छाया: नीलेश रघुवंशी के फेसबुक अकाउंट से
प्रमुख लेखिका
वर्तमान पीढ़ी की चर्चित कवियित्री नीलेश रघुवंशी अपने अलहदा अंदाज और बेलौस लेखन के लिए प्रसिद्ध हैं। इनका जन्म मध्यप्रदेश के विदिशा जिले के एक कस्बे गंजबासौदा में 04 अगस्त 1969 को हुआ। इनकी माता का नाम काशी रघुवंशी और पिता का नाम मुंशीलाल रघुवंशी है। नीलेशजी की प्राथमिक, माध्यमिक और हाई स्कूल तक की शिक्षा गंजबासौदा के सरकारी स्कूल में हुई तथा बी.ए. शासकीय कन्या महाविद्यालय गंजबासौदा से किया। हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि एस.एल.एन. जैन कॉलेज विदिशा से प्राप्त की। पुनः एम. फिल. (भाषा विज्ञान) बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल से किया। नीलेशजी वर्ष 1994 से दूरदर्शन में कार्यरत हैं। इनका विवाह 20 मार्च 1999 को एस. श्रीराज से हुआ, जो दूरदर्शन केंद्र, भोपाल में कैमरामेन हैं। नीलेशजी उन्नीस वर्षीय पुत्र अयन की माँ हैं एवं पारिवारिक दायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वाह करते हुए रचनाकर्म में संलग्न हैं।
नीलेशजी की पहली रचना कविता ही थी। सही मायनों में उन्होंने 1990 के आसपास लिखना शुरू कर दिया था। सबसे पहले तीन कविताएँ जनसत्ता में छपीं। पहली बार छपी उन कविताओं ने हौसला दिया फिर कविता लिखना मानो एक आदत सी बन गयी। वर्ष 1997 में इनका पहला कविता संग्रह ‘घर निकासी’ किताब घर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। सामान्य साहित्यिक विषय में रुचि लेने वाले पाठकों के साथ-साथ स्थापित लेखकों ने भी इसे खूब पसंद किया। नीलेश कहती हैं-“मैं लेखक बन सकती हूँ, इस बात को ठोस आधार इस संग्रह के आने के बाद ही मिला।” इसके बाद चार और कविता संग्रह ‘‘पानी का स्वाद’’ 2004 और तीसरा कविता सग्रंह ‘‘अंतिम पंक्ति में‘‘ 2008, ‘खिड़की खुलने के बाद’ 2018 और ‘कवि ने कहा’ 2017 (चयनित कविताओं का संग्रह) किताबघर प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित हुए।
2012 में राजकमल प्रकाशन से नीलेशजी का पहला उपन्यास ‘‘एक कस्बे के नोटस’’ प्रकाशित हुआ, जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘द गर्ल विद क्वेश्चनिंग आईज़’ परमानेंट ब्लैक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। हिंदी से अग्रेंजी में अनुवाद दीपा जैन सिंह ने किया है और अंग्रेजी संस्करण की भूमिका वसुधा डालमिया ने लिखी थी। इसके अलावा नीलेशजी ने टेलीफिल्म में पटकथा लेखन एवं बच्चों के लिए नाट्य रूपांतर और लेख आदि।
नीलेशजी की कविताएं कल्पनालोक में भ्रमण करती हुई अथवा श्रृंगार रस से सराबोर अनुभूतियों से लदीफदी नहीं होती बल्कि कठोर यथार्थ की उबड़ खाबड़ भूमि पर कुछ तलाशती हुई सी नज़र आती है। वह लिखती हैं –
जाने क्यों महँगी चप्पलें
गिरतीं नहीं कभी सड़क पर
वे छूटती भी नहीं हैं
और किसी दूसरे के पाँव में आती भी नहीं आसानी से
सस्ती चप्पलें सस्तेपन को साथ लिए
यहाँ-वहाँ छूटती हैं और उनका मिलना अशुभ भी नहीं होता।
इनकी हर कविता वर्जनाओं को मुंह चिढ़ाती हुई नयी पगडण्डी पर दौड़ती भागती हुई सी प्रतीत होती है। दूसरी तरफ कविताओं में जो कहन अकथ रह जाता उसे गद्य में एक भव्य सा स्थान देकर स्थापित कर देती हैं। नीलेश जी के खाते में फिलहाल सिर्फ एक उपन्यास ‘एक कसबे के नोट्स’ हैं लेकिन ये महज नोट्स भर न होकर पुरजोर ऐलान कहे जा सकते हैं।
उपलब्धियां
- 1997 का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार ( हण्डा कविता पर )
- 1997 का आर्य स्मृति साहित्य सम्मान ( घर निकासी पर )
- 1997 दुष्यंत कुमार स्मृति सम्मान ( घर निकासी पर )
- 2004 का केदार सम्मान (पानी का स्वाद पर )
- 2006 का प्रथम शीला स्मृति पुरस्कार (पानी का स्वाद पर )
- 2009 भारतीय भाषा परिषद कोलकाता का (अंतिम पंक्ति में पर) युवा लेखन पुरस्कार
- 2013 का प्रेमचंद स्मृति सम्मान (‘एक कस्बे के नोटस‘ उपन्यास)
- 2014 का शैलप्रिया स्मृति सम्मान (‘एक कस्बे के नोटस‘ उपन्यास)
- गाथा एक लम्बे सफर की वृत्रचित्र के लिए The best Literary Adaptation of Acclaimed Work
- डीडी अवार्ड 2003 एवं 2004
संदर्भ स्रोत – स्व सम्प्रेषित
© मीडियाटिक
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