प्रेमलता पंडित : मिट्टी के खिलौनों से संवारी

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प्रेमलता पंडित : मिट्टी के खिलौनों से संवारी
अपनी और दूसरों की ज़िन्दगी 

छाया: स्व सम्प्रेषित 

लोक कलाकार

• सारिका ठाकुर

होशंगाबाद जिले के पिपरिया कस्बे में रहने वाली प्रेमलता पिछले तीस सालों से शौकिया तौर पर मिट्टी से खिलौने बनाने का काम करती हैं। वे बच्चों और बड़ों  को भी यह काम सिखाती हैं। इन खिलौनों पर इतनी सुंदर डिजाइन किस तरह से बनाई जाती है, जानकर हैरानी होती है। तरह तरह की चीज़ें - जो आम तौर पर फेंक दी जाती हैं, जैसे गुझिया बनाने का सांचा, टूटे खिलौने, आई ड्रॉप की शीशी, स्केच पेन के ढक्कन, तरह तरह की चूड़ियां, पेन की रिफिल, प्यालियां आदि, इसके अलावा भी बहुत तरह के सामान प्रेमलता जी के पिटारे में मिल जाते है। जिनका इस्तेमाल वो मिट्टी के खिलौनों को आकार और उन पर डिजाइन बनाने के लिए करती है। इन खिलौनों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय तरह तरह के आकार वाली सीटियां है, जिसे वे पपीहरा कहती हैं। वे कहती हैं कि मिट्टी को आकार देते समय हम प्रकृति से जुड़ाव तो महसूस करते ही हैं, कलात्मकता को भी समझते है, सीटी बजाने से सांसों की कसरत होती है और फेफड़े मजबूत होते हैं।

मूलतः बिहार के मुंगेर जिले में स्थित गाँव ‘लौना खुदिया परचा’ में जन्मी प्रेमलता को जन्म तिथि तो नहीं पता लेकिन अपनी उम्र 62 बताती हैं। उनकी माँ का नाम रमा पंडित और पिता का नाम श्री राजकुमार पंडित है।  उनकी दो बड़ी बहनों की शादी उनके जन्म से पहले ही हो गया था, इसलिए इकलौती न होने पर भी इकलौती संतान वाला प्यार-दुलार माता और पिता दोनों से मिला। पिता खेती-किसानी के साथ ही पारम्परिक मिट्टी के बर्तन बनाने का काम भी करते थे। “गांव में जब गाय चराने जातीं थीं और गायों को बुलाना होता था, तो मैं हाथ से बनाई मिट्टी की सीटी बजाती और मेरी गाय मेरे पास आ जाती, उसके पीछे पीछे दूसरों की गाय भी आ जाती।” हाथों में मिट्टी को आकार देते देते प्रेमलता पंडित अपनी कहानी बहुत ही उत्साह से सुनाती हैं। गाँव में रहते थे, बचपन में कभी स्कूल नहीं जाने दिया, लेकिन चचेरे भाई घर में पढ़ाई करते तो मैं सुनकर पाठ याद कर लेती थी, बकरी चराते समय वही पाठ साथ के बच्चों को सुनाती।

सभी ने कहा तुम भी हमारे साथ स्कूल चलो। बातों-बातों में ही किसी ने किताब  किसी बच्चे ने स्लेट, किसी ने कलम दे दी। घर जाकर उन्होंने मां से कहा कि मैं स्कूल जाऊंगी, उसी दिन शाम को खाना खाते समय मां ने बाबूजी को बता दिया। बाबूजी ने हंस कर कहा कि बीए-ईए पास कर लेगी और लिए-दिए साफ़ कर देगी। उनकी हंसी सुनकर थोड़ा बुरा लगा तो बाबूजी ने समझाया तू पढ़ना चाहती है, सुनकर अच्छा लगा, लेकिन यहां तो कोई बेटी पढ़ती ही नहीं है, तू कैसे इतनी दूर जाएगी। इस गांव से तो केवल तीन ही बेटियां - जो विधायक, वैद्य और सरपंच की हैं, वही पढ़ने जाती हैं। परीक्षा के समय पुलिस वाले उनकी सुरक्षा में तैनात रहते हैं।” लेकिन नन्ही प्रमिला ने स्कूल जाने की ज़िद पकड़ ली। पहले ही दिन स्कूल जाने वाले बच्चों की झुण्ड में वे भी शामिल हो गईं। उस समय स्कूल तक पहुंचने के लिए दो नदी और एक नहर पार करना पड़ता था। बच्चों ने दो नदियां तो पार कर लीं, लेकिन नहर पार करते हुए दो बच्चे बहने लगे। प्रमिला ने छलांग मार कर एक बच्चे का पैर पकड़ लिया और उसे बचा लिया, जबकि एक बच्चा बह गया। घर वापस गई तो बहुत डर गई, घर के आसपास भीड़ जमा थी, लगा कि अब तो मार पड़ेगी। लेकिन लोगों ने बाबूजी से कहा कि आपके बेटी ने हमारे बच्चे की जान बचा ली, और बाबूजी ने गले लगा लिया था। यह किस्सा सुनाते-सुनाते प्रेमलता जी का गला भर आया, वे कहती हैं, “उस दिन के बाद से स्कूल जाने की ज़िद कभी नहीं की।”

घर में चाक पर काम होता था, लेकिन उन दिनों लड़कियों को चाक पर बैठने की भी मनाही थी। बचपन में आवाज़ निकलने के लिए आम की गुठली, कनकव्वै की पत्तियों से सीटी बजाते। मिट्टी से खेलती, हाथ से मिट्टी के बर्तन वगैरह तो बना लेती थी, मैदान में मिट्टी के खिलौने बनाने लगी और वहीं पर तरह-तरह के पपीहरे बनाने लगी। बिहार के मुंगेर-भागलपुर क्षेत्र में मिट्टी से बना पपीहरा पारंपरिक खिलौना है जिसे बनाना कुम्हार समुदाय के बच्चे खेल-खेल में सीख जाते हैं। मां बीमार रहने लगी तो बारह साल की उम्र में ही शादी कर दी गई। शादी क्या होती है, उस वक़्त मालूम ही न था। तीन साल बाद गौना हुआ और वे अपने ससुराल ‘लालमणिचक’ आ गई जो भागलपुर जिले में है। प्रेमलता जी के पति श्री दिनेश पंडित उस समय 10वीं में पढ़ते थे। उस समय भी अपने पति से उनकी बात नहीं होती थी, वे सिर्फ खाना खाने ही आँगन आते थे। ससुराल में सभी अच्छे थे लेकिन जेठानी को वे कुछ ख़ास पसंद नहीं थीं। वह हर दिन तंग करने के नए तरीके ढूंढती रहती थी। प्रेमलता के लिए वह जीवन का सबसे बुरा दौर था। कुछ समय बाद पति इस्पात कारखाने में काम करने के लिए बोकारो चले गए। एक दिन जेठानी ने चोरी का इल्जाम लगा दिया, हालाँकि बाद में सच सामने आ गया लेकिन इस इल्जाम की वजह से उन्होंने अपनी जिन्दगी ख़त्म करने का फैसला कर लिया। गाँव में बहने वाली नहर के पास बेर की एक झाड़ थी जिसके बारे में यह कहा जाता था कि उसमें भूत रहते हैं और जो भी उस झाड़ के पास जाता है जीवित नहीं बचता। वह बरसात की एक डरावनी सी रात थी। सभी सो चुके थे, बारिश हो रही थी और रोती हुई प्रेमलता बेर के उस झाड़ के पास जा पहुंची कि भूत आकर मार डाले। काफी देर वहां गुजारने के बाद भूत तो नहीं आया, सर्दी से हालत ज़रुर खराब हो गई। दूसरा विचार आया कि नहर में कूद जाना चाहिए लेकिन इस ख़याल को दिमाग से निकाल कर वे घर लौट आईं। यह कहानी सुनाते समय प्रेमलता ज़ोरों से हंसती हैं लेकिन जिस समय वह सबकुछ उनके साथ हो रहा था, वह वाकई एक तनाव से भरा वक्त रहा होगा। उसी दौरान बोकारो स्टील प्लांट में एक हादसा हुआ जिसमें ऊंचाई से गिरकर एक अधिकारी की मौत हो गई। प्रेमलता जी के पति उस समय उसी व्यक्ति के निर्देश पर काम कर रहे थे। इस घटना से उनकी हिम्मत टूट गयी और वे गाँव आ गए। घर में भी सभी ने वापस नहीं जाने का सुझाव दे रहे थे, लेकिन ज़िन्दगी जहन्नुम से भी बदतर होती चली गई।

दिनेश जी के एक दोस्त जो ‘किशोर भारती’ संस्था से जुड़े हुए थे, उन्होंने दिनेश को पिपरिया बुला लिया। इससे पहले परिवार में किसी ने मध्यप्रदेश का नाम नहीं सुना था। कुछ समय बाद वे भी अपने पति के साथ पिपरिया आ गईं। यहीं उनके दोनों बच्चे ‘जलज और नीरज’ का जन्म हुआ। वे कहती हैं, अपने बच्चों के लिए खिलौने मैं खुद बनाती थी, कभी बाज़ार से खरीदकर नहीं लाई। एक बार अपने बच्चे को वे पपीहरे से आवाज़ निकाल कर बहला रही थीं, जिसे  सुनकर डॉ.मीरा सदगोपाल उनके पास आईं। उन्होंने पपीहरा देखा और कहा तुम नहीं जानतीं कि इसको बनाने के क्या मायने है। फिर उन्होंने बहुत प्रोत्साहित किया, तब से मिट्टी के खिलौने बनाने और सिखाने का सिलसिला दुगने उत्साह से आज तक चल रहा है। डॉ. सदगोपाल के प्रयास से वे सबसे पहली बार राजस्थान गईं और वहाँ करीब साढ़े छः सौ महिलाओं को ‘माटी कला’ का प्रशिक्षण दिया। इसके बाद उन्होंने देवास, हरदा, दिल्ली, भोपाल, खजुराहो, उज्जैन, लखनऊ, मुंबई, शाहपुर, चीचली, धमतरी और राजस्थान के इलाकों में बहुत सारी कार्यशालाएं कीं। उज्जैन में उन्हें कला गुरु विष्णु चिंचालकर स्मृति पुरस्कार मिला। मुंबई में एक फैलोशिप मिलने वाली थी, लेकिन छोटे कस्बे से होने के कारण नहीं मिल सकी। प्रेमलता मप्र माटी कला बोर्ड से भी सम्बद्ध हैं तो लोकरंग और अन्य कार्यक्रमों में उनको बुलाया जाता रहा है। अपने बीते दिनों की याद करके प्रेमलता बतातीं है कि एक बार लखनऊ में कार्यशाला के दौरान कुछ बच्चियों ने मिट्टी का पपीहरा तो बना लिया, लेकिन उसे बजाने से इंकार कर दिया। बहुत पूछने पर एक बच्ची ने बताया कि वह सीटी नही बजा सकतीं क्योंकि वह लड़की  है, यह सुनकर वह दंग रह गईं। राजस्थान में एक सम्मेलन में 5 हज़ार से अधिक महिलाएं आई थी, उनमें कईं बूढ़ी महिलाओं ने विभिन्न खिलौनें बनाना सीखे और सीटी बनाई और बजाई भी।

प्रेमलता का जुड़ाव शुरू से खेत खलिहान नदी पानी और प्रकृति से रहा है, इसलिए उनकी बनाई हुए आकृतियों में गिलहरी, हाथी, छिपकली, पैर, कछुआ और सांप मिलते ही हैं। पपीहरा के लम्बे, गोल और विभिन्न आकृतियों के होते हैं। जुरासिक पार्क फिल्म देखने के बाद उन्होंने डायनासोर भी बनाए। उन्होंने कभी भी इन आकृतियों पर रंग नहीं किया, जैसी भी आकृतियां है, उन्हें उनके मूल स्वरूप में ही रखती हैं। खिलौनों को जमीन पर, भट्टी में और मटके में भी पका लेती है, लेकिन लोग तो कच्चा भी ले लेते हैं। बहुत सादगी और सहज रूप से रहने वाली प्रेमलता बताती हैं कि वे कभी भी इंसान और भगवान की आकृति नहीं बनातीं। बचपन में मां ने कहा था कि कोई चूक हो गई तो बहुत दुख मिलेगा, वह बात मन में रह गई। प्रेमलता चालीस साल पहले प्रजनन जागरूकता कार्यक्रम में काम करती थीं। वे बताती हैं कि अनपढ़ होने के बावजूद थोड़ा बहुत लिखना जानती थीं। एक बार किसी रिपोर्ट में उन्हौनें बच्चेदानी को मच्छरदानी लिख दिया तो उनकी खूब हंसी उड़ाई गई। मन में आज भी लगता है कि काश मैं पढ़ पाती। वे याद करती हैं कि पिताजी जब पिपरिया आए तो रोने लगे और कहा कि माफ़ करना। मैं तुम्हें पढ़ा नहीं सका, पढ़ा देता तो आज कहीं और होतीं। अब मुझे लगता है कि बच्चे कोई अवसर न चूकें, उनको मिट्टी से जोड़ सकूं, खूब सिखाऊं उनका साथ दूं।

वर्तमान में वे अपने पति और दोनों बेटों के साथ वे पिपरिया में ही निवास कर रही हैं। किशोर भारती संस्था के बंद हो जाने के बाद से ही उनका परिवार आर्थिक समस्या से जूझ रहा है। पैसों की तंगी की वजह से दोनों बेटे भी नहीं पढ़ पाए। फिर भी प्रेमलता बच्चों के साथ काम करते हुए, खिलौने बनाते हुए बहुत खुश हैं। उनके संघर्ष की कहानी सुनकर कबीर याद आ ही जाते हैं। उन्होंने लिखा था कि जैसे कुम्हार द्वारा मिट्टी रौंदने की प्रक्रिया में बहुत सहना पड़ता है, उसी प्रकार जीव को रूप ग्रहण करने में काल और कर्मों की अनेक यातनाएं सहनी होती हैं।

माटी मलनि कुम्भार की, घनी सहै सिरि लात।
इहि औसरि चेत्या नहीं, चूका अबकी घात।।

सन्दर्भ स्रोत: देशबन्धु में प्रकाशित मनोज निगम के आलेख और सारिका ठाकुर की प्रेमलता जी से बातचीत पर आधारित

©  मीडियाटिक 

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