नाटक से लेकर नेशनल चैंपियनशिप तक परचम लहराया नाज़नीन हमीद ने

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नाटक से लेकर नेशनल चैंपियनशिप तक परचम लहराया नाज़नीन हमीद ने

छाया: रख्शां शमीम ज़ाहिद

प्रमुख खिलाड़ी

• सारिका ठाकुर 

खेल के मैदान तक पहुंचना आज भी लड़कियों के लिए आसान नहीं है। मगर जिनमें जोश और जज़्बा होता है, वे तमाम मुश्किलात को पीछे छोड़ते हुए आगे बढ़ ही जाती हैं। 1960 के दशक में ऐसी ही एक खिलाड़ी हुईं नाजनीन हमीद, जिन्होंने खेल की शुरुआत दौड़ और ऊंची कूद से की लेकिन वे राष्ट्रीय चैम्पियन बनी वॉलीबॉल की। इस गुमनाम खिलाड़ी का नाम भले ही किसी बड़े रिकॉर्ड के साथ दर्ज न हो मगर बदलाव की शुरुआत करने वालों में उनका नाम कभी मिटाया नहीं जा सकता।

नाज़नीन का जन्म 15 जून 1945 में  एक तरक्की पसंद संपन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता डॉ. अब्दुल हमीद दून स्कूल के विद्यार्थी थे, जिन्होंने डॉक्टरी की पढ़ाई लाहौर से की थी। उनकी माँ श्रीमती हमीदा गृहिणी थीं। नाज़नीन के एक मामा सैयद हमीद हुसैन भोपाल के नगर निवेशक (सिटी प्लानर) थे, दूसरे मामा सैयद नुरुल हसन, नवाब हमीदुल्ला की फ़ौज में थे तो तीसरे मामा नवाब के पोलो प्रशिक्षक थे और उनके ताया सैयद मौलाना अब्दुल कुद्दस भोपाल रियासत के खजांची थे।

डॉ. हमीद के घर में खेल-कूद का कोई माहौल नहीं था लेकिन नाज़नीन  के ममेरे भाई सादिर हुसैन हॉकी खेलते थे और आबिद हुसैन एथलीट थे। शायद यही वजह थी कि स्कूल में वे हमेशा खेल में अव्व्वल रहीं। शुरुआत में लॉन्ग जम्प और दौड़ में उन्होंने खुद को आजमाया फिर उनकी दिलचस्पी वॉलीबॉल और बास्केट बॉल में बढ़ने लगी। 

यह परिवार पुराने भोपाल के जहाँगीराबाद में रहता था, पड़ोस में ही अख्तर आपा भी रहती थीं। उनका घर में खूब आना जाना था और कई बार ज़रुरी पारिवारिक मशवरे भी उन्हीं से लिए जाते थे। उल्लेखनीय है कि अख्तर आपा खुद भी नवाब खानदान की बहू थीं और शाही जिन्दगी छोड़कर गरीब और मजलूमों के हक़ के उस दौर में पुरजोर आवाज़ उठा रही थीं। शायद यह उन्हीं की सोहबत का असर था कि एक पारंपरिक महिला होते हुए भी नाज़नीन की माँ ने उन्हें कभी खेलने-कूदने से मना नहीं किया, लेकिन वह बुर्के की पाबंद ज़रुर थीं।

ज़्यादातर परदे में रहने वाली नाज़नीन अपना बुर्का मैच के दौरान ही उतारती थीं और अपना करिश्मा दिखाकर गायब हो जाती थीं। यहाँ तक कि कभी उन्होंने खेल का यूनिफॉर्म भी नहीं पहना। खेलते वक़्त वे सिर्फ अपनी सलवार के पांयचे ऊपर सरका लिया करती थीं। उनकी बेटी रख्शां शमीम के मुताबिक़ अम्मी अक्सर कहती थीं कि बुर्के की वजह से उनके आत्मविश्वास में कभी कमी नहीं आई।

खेलने के अलावा वे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेकर कई पुरस्कार अपने नाम कर लेती थीं। एक बार स्कूल के वार्षिकोत्सव में उन्होंने ‘गाँव की गोरी’ बनकर डांस किया, इसके अलावा और भी कई श्रेणियों में हिस्सा लिया। उस वर्ष स्कूल में प्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री डॉ शंकर दयाल शर्मा - जो आगे चलकर देश के राष्ट्रपति बने, को सपत्नीक आमंत्रित किया गया था। जब तीन-चार बार पुरस्कारों के लिए नाज़नीन का ही नाम पुकारा गया तो डॉ शर्मा अपने आपको ये कहने से नहीं रोक पाए कि  "क्या सभी पुरस्कार यही गाँव की गोरी लेकर जाएगी?”

1967-68 के दौरान नाज़नीन का चयन स्कूल की वॉलीबॉल की उस टीम के लिए हुआ जो नेशनल चैम्पियनशिप खेलने के लिए मद्रास जा रही थी। लेकिन अम्मी से मंजूरी नहीं मिली। हमीदिया स्कूल की प्राचार्य ने भी उनके घर जाकर उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन वे टस से मस नहीं हुईं। हालांकि नाज़नीन के पिता ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए। इसके बाद अम्मी भी यह कहकर मान गईं कि- “भेज दो खेलने, मगर इसकी शादी होने से तो रही।”

मद्रास चैम्पियनशिप मैच जीतने के अलावा मैदान पर उनके करिश्माई खेल के सभी मुरीद हो गए। उसी साल स्कूल की पढ़ाई ख़त्म कर वे कॉलेज पहुंची। महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज में उनका नामांकन हुआ लेकिन साल भर बाद 1969 उनकी शादी प्रो शमीम अहमद से हो गई, जो उस समय औरंगाबाद के  एक कॉलेज में उर्दू के विभागाध्यक्ष थे। शादी के बाद नए माहौल को जानने और समझने के दौरान पढ़ाई छूट गई और खेल का अभ्यास भी ठप्प हो गया।   प्रो शमीम ने उन्हें अपने कॉलेज के खेल विभाग से जुड़ने का न्योता भी दिया मगर वह राजी नहीं हुईं क्योंकि तब तक वे एक बच्चे की माँ बन चुकी थीं।

आगे चलकर शमीम साहब की नियुक्ति शिक्षा विभाग के अधीन संचालित तरक्की उर्दू बोर्ड में हो गई और वे औरंगाबाद से दिल्ली आ गए। जीवन एक सामान्य ढर्रे पर चल रहा था लेकिन आने वाले वक्त में कई चुनौतियां उनका इंतज़ार कर रही थीं। धीरे-धीरे उनके पति की सेहत गिरने लगी तो वे समय से पहले सेवानिवृत्ति लेकर भोपाल में बस गए। यहाँ उन्होंने लिफ़ाफ़े और पोस्टकार्ड बनाने का कारखाना खोला। इस काम में नाज़नीन भी उनका हाथ बंटाती थीं। लेकिन वक़्त तो जैसे उनका इम्तिहान लेने पर आमादा था। शमीम साहब को एक दिन लकवा मार गया और उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। वे 17 साल बिस्तर पर ही रहे, इस दौरान बच्चों की देखभाल और कारखाने का काम भी नाज़नीन खुद देखती रहीं।

साल 2010 में शमीम साहब ने फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया। अब बच्चों का भविष्य पूरी तरह नाज़नीन  के हौसले पर टिका था। इस चुनौती का सामना भी उन्होंने गज़ब की हिम्मत के साथ किया। ज़िन्दगी के आख़िरी मुक़ाम पर भूलने की बीमारी (डिमेंशिया) ने उन्हें अपने शिकंजे में ले लिया और वे अपनी जद्दोजहद से भरी ज़िन्दगी के साथ उन तमगों को बिसरा गईं जो कभी हार न मानने की वजह से उन्हें मिले थे। साल 2022 में उनका इंतकाल हो गया लेकिन तब तक उनके सभी बच्चे ऊँचे-ऊँचे मुकाम तक पहुँच चुके थे।  उनकी सबसे बड़ी बेटी रख्शां शमीम ज़ाहिद फ़ैशन डिज़ाइनर होने के साथ ही कई स्वयंसेवी संस्थाओं से जुड़ी हुई हैं और हर साल भोपाल में बेगम्स ऑफ़ भोपाल के बैनर तले ‘परी बाज़ार’ का आयोजन करती हैं। पुत्र अदनान अहमद दुबई के मशरत बैंक में बिजनेस डेवलपमेंट मैनेजर के पद पर काम करते हैं, जबकि छोटी पुत्री तमसील ख़ान भी फ़ैशन डिज़ाइनर हैं और मुम्बई में रहती हैं।

संदर्भ स्रोत नाज़नीन हमीद शमीम की बड़ी पुत्री रख्शां शमीम ज़ाहिद से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक 

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