निर्मला शर्मा :

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निर्मला शर्मा :

छाया: निर्मला शर्मा के फेसबुकअकाउंट से

• सारिका ठाकुर 

 

सिरेमिक कला की स्थापित कलाकार श्रीमती निर्मला शर्मा (nirmala-sharma) का जन्म मोदीनगर, उप्र में 3 मई 1944 को हुआ था। उनके पिता पं. जगमोहन सरन चीफ़ केमिस्ट थे। भोजपुर (मोदीनगर से लगभग 100 किमी दूर एक छोटा सा शहर ) में उनके परिवार का सौ एकड़ में फैला फ़ार्म था जिसकी देखरेख माँ त्रिवेणी देवी करती थीं। खेती-बाड़ी में वे अत्यंत निपुण थीं। निर्मला जी की परवरिश संयुक्त परिवार में हुई जिसमें खुद निर्मला जी सहित ग्यारह भाई-बहन, नौ चचेरे भाई भाई-बहन, चाचा-चाची और दादा-दादी सभी साथ रहते थे। हँसते खेलते बचपन में पढ़ाई लिखाई भी हँसते-खेलते ही हुई। रुक्मिणी मोदी महाविद्यालय ( यह स्कूल ही था ) से 12वीं करने के बाद उन्होंने गूजरमल मोदी महाविद्यालय से अर्थशास्त्र विषय लेकर वर्ष 1964 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वह शिक्षिका बनना चाहती थीं इसलिए एनएएस कॉलेज मेरठ से वर्ष वर्ष 1965 में बीएड किया जो उस समय बीटी कहलाता था।

1968 में जितेन्द्र कुमार शर्मा से उनका विवाह हो गया और वे उनके साथ मध्यप्रदेश आ गईं। शर्मा जी केंद्रीय विद्यालय में शिक्षक थे। निर्मला जी भी उसी स्कूल में प्राइमरी शिक्षक के तौर पर नियुक्त हो गईं। शर्मा जी कला प्रेमी थे, पचमढ़ी में ही उन्होंने एक नाट्य संस्था की स्थापना की। निर्मला जी की भी रूचि जागृत हुई, वे नाटकों में अभिनय (ACTING) करने लगीं। तीन नाटकों के सफल मंचन के बाद (वापसी, हयबदन, खामोश अदालत जारी है), पहचान बननी शुरू ही हुई थी कि यह शौक नौकरशाही की भेंट चढ़ गया। दरअसल एक बार एक मंत्री महोदय पचमढ़ी पधारे। एक आला अफ़सर ने फ़रमान सुनाया कि मंत्री जी जहाँ ठहरे हैं , वहां आकर नाटक खेलना है। जितेन्द्र जी को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने मना कर दिया। इधर निर्मला जी टीम लेकर चली गईं, क्योंकि जितेन्द्र जी के इंकार के बारे में उन्हें पता नहीं था। इधर मं

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1986 में उनका तबादला वापस मध्यप्रदेश में हो गया। इस बार उनकी नियुक्ति भोपाल केंद्रीय विद्यालय में हुई। लेकिन निर्मला जी को अहसास भी नहीं था कि उनके जीवन में कोई अनदेखा मोड़ आने वाला है। दरअसल, केंद्रीय विद्यालय बैरागढ़ आने – जाने में उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती थी क्योंकि बस घर से काफी दूर रुकती थी, ख़ास तौर पर घर लौटते समय धूप में पैदल चलना बहुत ही कष्टदायी था। जितेन्द्र जी ने उन्हें समझाया कि स्कूल से छुट्टी के बाद वे भारत-भवन चली जाया करें और शाम को घर लौटें। यह तजवीज़ उन्हें पसंद आई और स्कूल से व्हाया भारत भवन, घर लौटने का सिलसिला सा चल पड़ा। वहां उनकी मुलाक़ात युसूफ़ ख़ान, देवीलाल पाटीदार और रॉबिन डेविड जैसे कलाकारों से हुई। शुरू में ये मेलजोल गपशप तक ही सीमित था। एक दिन सभी बातचीत में मशगूल थे और देवीलाल जी ने कहा – “आओ मिट्टी से खेलते हैं।“ उस दिन शुरू हुआ ‘मिट्टी से खेलना’ आज तक जारी है।

धूप से बचने के लिए मिट्टी से की गई दोस्ती के चलते निर्मला जी 1989 में भारत भवन में आयोजित प्रदर्शनी में, 90 में कला परिषद की प्रदर्शनी में, 94 में अहमदाबाद के कंटेम्पररी आर्ट गैलरी की कला दीर्घा में सोलो और समूह में शामिल हुईं। मगर ज़िंदगी में हमेशा सबकुछ एक जैसा नहीं रहता। वर्ष 1994 में उनके इकलौते पुत्र देवाशीष शर्मा जो सेना में डॉक्टर थे, आतंकवाद के ख़िलाफ़ हुए ऑपरेशन रक्षक में शहीद हो गए। निर्मला जी कहती हैं उनके पति इस हादसे से सदमे में आ गये लेकिन मैंने मिट्टी पकड़ ली। वे उठ खड़ी हुईं और कला प्रदर्शनियों में फिर शामिल होने लगीं। 1996 में वढेरा आर्ट गैलरी, 1997 में खजुराहो, 2001 में जहाँगीर आर्ट गैलरी, 2002 में गंगाधर एग्जीबिशन हॉल, पुणे एवं वर्ष 2009 में नेहरु आर्ट गैलरी और इंग्लैंड की कला दीर्घाओं में प्रशंसित कृतियों ने उनके जीवन को अर्थ दिया।

साल 2006 में उनके पति का भी देहांत हो गया। पूरी तरह अकेली हो जाने के बावजूद उन्होंने अवसाद को पास नहीं फटकने दिया। वर्ष 2007 से उन्होंने 7 दिसंबर-0 दिसंबर तक अपने सिरेमिक आर्ट की प्रदर्शनी लगाना शुरू किया, उन चार दिनों में हुई कमाई को फ़ौज के झंडा निधि में दान कर देती थीं। झंडा दिवस 7 दिसंबर को होता है,जबकि 10 दिसंबर को उनके पुत्र की पुण्यतिथि होती है। इस अवधि में वे हर साल भोपाल के सैनिक विश्राम गृह परिसर में वे अपनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी आयोजित करती हैं। अब सिरेमिक से होने वाली वर्ष भर की कमाई वह सशस्त्र सेना झंडा निधि में दान कर देती हैं। इस आयोजन में बाद में अन्य कलाकारों ने भी हिस्सा लेना शुरू कर दिया। वर्ष 2017 में उन्हें मध्यप्रदेश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘शिखर सम्मान’ प्राप्त हुआ, उसी वर्ष वे कला गुरु कैनेट विलियम्सन  के पास स्वीडन गई और उनसे सिरेमिक की बारीकियां सीखीं।

वर्तमान में निर्मला जी भोपाल में निवास कर रही हैं। सिरेमिक कला उनके लिए पुरस्कारों और सम्मानों से बढ़कर जीवन का संबल बन चुकी है।

संदर्भ स्रोत –  निर्मला जी से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

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