गुरप्रीत कौर: जिनके आगे चुनौतियां भी टेक देती हैं घुटने

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गुरप्रीत कौर: जिनके आगे चुनौतियां भी टेक देती हैं घुटने

छाया: गुरप्रीत कौर के फेसबुक अकाउंट से 

• सारिका ठाकुर 

किसी भी इंसान का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह ज़िन्दगी की चुनौतियों का सामना किस तरह करता है। उनके आगे हार मान लेता है या उनका इस हद तक सामना करता है कि चुनौतियों का कद भी छोटा पड़ जाए। पिछले चार-पांच साल से अमरिका के कैलिफोर्निया में रह रही कमर्शियल ट्रक ड्राइवर गुरप्रीत कौर ऐसी ही एक शख्सियत हैं। वक़्त उन्हें कितने भी उबड़ खाबड़ रास्तों पर ले जाए, वे स्टेयरिंग पर से कभी अपना नियंत्रण नहीं खोतीं और ज़िन्दगी की गाड़ी वापस हाईवे पर लेकर आ जाती हैं।  

गुरप्रीत का जन्म दिसंबर 1978 में भोपाल में हुआ। उनके पिता सरदार अमृतपाल सिंह व्यवसायी थे और उनकी माँ श्रीमती अमरजीत कौर कुशल गृहणी। गुरप्रीत का परिवार देश विभाजन के समय पाकिस्तान से भोपाल आया था। उनके दादाजी ने यहां कारोबार शुरू किया और हवेलीनुमा एक घर भी खरीद लिया। सन 1984 के सिख विरोधी दंगों के चलते उन्हें वह घर छोड़ना पड़ा था। तीन बहनों में मंझली गुरप्रीत बिलकुल अलग स्वभाव की बच्ची थीं। रंगों से खेलने की बजाय उन्हें श्वेत-श्याम रेखाचित्र बनाना पसंद था। सजने-संवरने या तरह-तरह के कपड़ों का शौक उन्हें कभी नहीं रहा। वे कहती हैं, कपड़े मुझे आज भी समझ नहीं आते। ”हालाँकि उन्हें गायन और नृत्य का बहुत शौक रहा लेकिन परम्परावादी परिवार होने के कारण इन चीज़ों को कभी बढ़ावा नहीं मिला। बेटियों के प्रति घर में प्यार-दुलार में कभी कोई कमी नहीं रही लेकिन नियम बड़े ही सख्त थे। वे और उनकी बहनें फ्रॉक नहीं पहन सकती थीं, ब्यूटी पार्लर नहीं जा सकती थीं, सह-शिक्षा वाले स्कूल में पढ़ नहीं सकती थीं। इस बात से मन में छटपटाहट जरुर होती थी परन्तु माता-पिता पर गुस्सा नहीं आता था। उनसे कुछ कहने की बजाय वे मन ही मन उस दिन की कल्पना करती जब बंदिशों का बोझ कम होगा और वे मनमाफिक ज़िन्दगी  जी पाएंगी।

गुरप्रीत की प्रारंभिक शिक्षा शील निकेतन स्कूल से हुई जहां पांचवीं में वे सबसे अव्वल रहीं। छठवीं के बाद उनका नामांकन सेंट जोसेफ़ कान्वेंट में हुआ, जिसके बाद पढ़ाई से मन उचट सा गया। गुरप्रीत कहती हैं, मुझे कान्वेंट में उनके पढ़ाने का तरीका पसंद नहीं आया, 6वीं के बाद से मुझे बहुत कम अंक आते लेकिन पढ़ाई लिखाई के अलावा हर चीज में मैं अच्छी थी। उनका एक और शगल था गली के कुत्तों पर प्यार लुटाना। टफी नाम का एक कुत्ता पहले से ही घर  में मौजूद था लेकिन गुरप्रीत गली के कुत्तों को घर का दूध गरम करके जब पिला देतीं। इससे माँ नाराज़ जरुर होती थीं लेकिन मना नहीं करती थीं। ताज्जुब नहीं कि गली के सारे कुत्ते गुरप्रीत को पहचानते थे और वे उन्हें अलग-अलग नामों से पुकारती थीं। गुरप्रीत डॉक्टर बनना चाहती थीं लेकिन 10वीं में उनकी बहुत कम अंक आए जिसकी वजह से वे विज्ञान विषय नहीं ले सकीं, किसी और स्कूल में नामांकन का प्रश्न आया तो पिताजी ने सरस्वती शिशु मंदिर का सुझाव दिया जिसे खुद गुरप्रीत ने अस्वीकार कर दिया और मजबूरी में उनकी आगे की पढ़ाई कला विषयों को लेकर हुई।

वर्ष 1997 में बारहवीं करने के बाद ग्रेजुएशन के लिए उनका नामांकन महारानी लक्ष्मीबाई शासकीय महिला महाविद्यालय में हुआ। वर्ष 2000 में ग्रेजुएशन के दौरान ही उनकी शादी भोपाल के व्यवसायी सरदार बलवंत सिंह से हो गयी। उनके ससुर भोपाल के प्रमुख दवा विक्रेता थे। जीवन का एक अध्याय समाप्त हुआ और दूसरे नए हँसते-मुस्कुराते अध्याय की शुरुआत हुई। घर-गृहस्थी की देखभाल करते हुए आगे की पढ़ाई वे जारी नहीं रख सकीं। हालाँकि पति के साथ दवाई की दुकान पर लम्बे समय तक वे बैठती रहीं। इसी तरह एक दशक गुजर गया। वर्ष 2010 में उन्होंने फिर पढ़ने का मन बनाया और स्वामी दयानंद सरस्वती महाविद्यालय से बी एड किया। फिर वर्ष 2013 में ' समाजशास्त्र'  विषय लेकर सैफ़िया कॉलेज से एम.ए. की डिग्री लेने के बाद नवम्बर 2013 में एक प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ाने लगीं।  फिर 2015 में अंग्रेजी विषय लेकर उन्होंने एक और एम.ए. की डिग्री हासिल की। वर्ष 2017 तक वे जिस स्कूल में पढ़ाती थीं, वहां प्रिंसिपल बन चुकीं थीं।  

इस बीच उनके मन में लगातार कुछ अलग करने का ख़याल आता रहा। 2000 से 2017 के दौरान पारिवारिक व्यवसाय में उनके परिवार को भारी नुकसान उठाना पड़ा। गुरप्रीत का इरादा देश से बाहर निकलकर कुछ करने का था। उस समय यह कल्पना करना भी अपने आप में बड़ी बात थी। 2017 में हडर्सफील्ड यूनिवर्सिटी, लन्दन से पीएचडी के लिए प्रस्ताव आया लेकिन उस समय हिम्मत नहीं जुटा सकीं। आखिरकार अक्टूबर 2018 में गुरप्रीत कैलिफोर्निया आ गईं। मकसद पीएचडी करना और कुछ काम करते हुए परिवार की मदद करना था। वहां पहुंचकर समझ आया कि यह काम इतना आसान भी नहीं है। भारत में हासिल की गई डिग्रियों का वहां कोई मोल नहीं था। बेशक वे वहां पीएचडी कर सकती थीं लेकिन विदेश में छोटे से छोटा कोर्स भी महंगा होता है, इसलिए पीएचडी करने की तमन्ना पूरी नहीं हो सकी।

कैलिफोर्निया में अपना कहने के लिए कोई भी नहीं था। एक ओर वहां को तौर तरीकों, भाषा और सार्वजनिक परिवहन की मुश्किलों को समझने की चुनौती थी दूसरी तरफ उन्हें आमदनी का जरिया तलाश करना था। इसलिए शुरुआत के कुछ दिन बहुत ही तकलीफ़देह रहे। उनके लिए जगहों के नाम याद रखना बहुत मुश्किल होता था।  वे कई बार इन्हीं मुश्किलों से जूझती हुई गुम भी हो गईं। लगभग दो महीने इसी तरह गुजारने के बाद उन्होंने कार चलाने का लाइसेन्स ले लिया। शुरुआत में कुछ समय उन्होंने स्टोर में काम किया। उनके मन में कई तरह के ख़याल आ रहे थे। वे इस दुविधा में थीं कि वहां ठहरी रहे या वापस घर चली जाएं। इस तरह लगभग एक साल गुजर गया। 2019 के दिसंबर में चीन के वुहान में कोविड-19 के पहले मरीज के सामने आने के बाद जल्द ही दुनिया की तस्वीर बदलने लगी। वैश्विक स्तर पर आवाजाही पर रोक लगी तो जो जहां थे वहीं अटक गए। मार्च 2020 में कैलिफोर्निया में भी लॉकडाउन लग गया। गुरप्रीत बतातीं हैं कि वहां चौबीस घंटे स्टोर खुले रहते थे लेकिन लॉकडाउन लगने के बाद रात के दस बजे के बाद स्टोर बंद कर दिया जाने लगा। महामारी के डर से कर्मचारियों ने छुट्टी ले ली लेकिन गुरप्रीत लगातार काम करती रहीं।

उन्हें यह काम हमेशा के लिए नहीं करना था, किसी ने उन्हें कमर्शियल ड्राइविंग लाइसेंस हासिल करने की सलाह दी। कैलिफोर्निया में कमर्शियल ड्राइविंग लाइसेंस हासिल करना बहुत ही कठिन होता है। एक बारे में ही इसकी परीक्षाओं को पास करने वाले बहुत ही कम लोग होते हैं। तीन पेपर लिखित परीक्षाओं को पास करने के बाद उन्होंने ड्राइविंग स्कूल ज्वाइन किया और 10 पेपर प्रैक्टिकल परीक्षा के दिए। बचपन से कुशाग्र बुद्धि की स्वामी रही गुरप्रीत ने पहली बार में ही ड्राइविंग लायसेंस हासिल कर लिया। यह अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी। जल्दी ही सी.आर. इंग्लैंड, यूएस में बतौर कमर्शियल ड्राइवर उन्हें नौकरी मिल गयी। गुरप्रीत कहती हैं, भारत में ही नहीं, अमेरिका में भी ट्रक चलाने वाली महिलाएं बहुत कम हैं। इस काम की अपनी मुश्किलें हैं, हालांकि यहाँ लम्बी दूरी पर यात्रा करने वाले ड्राइवरों के आराम करने और खाने पीने की कई सुविधाएं हैं।” फिलहाल गुरप्रीत यूएस की कंपनी ब्लू हॉर्स करियर इंक के ट्रक चलाती हैं। ट्रेलर सहित इन ट्रकों की लंबाई 72 फीट और ऊंचाई 13.6 फीट होती है। हरेक ट्रक में दो ड्राइवर होते हैं जो बारी बारी ड्राइव करते हैं। एक ट्रिप 14 घंटे की होती है।

इतनी मशक्कत के बाद गुरप्रीत की ज़िन्दगी में एक ठहराव तो आया लेकिन कुछ मुश्किलें तब भी बनी रहीं। गुरप्रीत बताती हैं, कि वे जिस घर में रहती हैं उसके अलग अलग चार कमरों में अलग अलग परिवार रहते हैं। लेकिन किसी को भी अपने कमरे में खाना बनाने की इजाज़त नहीं है। इसलिए या तो पूरा घर किराए पर लिया जाए या फिर डिब्बाबंद खाने के भरोसे रहा जाए। इस तरह के कई लोग अपने लिए और अपने परिवार के लिए गुरुद्वारे के लंगर से हफ़्ते भर का खाना लेकर जाते हैं। कभी-कभी ये भी  होता है कि रोटियों में फफूंद लग जाती है और सब्जी में खटास आ जाती है लेकिन लोगों के पास कोई उपाय नहीं होता और पैसे होते हुए भी वही खाना खाना पड़ता है। अमेरिका में रहने वाले कई भारतीयों के घर में इसी तरह रोटी पहुँचती है। कोई फर्क नहीं पड़ता वे किस धर्म से हैं।

बहरहाल, गुरप्रीत का मानना है कि “मैंने जो ठाना वह कर दिखाया, अनजानी धरती पर न केवल अपनी जिन्दगी को संभाला बल्कि परिवार की भी मदद की। लेकिन अब मैं सिक्योरिटी सर्विस के लिए भी काम करती हूँ, हो सकता है आने वाले समय में ट्रक न चलाऊं।” ऐसा कहने के पीछे गुरप्रीत का यह मतलब कतई नहीं है कि वे सिक्यूरिटी सर्विस से जुड़ गई हैं इसलिए ट्रक चलाना छोड़ देंगी, बल्कि वे ऐसा इसलिए कह रही हैं क्योंकि उन्हें बारहवीं की परीक्षा देनी है। फिलहाल जिस जगह वे खड़ी हैं,  वह उनका मुकाम नहीं बल्कि एक रास्ता भर है।

संदर्भ स्रोत: गुरप्रीत कौर से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

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