प्रीति निगोसकर : अपनी कमज़ोरी को जिन्होंने ताक़त बना लिया

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प्रीति निगोसकर : अपनी कमज़ोरी को जिन्होंने ताक़त बना लिया

छाया: स्व संप्रेषित

चित्रकार

• सीमा चौबे

प्रीति निगोसकर एक ऐसी कलाकार, जिन्होंने अपनी विकलांगता को अपने साहस और दृढ़ निश्चय पर कभी हावी नहीं होने दिया। ज़िन्दगी में तमाम उतार-चढ़ावों के बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी और ये साबित कर दिया कि ख़राब से ख़राब हालात से उबर कर भी जीया जा सकता है। 29 सितम्बर 1955 को प्रीति ने ग्वालियर में रमेश चंद्र और स्नेहलता निगोसकर के घर जन्म लिया। उन्हें घर और ख़ास तौर पर ननिहाल में बेशुमार प्यार मिला। लेकिन ये खुशी आठ माह में ही मायूसी में बदल गई, जब खड़े होने की कोशिश में नन्हीं प्रीति एक तरफ लुढ़क जाती। हैरान-परेशान घरवाले जब उन्हें डॉक्टर के पास लेकर पहुंचे तब यह सुनकर उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई कि बच्ची के एक कूल्हे की हड्डी ही नहीं है और इलाज के बावजूद भी ये कभी पूरी तरह सामान्य नहीं हो पाएगी। अपने पहले जन्मदिन के दूसरे ही दिन प्रीति को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। पूरे सात साल तक प्रीति का अधिकांश समय अस्पताल में ही बीता, वे बिना सहारे चल ही नहीं पाती थीं।

बचपन में जब बच्चे घर में धमा-चौकड़ी मचाते हैं, तितलियों और के पीछे दौड़ते हैं, उस उम्र में प्रीति अस्पताल में कमर से पंजे तक एक पैर में प्लास्टर लगवाकर बिस्तर पर पड़ी थीं। वहीं पर मां और मौसी ने उन्हें रंगीन कागज़ से फूल-माला बनाना और चित्रों में रंग भरना सिखाया। पांच बहनों में सबसे बड़ी प्रीति का बचपन ननिहाल में ही बीता। दादाजी महाराष्ट्र से उज्जैन आ बसे थे। इनके पिता व्यवसाय में घाटे के चलते ग्वालियर आ गए, जहां नानाजी की मदद से तहसीलदार पद पर नियुक्त हो गए थे। दोनों ही परिवार पढ़े-लिखे और सुसंस्कृत थे। पुणे में महिला शिक्षा के शुरूआती दौर में पांच लड़कियों में उनकी नानी की गिनती होती थी, यही कारण रहा कि उस समय लड़की होने पर भी प्रीति के इलाज को महत्व दिया गया, जबकि तब महिलाओं को लेकर समाज इतना जागरूक नहीं था।

पांच साल बाद प्रीति कैलिपर्स के सहारे से चलने लगी। पड़ोस वाले स्कूल के शिक्षक घर आकर पढ़ाने लगे। कक्षा चौथी में ग्वालियर के पद्मा विद्यालय में उनका दाखिला करा दिया गया। यहां उन्होंने छठवीं तक पढ़ाई की। उनकी छोटी बहन स्मृति को सदा उनके साथ ही रखा जाता था। प्रीति बताती हैं उस स्कूल में रूद्रहांजी सर चित्रकला सिखाते थे। खाली समय में एक बार लड़कियों के साथ वे भी चित्रकला कक्ष में पहुंच गई। उस दिन सर ने उन्हें थोड़ा रंग लगा कागज थमा दिया और चित्र बनाने को कहा। प्रीति ने उस कागज पर बादल, पेड़ और बहती नदी बना दी। ये प्रीति का पहला प्रयास था। रूद्रहांजी सर ने आगे बढ़ने का हौसला दिया और मन की खामोशी और बेचैनी के बीच हाथों ने कब रंग और कूची थाम ली, पता ही नहीं चला। घरवालों के प्रोत्साहन, प्रीति की सकारात्मक सोच और बचपन से मिले गुरुओं के आशीर्वाद से रंग कागज पर उतरने लगे।

पिताजी की पोस्टिंग के कारण सातवी कक्षा से आगे की पढ़ाई उज्जैन में की। यहां उनकी मुलाकात पद्मश्री विष्णु श्रीधर वाकणकर से हुई। उन्होंने प्रीति के हुनर को पहचाना और अपने संस्थान ‘भारती कला भवन’ का विद्यार्थी बनाया। यहां शहर की स्थानीय संस्था और लॉयन्स क्लब की चित्रकला प्रतियोगिताओं में भागीदारी और पुरस्कारों का सिलसिला शुरू हुआ। यहां एक अखिल भारतीय बाल चित्रकला स्पर्धा में सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार प्राप्त हुआ और यहीं से उनकी पहली पेंटिंग 'वसुधैव कुटुम्बकम्' प्रदर्शनी के लिए न्यूयार्क गई। आगे की स्कूली शिक्षा प्रीति ने ग्वालियर और रायपुर से पूरी की। रायपुर में 'वेस्ट मटेरीयल' का उपयोग कर बनी उनकी कृति को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ, जिसमें उम्र का कोई बंधन नहीं था, वे सबसे छोटी प्रतियोगी थी। इसके बाद वाकणकरजी के मार्गदर्शन और पापा के प्रोत्साहन से प्रीति ने खैरागढ़ विवि से चित्रकला में स्नातक (बी.एफ.ए.) किया। एम.ए.पुणे के श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी वि.वि.से किया। इस बीच पिताजी के आग्रह पर पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स भी कर लिया। एम.ए  के दौरान दौरान राजा दिनकर केलकर म्यूजियम के संस्थापक श्री केलकर जी से उनकी मुलाकात हुई। उनके आग्रह पर उनके साथ संग्रहालय में रहकर काम करना प्रीति के लिए बेशकीमती अनुभव रहा, लेकिन नियति को दूसरा कटु अनुभव देना था। इस दौड़-भाग में उनके पैर की हड्डी में दरार पड़ गई। इस दर्द के साथ स्नातकोत्तर परीक्षा दे वे घर लौट आई। उन्हें एक बार फिर से बड़े ऑपरेशन से गुजरना पड़ा, जो असफल रहा। बिस्तर पर फिर  छ:साल का अंतराल। धीरे-धीरे कला से नाता छूटने लगा परंतु बैसाखियां थामते ही उन्होंने सफर फिर शुरू कर दिया।

प्रीति इसे अपना सौभाग्य और अपनी बहुत बड़ी दौलत मानती हैं कि राजाराम जी, वाकणकर जी, श्रीधर बेन्द्रे जी, पुणे के श्री केलकर काका जैसे राष्ट्रीय स्तर के  कला-गुरुओं का सानिन्ध्य उन्हें प्राप्त हुआ। वे बताती हैं अस्पताल में वाकणकर जी उनसे मिलने आए। उन्होंने प्रीति को हौसला देते हुए कहा कि बैठकर चित्र नहीं बना सकती तो शब्दों में ही अपनी भावनाएं व्यक्त करो। उनसे मुलाक़ात का अंतिम वाक्य था- चरैवेति..चरैवेति। गुरु की आज्ञानुसार बैठे-बैठे गणेश जी के बीस चित्र तैयार कर प्रदर्शित किये, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वाकणकर जी का निधन हो चुका था, तब गुरु माँ श्रीमती लक्ष्मी विष्णु वाकणकर ने प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। वर्ष 1986 में अखिल भारतीय कालिदास चित्र एवं मूर्तिकला प्रतियोगिता के लिए चित्र बनाया, जिसे प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस बीच पिताजी की इच्छानुसार वर्ष 1997 में विक्रम विवि, उज्जैन से ‘ग्वालियर के प्रणेता कलाकार और उनका कृतित्व’ विषय पर शोध कार्य कर उन्होंने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। 

वर्ष 2002 में कुछ दोस्तों ने प्रीति को भारत भवन जाने के लिए प्रेरित किया। वे कुछ समय वहां गईं भी और अपने कलाकर्म से जुड़ी रहीं, लेकिन जिन हालात का प्रीति सामना कर रहीं थी, उनमें उनके लिए रोज़ भारत भवन जाना संभव नहीं था। कुछ समय बाद वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी एम.एन.बुच के मार्गदर्शन में उन्होंने विकलांग बच्चों के लिये ‘अविनाश’ नामक संस्था बनाकर अपने ही जैसे लोगों के लिये काम किया। वे बताती हैं - संस्था के माध्यम से मैंने अपनी तकलीफ़ के साथ दूसरों का दर्द भी जानने की कोशिश की। संस्था का मुख्य उद्देश्य था ऐसे बच्चों को सकारात्मक नजरिये के साथ समाज के साथ जोड़ना। इसके लिए बच्चों की काउंसलिंग करना, उन्हें कलात्मक चीजें बनाना सिखाना, उनकी बनी वस्तुओं की बिक्री के लिए वर्कशॉप करना, उनकी समस्याओं के लिए विषय से संबंधित जानकारों की मदद लेना आदि काम के साथ वे कई वर्षों तक जुड़ी रहीं। उस समय विकलांगों पर आधारित बनी एक लघु फिल्म में प्रीति भी सहयोगी रहीं, जिसे विकलांग दिवस पर भोपाल दूरदर्शन ने प्रसारित भी किया था।

वर्ष 1995 में एक सहेली की मध्यस्थता से बेंगलुरु में पदस्थ भारतीय वायुसेना के अधिकारी बी.जे.एस.भट्टी से उनका विवाह हुआ। विवाह के बाद उनके सारे काम छूट गए। जीवन साथी के साथ उनका सफर बहुत कम समय के लिए रहा। वर्ष 2008 में उनके पति का देहांत हो गया और वर्ष 2009 में उनके पिताजी भी चल बसे। उनकी ज़िन्दगी ने फिर एक नया मोड़ लिया और माँ की देखभाल के लिए उन्हें अपनी बहन के पास इंदौर जाना पड़ा। इस दौरान सेवाधाम (बड़नगर रोड) और क्लब फनकार (उज्जैन) द्वारा आयोजित शिविरों में शिरकत की। इंदौर आने के बाद कला के क्षेत्र में जितना संभव था, उतना प्रतियोगिता-प्रदर्शनी का सिलसिला जारी रहा। कोरोना काल के कुछ समय पहले उनकी माँ भी चल बसी। अब फिर से उन्होंने खुद को खड़ा करने की कोशिश की और कोरोना काल में दो किताबें लिख डाली। इसमें पहली स्मरणांजलि है “कलागुरु पद्मश्री डॉ. विष्णु वाकणकर और हमारा गुरुकुल” जिसमें भारती कला भवन के विद्यार्थियों की यादों का संकलन है। दूसरी किताब ख्याति प्राप्त चित्रकार सचिदानंद नागदेव पर उनके भाई नरेन्द्र नागदेव द्वारा मराठी में लिखित पुस्तक “लाल रंग की इमारत और सचिदानंद” का मराठी में अनुवाद किया। दोनों ही पुस्तकें प्रकाशन में हैं। इसके अलावा कविताओं को लेकर तीसरी और सामाजिक सरोकार के विषय पर चौथी किताब पर काम जारी है।

 उपलब्धियां

बचपन से लेकर अब तक चित्रकला में प्रीति ने अनेकों पुरस्कार जीते हैं, लेकिन उनके जीवन के इस पथरीले सफर में उपलब्धियां सहेजना और उन्हें याद रखना लगभग नामुमकिन था। बचे कागज़ और कुछ यादों के सहारे वे बताती हैं ‘देश में अनेक राज्यों में (मुंबई, पुणे, दिल्ली, जबलपुर, इंदौर, ग्वालियर, भोपाल उज्जैन आदि) राष्ट्रीय प्रदर्शनियों और प्रतियोगिताओं में उनके एकल और समूह में चित्र प्रदर्शित होते रहे हैं।

•  प्रदर्शनियां/शिविर/पुरस्कार

1. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर नई दिल्ली (1994)

2. कला मेला 'कॉरिडोर ऑफ कलर्स' सेंट्रल पार्क, मणिपाल सेंटर, बेंगलुरु (1995)

3. रुद्राक्ष आर्ट गैलरी, पुणे

4. विश्व हिंदू परिषद द्वारा अमेरिका में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी

5. वर्ष 2002 भारत भवन में ‘भारत भवन वार्षिकी’ प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया। इस दौरान मानव संग्रहालय भोपाल में रबारी समुदाय द्वारा की जाने वाली कशीदाकारी पर केन्द्रित शिविर की देखरेख की।

6. वर्ष 2023 जनवरी में कलावृत (जयपुर) द्वारा आयोजित ‘राष्ट्रीय समसामयिक लघु चित्रण कार्यशाला’ तृतीय (ऑनलाइन) में ‘गुरु देवकीनंदन शर्मा सम्मान’ से नवाजा गया।

हरा, गहरा नीला, नारंगी, लाल और पीला जैसे गहरे रंग उन्हें लुभाते हैं। प्रीति कहती हैं- ‘रंगों की दिलचस्पी जिंदगी के प्रति लगाव और बढ़ा देती है। कभी मैं बादल बन जाती हूं तो कभी चिड़िया की चहक, कभी बारिश की रिमझिम मन को गीला कर जाती है और मेरे जीवन का कैनवास सतरंगी हो उठता है।‘ निश्चित ही प्रीति के चित्रों में खुशियां ही खुशियां हैं। उनके चित्र जीवन की मुस्कान बिखेरते हैं तो प्रीति के शब्द जीवन के प्रति ललक पैदा करते हैं। जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने वाली प्रीति कुशल चित्रकार तो हैं ही, साथ-साथ कविताएं भी लिखती हैं। अभी वे चित्रकारी करने के साथ-साथ महिलाओं की स्वतंत्रता पर ‘स्वतंत्रता के संस्कार’ तथा कला-कलाकारों पर विषय पर लेखन कार्य में व्यस्त हैं।

जीवन के प्रत्येक मोड़ पर दु:खों को झेलते होती हुए, संघर्ष करते हुए प्रीति ने यह साबित किया है कि मन में कुछ नया करने की उम्मीद इंसान को अन्तत: सफलता अवश्य दिलाती है। कितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। उन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बूते समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गईं।

सन्दर्भ स्रोत : प्रीति निगोसकर से सीमा चौबे की बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक 

Comments

  1. Suphala Kanmadikar 21 Mar, 2023

    Proud to have the eldest sister with the fighting and strong spirits... Blessed

  2. B R SHAHU Actor Writer Director MUMBAI 21 Mar, 2023

    I knew Priti Nigoskar's life sketch a bit systematically in the present article Priti was my junior at Indira Kala Sangit VisvaVidyalaya, khairagarh during 1976-78 when i was doing my M A We are still connected friendly

  3. Dr.Nimisha soni 21 Mar, 2023

    Highly commandable..

  4. ANITA PRASAD 21 Mar, 2023

    An extremely brave lady , always smiling and positive in attitude. She has been a good friend for a long time.

  5. Neena Singh 30 May, 2023

    Priti ji ‘s life is so inspiring. Great personality

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