छाया: पत्रिका
• 25 साल की मेहनत से पाया मुकाम, अब 1200 किसानों का नेटवर्क
जब आप किसी ऐसे काम को उस समय करते हैं, जब उसके बारे में लोगों को बहुत जानकारी न हो, तो चुनौतियां आना तो स्वाभाविक ही है। कई बार इस तरह की परेशानियां या बातें भी होती हैं, जो आपको विचलित कर सकती हैं। लेकिन अगर उन बातों से डरकर या हारकर आप अपने कदम पीछे खींच लेते हैं, तो फिर आप सफल नहीं हो सकते। लेकिन जो लोग परेशानियों से हारकर नहीं, बल्कि उनका मुकाबला कर खुद को साबित करते हैं, वही सफल होते हैं। यह बात तृप्ति हर्बल की फाउंडर तृप्ति सिंह कीपर शत प्रतिशत सटीक बैठती है। तृप्ति ने जब यह काम शुरू किया तब उनकी उम्र 23-24 साल की थी। किसानों के पास औषधीय पौधे लेकर जाती तो वे कजाक उड़ाते हुए पूछते, क्या आपको कुदाली चलाना आती है? पता है कि जुताई कैसे होती है? उन्हें लगता था कि यह लड़की हमें कैसे बताएगी? क्षेत्र नया था, पर पिता का सहयोग पूरा मिलता रहा। तृप्ति ने 2002 में एनजीओ वृंदा स्टार्ट किया। इसके तहत विलुप्तप्राय औषधि की प्रजातियों पर फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के साथ काम शुरू किया। इनकी मार्केट में मांग थी, लेकिन जंगल से आपूर्ति कम हो पा रही थी। इन प्रजातियों को फॉरेस्ट से बाहर डोमेस्टिक में लेकर गए। किसानों को बताया। अब 1200 किसानों का नेटवर्क औषधियां उगा रहा है।
पढ़ाई पूरी करने के बाद वर्ष 1998 में उनके पिता ने नौकरी करने के बजाय खुद का व्यवसाय शुरू करने की सलाह दी। तब लगा कि औषधीय पौधों को लेकर काम किया जा सकता है। जबलपुर में मायका है, वहां कंसल्टेंसी कंपनी शुरू की, जो किसानों को औषधीय पौधों की जानकारी देती है। उस समय ऐसा करने वाली उनकी अकेली कंसल्टेंसी थी। प्लांट की जानकारी के साथ उसे उगाने, उचित तरीके से रोपण करने से लेकर बेचने तक के बारे में किसानों की मदद करते। उस समय कई लोगों को अजीब लगता, कई लोग टोकते भी कि सिर्फ जानकारी देने की कोई फीस कैसे ले सकता है। वर्ष 1998- 1999 में किसानों के जरिए सफेद मूसली, शतावरी, अश्वगंधा, कालमेघ पर काम शुरू किया। फिर कंसल्टेंसी के साथ ही थोक व्यापार, उत्पादन, मार्केट और ब्रांड में अपने व्यवसाय को रूपांतरित। वर्ष 2008 में भोपाल आने के बाद यहां से काम कर रही हैं। 2020 में खुद का ब्रांड बनाया, जिसके जरिए हर्ब्स को साफ और पैक करके सीधे लोगों तक पहुंचा रहे हैं।
चुनौतियां तो आईं बहुत, लेकिन नहीं मानी हार
ट्रक पर माल लोड होता तो रात में भी जाना होता था, मैदानी स्तर पर किसानों को समझाइश देती।उस समय किसानों की चिट्ठियां आती थीं, उनके प्रश्न होते थे, उन्हें हाथ से लिखकर जवाब देती थी। किसानों से लगातार संपर्कविचार-विमर्श करती रही, प्रशिक्षण कार्यक्रम भी किए। कई चुनौतियाँ, समस्याएं आईं, पर हर चुनौती पार की।
-तृप्ति सिंह
सन्दर्भ स्रोत: पत्रिका
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