भोपाल की पहली महिला नवाब कुदसिया बेगम सत्ता के लिए दामाद के साथ हुई थी ख़ूनी जंग

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भोपाल की पहली महिला नवाब कुदसिया बेगम सत्ता के लिए दामाद के साथ हुई थी ख़ूनी जंग

छाया : विकिपीडिया डॉट ओआरजी

• डॉ. शम्भुदयाल गुरु

कुदसिया बेगम (1819-1837)

 19 वर्ष की आयु में बनीं थी रियासत की रीजेंट 

 सत्ता के लिए दामाद जहांगीर के साथ हुआ था खूनी संघर्ष 

 दिल्ली की तर्ज पर भोपाल में बनवाया था जामा मस्जिद

भोपाल रियासत का इतिहास एक मायने में बहुत दिलचस्प है। इस मायने में कि भोपाल में चार पीढिय़ों तक और पूरी एक शताब्दी तक बेगमों का शासन रहा। ये बेगमें थी कुदसिया बेगम, सिकन्दर बेगम, शाहजहां बेगम तथा सुल्तान जहां बेगम। भारत के इतिहास में ही नहीं विश्व इतिहास की यह अनूठी मिसाल है। सन् 1819 से सन् 1926 तक बेगमें सात साल का अंतराल छोडक़र, भोपाल में गद्दीनशीन रहीं।

कुदसिया बेगम भोपाल के नवाब नजर मोहम्मद खान (1816-19) की पत्नी थी। 11 नवम्बर 1819 को 28 वर्षीय नजर मोहम्मद अपनी पुत्री के साथ खेल रहे थे। उनके साले फौजदार मोहम्मद खान से दुर्घटनावश पिस्तौल चल गयी, जिसमें नजर मोहम्मद मारे गये। नजर अपने युग के दुर्गुणों से मुक्त थे।

नजर मोहम्मद ने अपनी वसीयत में लिखा था कि उनकी पत्नी कुदसिया बेगम को शासक माना जाये और जब उनकी बेटी सिकन्दर बेगम बड़ी हो जाये तो उसका विवाह बराबरी के एक रिश्तेदार से करके उसके पति को भोपाल का नवाब माना जाये। रिसायत के उच्च पदाधिकारियों की सहमति से तथा अंग्रेजों के अनुमोदन से कुदसिया बेगम, जो गौहर बेगम भी कहलाती थीं, रियासत की प्रमुख स्वीकार कर ली गयीं। उन्हें रियासत का रीजेन्ट नियुक्त किया गया। उस समय कुदसिया बेगम मात्र 19 साल की थी। कहा जाता है कि नवाब की मातमपुर्सी के अवसर पर वे बुर्के में 15 माह की मासूम बेटी सिकन्दर को चिपकाये हॉल में खड़ी थी। उनके निकट रिश्तेदार सत्ता पर काबिज होने को बेताब थे। लेकिन कुदसिया ने नकाब उतार फेंका और उस कठिन घड़ी में सबसे एकता की ऐसी मार्मिक अपील की कि, षडय़ंत्रकारियों के मनसूबे धरे के धरे रह गये। एक राय से लोगों ने कुदसिया की रीजेन्सी में सिकन्दर को नवाब मानने को सहमत हो गये।

कुदसिया बेगम ने छोटी उम्र में अपनी दलीलों तथा तकरीरों से रियासत के धर्मगुरूओं दरबारियों तथा कुलीन वर्ग को जिस तरह प्रभावित किया, वह उनकी तीक्ष बुद्धि और योग्यता को रेखांकित करता है। परम्पराओं और दकियानूसी मान्यताओं से जकड़े उस युग में मुस्लिम महिला के लिए उत्तराधिकारी का अधिकार प्राप्त कर लेना एक चमत्कार से कम नहीं था। उस समय यह तय किया गया था कि कुदसिया के भाई के पुत्र मुनीर मोहम्मद से सिकन्दर बेगम का विवाह हो।

लेकिन, मुनीर के मन में अंसतुष्टों ने विद्रोह जगा दिया। झड़पें होने लगी। कुदसिया इसे सहन नहीं कर सकीं। इसलिए नये सिरे से तय हुआ कि मुनीर अपने छोटे भाई जहाँगीर मोहम्मद के पक्ष में स्तीफा दे दें और जहांगीर से ही सिकन्दर का निकाह हो। गवर्नर जनरल ने जहांगीर मोहम्मद खान को नवाब बनाने का अनुमोदन कर दिया। यह भी तय हुआ कि जैसे ही उसकी सगाई सिकन्दर बेगम से हो वह नवाब घोषित किया जाये। अप्रैल 1928 में सगाई समारोह हुआ और अगले ही दिन उसे नवाब घोषित किया गया।

कुदसिया बेगम की इच्छा थी कि जब तक संभव हो, भोपाल की सत्ता उनके हाथ में बनी रहे। इसलिए अनेक बहानों से वे अपनी पुत्री का विवाह टालती रहीं। जहांगीर ने प्रशासनिक अधिकार पाने के लिए 1833 में सागर में गवर्नर जनरल लार्ड बिलियम बेंटिंग से निवेदन किया। यद्यपि बेंटिंग ने निवेदन स्वीकार नहीं किया परंतु कुदसिया बेगम से अपनी पुत्री का विवाह शीघ्र करने का आग्रह किया। अत: कुदसिया बेगम को सिकन्दर बेगम का जहांगीर से अप्रैल 1835 में विवाह संपन्न करना पड़ा। फिर भी कुदसिया बेगम रियासत का प्रशासन चलाती रहीं। इस कारण जहांगीर मोहम्मद और कुदसिया के सैनिकों के बीच आष्टा के पास खूनी संघर्ष हुआ, जिसमें 300 सैनिक मारे गये। अंग्रेजों के हस्तक्षेप के बाद अंतत: नवम्बर 1837 मे नवाब जहांगीर मोहम्मद खान को सत्ता सौंप दी गयी। कुदसिया बेगम को पांच लाख रूपये वार्षिक आय की जागीर दी गयी और वे सिकन्दर बेगम के साथ इस्लामनगर में निवास करने लगीं। सन् 1877 में कुदसिया बेगम दिल्ली के इंयीरियल समारोह में शामिल हुई थीं। 1881 में उनका निधन हो गया।

कुदसिया बेगम एक योग्य सहृदय और बुद्धिमान शासक थी। उनके मन में धर्म जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था। इसीलिए उनके चार विश्वस्थ सिपहसालारों में से शादजाह मसीह ईसाई थे और राजा खुशबख्त राय हिन्दू थे। उन्होंने हिन्दू मुस्लिम प्रजा के बीच सौहार्द्र को मजबूत किया। वे बेहतरीन घुड़सवार थी और संघर्ष में स्वयं सेना का नेतृत्व करती थीं। घायल सैनिकों के इलाज  में और मृत सैनिकों के परिवारों की देखभाल में वे कोई कोताही नहीं करती थी। वे घूमने की बड़ी शौकीन थी और भेष बदल कर भोपाल शहर की गलियों में निकल जाती, गरीबों के घर पहुंच जाती और उनकी समस्याएं ध्यान से सुनती। उन्होंने भोपाल वासियों के लिए राज्य की ओर से नि:शुल्क पीने के पानी का प्रबंध किया। प्रशासन में उन्होंने अनेक सुधार किये। न्याय की समुचित व्यवस्था की और खुले दरबार में स्वयं मामलों का निपटारा करती। उन्होंने जामा मस्जिद का निर्माण कराया। मक्का मदीना में उन्होंने हज यात्रियों के ठहरने के लिए यात्री-निवास बनवाया  जो आज भी यात्रियों के काम आते हैं। अपने स्वयं के खर्चे से कुदसिया ने भोपाल तक रेलवे लाइन लाने का स्तुत्य प्रयास किया। वे बहुत सादा जीवन जीती थीं। राज्य की आय अपने ऊपर खर्च नहीं करती थी। अपने खर्च के लिए वह स्वयं द्वारा स्थापित गृह उद्योग की आय पर निर्भर रहती थी। भोपाल की जनता उनके प्रशासन से प्रसन्न थी।

लेखक जाने माने इतिहासकार हैं।

© मीडियाटिक

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