि राजा भोज की माता का नाम सावित्री था। यदि पद्मगुप्त द्वारा उल्लेखित रानी शशिप्रभा एवं गाथा सप्तशती के क्रमांक -4 में अंकित कवियित्री शशिप्रभा दोनों एक ही व्यक्तित्व हैं तो इन्हें प्राकृत भाषा में कविताएं रचने वाली मध्यप्रदेश की आदि कवियित्री माना जा सकता है। उनकी कुछ पंक्तियों का अनुवाद ‘हिंदी साहित्य का आधा आधा इतिहास पुस्तक में इस प्रकार अंकित है –
‘प्रेम मेरे चांचल्य का विधायक है,
मेरा प्रिय जैसे-जैसे बजाएगा,
मैं वैसे-वैसे नाचूंगी।
स्वभावस्तब्ध-वक्ष में भी
चंचलता लिपटी रहती है।
आदिकालीन तृतीय रचनाकार(संस्कृत) शीला भट्टारिका के वंश अथवा रचनाओं के सन्दर्भ में भी विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है तथापि गिनी चुनी उपलब्ध रचनाओं के आधार पर भी ये मजबूती से दर्ज होती हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपने ग्रन्थ ‘संस्कृत काव्यधारा’ में शीला भट्टारिका का उल्लेख करते हुए उन्हें 670 ई. की मानते हैं। शीला भट्टारिका संस्कृत में पांचाली शैली में श्रृंगारिक कविताएँ रचती थीं। राहुलजी के अनुसार भट्टारिका आमतौर पर रानियों या पारिव्राजिकाओं को कहा जाता था। संभवतः शीला राजा की पत्नी थीं एवं इनका समयकाल भृतहरि और माघ का प्रतीत होता है। इनके जन्म स्थान को लेकर डॉ. बलदेव उपाध्याय (संस्कृत साहित्य का इतिहास) ‘कश्मीर’ निरुपित करते हैं। -सन्दर्भ: हिंदी साहित्य का आधा इतिहास(सुमन राजे)। मैसूर विश्वविद्यालय की एम.बी. पद्मा उन्हें राष्ट्रकूट के राजा ध्रुव की पत्नी शीला-महादेवी स्वीकार करती हैं। परन्तु अपनी रचनाओं में शीला भट्टारिका नर्मदा नदी एवं विन्ध्य पर्वतमाला का उल्लेख करती हैं जिसके आधार पर कई विद्वानगण उन्हें विन्ध्य पर्वत के आसपास नर्मदा नदी के निकट निवास करने वाली बताते हैं। यदि राहुल जी के तर्कानुसार उन्हें राजकन्या स्वीकार किया जाए तो विन्ध्य क्षेत्र में नर्मदा के तट पर स्थापित अनेक राज्यों में से किसी एक की राजकन्या अथवा किसी नरेश की पट्टमहिषी वे प्रतीत होती हैं। ऐसा स्थापित न होने पर भी नर्मदा नदी एवं विन्ध्य पर्वतमाला का उल्लेख करने वाली ऋषि कुमारी या ऋषि पत्नी के रूप में शीला भट्टारिका की कल्पना की ही जा सकती है। इस दृष्टि से उन्हें प्रदेश की आदिकालीन शेष दो कवियित्रियों के समकक्ष स्थापित किया जा सकता है, जिनकी स्वतन्त्र रचनावली या ग्रन्थ प्राप्त न होने पर भी उनकी उपस्थिति को निरस्त नहीं किया जा सकता। परमार राजा भोज ने अपने ग्रन्थ ‘सरस्वती कंठाभरण’ में शीला भट्टारिका का उल्लेख किया है, इसलिए कवियित्री शीला का सम्बन्ध परमार वंश से भी जोड़ा जाता है। मात्र 46 ज्ञात रचनाओं के उपरांत भी उनकी चर्चा के बिना संस्कृत साहित्य का इतिहास पूर्ण नहीं होता। वर्तमान में उनकी मात्र छः कविताएँ शेष हैं जिनका एंड्रू स्केलिंग ने अंग्रेजी में अनुवाद कर दुनिया भर के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। इसके अलावा कुछ भारतीय लेखकों ने उनकी रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया है। वर्ष 2009 में बिहार की संस्कृत विदुषी मिथिलेश कुमारी मिश्रा द्वारा शीला भट्टारिका पर आधारित उपन्यास प्रकाशित हुआ यद्यपि इस उपन्यास में वे शीला भट्टारिका को आन्ध्रदेश की नागरिक बताती हैं।
शीला भट्टारिका की रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद –
Who deprived me of my virginhood that same, indeed, is my bridegroom;
those same are the nights of Chaitra (spring); and those same are the luxuriant kadamba breezes, fragrant with the blooming malati flowers;
and I too, am what I was;
yet my heart longs for indulging in sports of love, there beneath the cane arbour on the banks of Narmada\
— Shilabhattarika (Translation by R. C. Dwivedi -1977, The poetic Lights –Motilal Banarsidas
Nights of jasmine & thunder,
torn petals
wind in the tangled kadamba trees.
Nothing has changed-
Spring has come again and we’ve simply grown older.
In the cane groves of the Narmada
he deflowered my
girlhood, long before we were
married.
And I grieve for those far-away nights
when we played at love
By the water. (Transleted by Andrew Schelling, 2003)
© मीडियाटिक
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