राजस्थान हाईकोर्ट जोधपुर की एकलपीठ ने भरण-पोषण (मेंटेनेंस) संबंधी एक मामले में फैमिली कोर्ट बीकानेर का आदेश निरस्त कर दिया। एकलपीठ ने पूरा मामला नए सिरे से सुनवाई के लिए वापस फैमिली कोर्ट भेज दिया। जस्टिस संदीप शाह ने महिला की ओर से दायर आपराधिक पुनरीक्षण याचिका पर यह फैसला सुनाया। शाह ने कहा कि फैमिली कोर्ट मामले के समस्त साक्ष्यों व सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुरूप मेंटेनेंस पर निर्णय दे। हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट से तीन माह में फैसले की अपेक्षा की गई है।
यह है मामला: दहेज प्रताड़ना केस के बाद हो गया था समझौता
याचिकाकर्ता महिला और उसके पुत्र की ओर से 31 मई 2017 को भरण-पोषण के लिए अर्जी दी गई थी। इसमें महिला ने बताया कि 18 अक्टूबर 2000 को हिंदू रीति से उसका ‘नाता’ प्रथा से दूसरा विवाह हुआ। 28 अगस्त 2001 को बेटे का जन्म हुआ। बाद में महिला ने दहेज प्रताड़ना का केस दर्ज करवाया। इसके बाद 12 अक्टूबर 2010 को दोनों पक्षों में समझौता हो गया। वहीं महिला की भरण-पोषण की अर्जी पर फैमिली कोर्ट ने महिला का मेंटेनेंस दावा खारिज कर दिया। बेटे के लिए केवल वयस्क होने तक की अंतरिम राशि को यथावत माना।
फैमिली कोर्ट का आदेश और उस पर आपत्ति
फैमिली कोर्ट का कहना था कि पत्नी का पूर्व विवाह कोर्ट डिक्री से समाप्त नहीं हुआ, इसलिए वर्तमान विवाह शून्य (void) है। पत्नी मेंटेनेंस की हकदार नहीं है। पुत्र के 28 अगस्त 2019 को वयस्क होते ही आगे का मेंटेनेंस अस्वीकार किया गया। हालांकि जो अंतरिम राशि मिल चुकी है, उसे लौटाने की जरूरत नहीं। महिला ने इसी आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी।
हाईकोर्ट ने क्या कहा
राजस्थान हाईकोर्ट ने तीनों कानूनी सवाल उठाते हुए विभिन्न संदर्भों के साथ इस पर विस्तार से लिखा:
(i) क्या धारा 11, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत विवाह को शून्य घोषित कराने के लिए औपचारिक डिक्री जरूरी है?
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भले ही विवाह ‘void ab initio’ यानी शुरू से ही शून्य माना जाए, लेकिन इसे वैधानिक रूप से ‘शून्य’ घोषित करवाने के लिए कोर्ट की डिक्री (nullity की घोषणा) लेना कानूनी रूप से जरूरी है। केवल यह कहना कि विवाह शून्य है, काफ़ी नहीं।
विवाह को शून्य घोषित करने के लिए पक्षकार को साक्ष्य पेश करते हुए अदालत से औपचारिक डिक्री लेनी होगी। सुप्रीम कोर्ट के गुरुदेव सिंह केस का हवाला देते हुए कहा गया कि जब तक कोर्ट से घोषणा नहीं ली जाती, विवाह शून्य नहीं माना जा सकता।
(ii) क्या विवाह शून्य होने पर भी पत्नी भरण-पोषण की हकदार हो सकती है?
एकलपीठ ने सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों का दिया हवाला एकलपीठ ने विस्तार से बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में स्वीकारा है कि भले ही विवाह अदालत ने शून्य घोषित किया हो (या भले कानूनी रूप से void हो), फिर भी पत्नी धारा 25, हिंदू विवाह अधिनियम और धारा 125 CrPC के तहत मेंटेनेंस या स्थायी भरण-पोषण पाने की पात्र हो सकती है।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के कई मामलों का हवाला देते हुए इसे स्पष्ट किया कि यदि महिला आर्थिक रूप से निर्भर है। साथ रहने और संतान के होने जैसे तथ्य स्पष्ट हैं, तो उसे मेंटेनेंस देने से इनकार नहीं किया जा सकता। यह अदालत का विवेकाधिकार है और पक्षकारों के आचरण, सामाजिक परिस्थितियों व आर्थिक स्थिति के आधार पर निर्णय होता है।
(iii) क्या पति, लगभग 10 साल साथ रहने और संतान होने के बाद विवाह और मेंटेनेंस से इनकार कर सकता है?
कोर्ट ने कहा कि यदि पति और पत्नी ने सालों तक साथ रहकर गृहस्थी चलाई। संतान का जन्म हुआ, तब पुरानी शादी के विवाद या विवाह के पंजीकरण की कमी के आधार पर पति मेंटेनेंस से बच नहीं सकता।
सुप्रीम कोर्ट की इन व्यवस्थाओं के अनुसार: यदि पति ने खुद महिला की पूर्व वैवाहिक स्थिति जानकर, समझकर साथ रहना चुना, या 'de facto' अलगाव साबित हो चुका है तो मेंटेनेंस की पात्रता खत्म नहीं होती। लिव-इन या नाता शादी जैसी व्यवस्था भी पर्याप्त है। यदि तथ्य और साक्ष्य से वैवाहिक संबंध का अस्तित्व साबित हो। कोर्ट ने ‘social justice adjudication’ यानी कमजोर पक्ष की रक्षा के संवैधानिक सिद्धांत को दोहराया और कहा कि इस तरह की ऐतिहासिक विवेकाधिकार वाली व्यवस्थाएं सामाजिक न्याय के लिए जरूरी हैं। हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री के आधार पर कहा कि पत्नी ने पूर्व वैवाहिक स्थिति छुपाई नहीं थी। पति को पूर्व विवाह की जानकारी थी और स्वयं पति की याचिका से भी यह स्पष्ट था। भले ही पूर्व विवाह की कोर्ट डिक्री न हो, लेकिन पक्षकारों के व्यवहार से स्पष्ट है कि पूर्व पति से दे-फैक्टो अलगाव था। पत्नी उस विवाह से कोई लाभ नहीं ले रही थी। ऐसी स्थिति में वर्तमान पति से मेंटेनेंस का दावा सुनवाई योग्य है।
अब आगे क्या
हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट का 29 फरवरी 2020 का आदेश रद्द करते हुए मामला वापस भेज दिया। फैमिली कोर्ट को निर्देश दिए हैं कि सुप्रीम कोर्ट के “राजनेश बनाम नेहा” के निर्देशों के अनुसार पक्षकारों से आय-संपत्ति के शपथपत्र (एफिडेविट) लेकर उनकी आर्थिक/शैक्षणिक स्थिति देखकर मेंटेनेंस पर नया निर्णय दे। पुत्र के वयस्क होने के बाद उसके लिए आगे कोई मेंटेनेंस देय नहीं; जो अंतरिम राशि मिली है, वह वापस नहीं लेनी होगी। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि बिना डिक्लेरेशन के विवाह को स्वतः ‘शून्य’ मानकर पत्नी को मेंटेनेंस से वंचित नहीं किया जा सकता। फैमिली कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के मानकों को देखते हुए फैसला देने का निर्देश दिया गया है।
सन्दर्भ स्रोत : दैनिक भास्कर



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