सिया दुलारी : अग्नि परीक्षा से गुजरी लेकिन ज़मीन नहीं छोड़ी 

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सिया दुलारी : अग्नि परीक्षा से गुजरी लेकिन ज़मीन नहीं छोड़ी 

छाया: स्व सम्प्रेषित

• सारिका ठाकुर 

सामाजिक कार्यकर्ता

लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं

मैंने उस हाल में जीने की कसम खाई है

अमीर कज़लबाश का यह शेर रीवा की सामाजिक कार्यकर्ता सिया दुलारी के जीवन की असल कहानी बयां करता है। तमाम मुश्किलात के बावजूद उन्होंने न केवल जीने की कसम खाई बल्कि अपने जैसे कई लोगों की जिन्दगी बदलने में भी कामयाब रहीं।

7 जुलाई 1980 में जन्मी सिया रीवा जिले के बौना  कोठार गाँव में रहने वाले कोल आदिवासी समुदाय से आती हैं। सभ्य और शिक्षित सवर्णों के लिए अछूत माना जाने वाला यह समुदाय आज भी शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं से कोसों दूर है। सिया के पिता श्री रामफल कोल और माँ श्रीमती छोटी देवी कोल दोनों ही बंधुआ मजदूर थे। उन्हें काम के बदले पैसा नहीं सिर्फ सवा किलो अनाज मिलता था। यानी ढाई किलो अनाज में वह गृहस्थी चल रही थी जिसमें माता-पिता के अलावा 6 बच्चियां भी थीं। सिया उनमें चौथे स्थान पर थीं।

उस समय बौना कोठार गाँव में स्कूल नहीं था। वहां के बच्चे पढ़ने के लिए पास के दूसरे गाँव में जाते थे। सिया की बहनें भी कुछ दिन उस स्कूल में गईं  लेकिन छुआछूत के कारण उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया। परन्तु सिया औरों से अलग थी और थोड़ी ज़िद्दी भी। उसने पहली और दूसरी कक्षा की पढ़ाई उसी गाँव के स्कूल से की। सिया बताती हैं, उस दौरान छुआछूत का यह आलम था कि स्कूल जाते समय सवर्ण बच्चों से आगे अछूत बच्चे नहीं चल सकते थे। अगर कभी भूल से आगे निकल भी जाएं तो मास्टरजी थप्पड़ रसीद कर देते थे। स्कूल में बैठने और पानी पीने की अलग जगह होती थी। दो साल के बाद गाँव में प्राथमिक शाला शुरू हुई, जहाँ से उन्होंने पांचवी तक की पढ़ाई की। आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें पास के गाँव कोटरा कलां जाना पड़ा। सिया के पढ़ने की यह ललक गाँव के कई लोगों को रास नहीं आई। वे उसके पिता से कहते - “मास्टराइन  बनाओगे क्या बेटी को? भेज दो हमारे यहाँ, कुछ काम करेगी तो दो पैसे कमाकर लाएगी।’’ सिया के पिता हंसकर जवाब देते, “मास्टराइन क्या बनेगी,अपना और गाँव का नाम लिखना सीख जाएगी।’’  

90 के दशक में जब सिया 8वीं कर चुकी थीं, उसी समय गाँव में हैजा फैला और उनकी माँ उसकी चपेट में आकर चल बसीं। उनके पिता बिन माँ की बच्चियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हो गए। आनन-फानन में 24 मई 1995 में सिया और उसकी छोटी बहन की शादी कर दी गई। सिया का पति दिहाड़ी मज़दूर था। उस समय सिया महज 14 साल और उनकी छोटी बहन 12 साल की थीं। शादी के बाद वे अपने ससुराल बनगांव धुरकुच आ गईं। लेकिन इस  नई नवेली दुल्हन को क्या पता था कि उसने इंसान नहीं, हैवान को अपना जीवनसाथी बनाया है। जल्द ही ससुराल में सिया की दर्द भरी चीखें गूंजने लगीं। उसके पति का बर्ताव किसी हिंसक जानवर की तरह होता। उसकी पिटाई से बेदम होकर सिया कई-कई दिनों तक बिस्तर से उठ नहीं पाती थीं। लम्बे अरसे तक यह सिलसिला चलता रहा और इस बीच वे तीन बच्चों की माँ बन गई।

साल 2001 में किसी समाजसेवी संस्था की दो कार्यकर्ता गाँव में आईं। वे दोनों गाँव की महिलाओं को इकट्ठा करके उनके और बच्चों के हित की बात कर रही थीं। अपने घर की खिड़की से उनकी बातों को सुन रही सिया भी उन महिलाओं के बीच बैठकर उनकी बातें सुनने लगी। बैठक ख़त्म होने के बाद वह उन कार्यकर्ताओं से मिली और उनके साथ जुड़ने की मंशा जताई। बातचीत आगे बढ़ी और वह उस संस्था के प्राथमिक शाला में पहली और दूसरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाने लगी जिसके लिए उसे 3 सौ रूपये मिलने लगे, इसके अलावा रविवार को वह फील्ड में जाकर उस संस्था के लिए सर्वे का काम भी करती। मगर यह सब आसान नहीं था। डरी सहमी पत्नी के घर से बाहर निकलने जैसे फैसले से सिया का पति तिलमिला उठा। उसका बर्ताव और भी हिंसक होने लगा, जिसे सहन करते हुए  उस संस्था से जुड़कर सिया ने बच्चों को पढ़ाने के अलावा 32 स्वयं सहायता समूहों का गठन किया। लेकिन उस संस्था की नीयत साफ़ नहीं थी। जल्द ही उसे समझ में आने लगा कि संस्था के संचालक कार्यकर्ताओं के हक़ का पैसा मारकर अपनी जेब भर रहे हैं।

इधर घर के हालात बिगड़ते ही जा रहे थे। साल 2005 में एक दिन पति ने इतना पीटा कि सिया ने बिस्तर पकड़ लिया। शरीर पर बेहताशा मिली चोटों के चलते आँखों से दिखना बंद हो गया था। चार-पांच दिन बाद वह बैठकों और सभाओं में हिस्सा तो लेने लगीं, लेकिन चेहरे पर पड़े चोटों को छिपाने की सभी कोशिशें नाकाम रहीं। उसी समय बच्चों के साथ घर छोड़कर वे दभौरा गाँव में रहने लगीं लेकिन सिया के पति ने पीछा नहीं छोड़ा और वह वहां भी पहुँच गया। सिया के लिए उनकी गृहस्थी किसी यातना शिविर से कम नहीं थी।

सितम्बर 2006 में, रोजगार गारंटी योजना को लागू करवाने को लेकर लखनऊ में रैली निकाली गई और उसमें शामिल होने के लिए देश भर के श्रमिकों का आह्वान किया गया था। इस रैली में सिया भी शामिल हुईं। उनका दल जिस ट्रेन में सवार था उसे लखनऊ से तीन स्टेशन पहले रोक दिया गया और बड़ी कठिनाइयों के बाद वे लोग रैली वाली जगह तक पहुँच सके थे। वहां मप्र के मजदूरों का प्रतिनिधित्व करते हुए सिया को भी बोलने का मौक़ा मिला। बच्चों के लिए काम करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्था 'चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) के प्रतिनिधि भी थे। उसी समय उन्होंने सिया से संपर्क किया और अपनी संस्था से जुड़ने का न्योता दिया। बाद में वे उसे ढूंढते हुए उसके गाँव तक पहुंचे और एक फैलोशिप के लिए आवेदन करने को कहा। सिया ने सबसे छुपा कर वह आवेदन कर दिया जिस पर निर्णय होने में करीब एक साल लग गया। इस बीच सिया ने पुरानी संस्था छोड़कर अपना एक अलग संगठन ‘समाज चेतना अधिकार’ और ‘रीवांचल दलित आदिवासी सेवा संस्थान समिति’ की स्थापना की। संगठन और संस्था दोनों के माध्यम से वह स्वतंत्र रूप से काम करने लगीं लेकिन साधन रहित प्रयास की गति बहुत ही धीमी थी। इस दौरान वह कई समाजसेवी संस्थाओं और संगठनों के संपर्क में आईं।

साल 2007 में ही एक बार वे हरियाणा किसी संस्था के कार्यक्रम में हिस्सा लेने गई थीं। इस बीच महतिया गाँव में आदिवासियों और पुलिस के बीच हिंसक झड़प हो गई। दरअसल सरकार विकास कार्य के लिए वह ज़मीन खाली करवाना चाहती थी, जिस पर स्थानीय आदिवासी काबिज थे। 19 अप्रैल को जब सरकारी अमला पुलिस बल के साथ ज़मीन खाली कराने आया तो आदिवासी टस से मस नहीं हुए। नतीजतन, कई लोगों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज कर लिया गया। सिया जब हरियाणा से वापस लौटीं तो यह जानकर हैरान रह गईं कि प्रमुख आरोपियों में उनका नाम सबसे ऊपर दर्ज है और 11 विभिन्न धाराओं के तहत उस पर अभियोग लगाए गए हैं। यह काम उन्हीं लोगों का था जिन्होंने शुरुआत में सहारा दिया था और बाद में उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझने लगे थे। यह जानकारी मिलते ही सिया ने घर से निकलना बंद कर दिया। 2008 में उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया। अब छुपकर रहना संभव नहीं था। जमानत के लिए वे जबलपुर हाईकोर्ट गयीं लेकिन उन्हें सेशन कोर्ट भेज दिया गया। उनके पास घटना वाले दिन अपने हरियाणा में होने का सबूत था, इसके अलावा जिन लोगों की गवाही को आधार बनाकर उनके खिलाफ वारंट जारी हुआ था, वे कोर्ट में पहचान तक नहीं पाए और वे बाइज्ज़त बरी हुईं।

इसी साल 2008 से उन्हें 'क्राई' से फेलोशिप मिलने लगी जिसके तहत उन्हें हर महीने तीन हज़ार रूपये मिलते थे। अब सिया की व्यस्तता और भी बढ़ गई क्योंकि वे क्राई के अलावा अपनी संस्था के लिए भी काम कर रही थीं। साल 2009 में  सिया की ज़िन्दगी में फिर एक मोड़ आया जब पति घर छोड़कर चला गया और इसके साथ ही यातनाओं का दौर भी ख़त्म हुआ। बाद में उसने किसी और दो बच्चों की माँ से शादी कर ली। अगले आठ-दस सालों तक सिया 'क्राई' के साथ मिलकर काम करती रहीं। उसके बाद वह सिर्फ अपनी संस्था के माध्यम से स्वतंत्र रूप से काम करने लगी।  तब तक सिया दुलारी का नाम  स्थानीय लोगों के अलावा कई प्रतिष्ठित समाजसेवी संस्थाएं भी जान चुकी थीं। सिया की संस्था को विकास संवाद जैसी अनुसंधान केन्द्रित संस्थाओं का साथ भी मिला और वर्तमान में वे नेशनल फाउंडेशन ऑफ़ इण्डिया के सहयोग से महिलाओं और बच्चों के लिए काम कर रही हैं।

साल 2023 में सिया दुलारी की बेटी आसमां आदिवासी मप्र की सबसे कम उम्र की पार्षद बनीं। वे दभौरा नगर परिषद, वार्ड क्रमांक 7 से चुनाव लड़ी थीं। यह वहीं मतदान क्षेत्र हैं जिसमें सिया के पति अपनी दूसरी पत्नी और बच्चों के साथ रहते हैं। सिया के दो बेटे अभी पढ़ाई कर रहे हैं। इस वक़्त उनकी संस्था में 15 सदस्य हैं जिन्हें संस्था से मानदेय भी मिल रहा है। बेटी के पार्षद बन जाने से एक माँ के रूप में भले ही उन्हें निश्चिंतता मिली हो लेकिन आदिवासी समाज की कई लड़कियों के हक़ में उनकी लड़ाई आज भी जारी है।

संदर्भ स्रोत: सिया दुलारी से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित 

©  मीडियाटिक 

Comments

  1. Ravi prakash Langer 07 May, 2023

    Excellent work community must support this brave lady.

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