मदर टेरेसा का मालवी अवतार डॉ. लीला जोशी

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मदर टेरेसा का मालवी अवतार डॉ. लीला जोशी

छाया: स्व संप्रेषित

 

20 अक्टूबर 1938 को रतलाम में जन्मीं डॉ. लीला जोशी बीते 22 सालों से महिलाओं में खून की कमी को लेकर आदिवासी अंचलों में शिविर लगाकर न केवल उनका मुफ़्त इलाज कर रही हैं, बल्कि उन्हें जागरूक भी बना रही हैं। डॉ जोशी के पिता जे.डी. जोशी रेलवे स्कूल रतलाम में हेडमास्टर थे और माँ पार्वती जोशी गृहिणी थीं। तीन भाईयों और पांच बहनों के बीच लीला जी का नंबर तीसरा था। चौथी-पांचवी तक की उनकी पढ़ाई रतलाम में हुई, फिर गंगापुर राजस्थान से उन्होंने 1954 में मैट्रिक किया। उसके बाद 1956 में महारानी कॉलेज, जयपुर से इंटर साइंस की पढ़ाई की। इसी साल इंदौर मेडिकल कॉलेज में उनका नामांकन हो गया और 1961 में ये पढ़ाई भी पूरी हो गई।

डॉ. जोशी ने साल 1962 में कोटा के रेलवे अस्पताल में बतौर असिस्टेंट सर्जन के पद से अपने करियर की शुरुआत की थी। 29 साल की सेवा के बाद उन्होंने मेडिकल सुप्रिटेंडेंट का पद हासिल किया। 1991 में डॉ जोशी ने रेल मंत्रालय दिल्ली में बतौर एक्ज़ीक्यूटिव हेल्थ डायरेक्टर सेवा की, जिसके बाद वो मुंबई में मेडिकल डायरेक्टर के पद पर पदस्थ हुईं। डॉ जोशी असम की चीफ़ मेडिकल डायरेक्टर होकर रिटायर हुईं. इसके अपने गृह नगर आकर उन्होंने आदिवासियों के इलाज में अपना जीवन समर्पित कर दिया।

हालाँकि डॉ. जोशी के मुताबिक उनकी करियर यात्रा का बीज उनके पैदा होने से पहले ही डाला जा चुका था। कोई सौ साल पहले उनकी माँ 14 वर्ष की उम्र में, विवाह के पश्चात अपने पति के पूर्वजों के गाँव आई, जहां उन्होंने कम उम्र की गर्भवती माताओं को स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में दम तोड़ते देखा। उनके मन में आया काश वे डॉक्टर होतीं, पर यह संभव नहीं था। उनके मन में आया कि वे नर्स तो  बन ही सकती हैं और इन माताओं को बचा सकती हैं, पर यह भी संभव नहीं हो सका। वे इस पर भी निराश नहीं हुईं उन्होंने निश्चय किया कि वे अपनी बेटी को डॉक्टर बनाएंगी और उससे वह सब करवाएंगी, जो वे खुद करना चाहती थीं।

डॉ. जोशी बताती हैं कि वे एक ब्रीच चाइल्ड थीं, यानि वे सिर की तरफ से नहीं, पैरों की तरफ से पैदा हुई थीं। तब यह मान्यता प्रचलित थी कि ऐसा बच्चा यदि कमर में लात लगाए तो कमर दर्द ठीक हो जाता है। इस कारण वे मुहल्ले में कमर का डॉक्टर कहलाने लगीं। तभी उनके मन में भी विचार आया कि केवल कमर की ही क्यों,  मै तो पूरी डॉक्टर बनूंगी। एक मध्यमवर्गीय परिवार – जिसमें बेटियों को ज़्यादा पढ़ाना  ठीक नहीं माना जाता था, में होने के बावज़ूद लीला जी की माँ ने हार नहीं मानी और 1961 में वह दिन आ गया जब माँ का सपना पूरा हुआ और उनकी बेटी डॉक्टर बन गई।

शासकीय सेवा के दौरान डॉ. जोशी जब गर्भवती माताओं को ज़िंदगी और मौत के बीच झूलते देखतीं तो उन्हें लगता, कि सही समय पर सही कदम उठाने से इस हालत पर काबू पाया जा सकता है। सेवानिवृत्ति के कुछ महीने पहले उनके साथ एक अविस्मरणीय घटना घटी। गुवाहाटी में एक कार्यक्रम में उनकी मुलाकात मदर टेरेसा से हुई। उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा – डॉक्टर, इन आदिवासियों के लिए कुछ करो। वे दूर बैठे आदिवासियों के एक समूह की तरफ इशारा कर रहीं थीं। उस मुलाकात ने डॉ. जोशी की आगे की दिशा निर्धारित कर दी। अवकाश प्राप्ति के बाद वे किसी बड़े शहर में बसना चाहती थीं लेकिन मदर टेरेसा की बात ने उनका विचार बदल दिया और वे एक खास मिशन लेकर रतलाम आ गईं।

यह मिशन था, इस आदिवासी बहुल जिले को एनीमिया मुक्त करने का। जनजातियों में अमूमन ख़ून की बहुत कमी पाई जाती है, जो गर्भावस्था में बढ़ कर माताओं की मृत्यु का मुख्य कारण बन जाती है। डॉ. जोशी ने आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं के लिए कई कैम्प लगाए और साथ ही उन्हें निःशुल्क इलाज भी दिया। डॉ. जोशी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की एकमात्र ऐसी डॉक्टर हैं, जो आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जाकर स्त्री रोगों के प्रति महिलाओं को जागरुक करने का कार्य कर रही हैं। भावी माताएं स्वस्थ और एनीमिया मुक्त हों, इसलिए स्कूलों में स्वास्थ्य परीक्षण और हीमोग्लोबिन वृद्धि शिविर लगा कर खून की कमी को जड़ से ख़त्म करने की कोशिश वे कर रही हैं। अभी तक साढ़े 3 लाख से भी अधिक बालिकाओं को जागरूक बनाया जा चुका है और ज़िले में मातृ मृत्यु दर काफ़ी घट चुकी है।

ताज्जुब नहीं कि डॉ. लीला जोशी को लोग मालवा की मदर टेरेसा भी कहते हैं। साल 2015 में देश के महिला और बाल विकास विभाग ने डॉ. लीला जोशी का चयन देश की 100 प्रभावी महिलाओं में किया था, जिसके लिए उन्हें  प्रणव मुखर्जी द्वारा सम्मानित किया गया था। यह गौरव हासिल करने वाली भी म.प्र.और छत्तीसगढ़ से वे एकमात्र महिला हैं। उनके अतुलनीय योगदान के कारण डॉक्टर लीला जोशी को भारत सरकार द्वारा 2020 में पद्मश्री सम्मान प्रदान किया गया। इससे पहले डिस्ट्रिक्ट कम्युनिकेशन सर्विसेज के लिए फ़ेडरेशन ऑफ़ ओब्स्टेट्रिक एण्ड गायनेकोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया (फॉग्सी) द्वारा डॉ जोशी को सितारा अभिनेत्री माधुरी दीक्षित के हाथों वुमेन प्राइड अ‌वॉर्ड से भी नवाज़ा जा चुका है। इसके साथ अनेक अवसरों पर अलग – अलग मंचों से उनका सम्मान किया जा चुका है।

उम्र के इस पड़ाव पर आकर हालांकि डॉ. जोशी अब एनीमिया के क्षेत्र बहुत ज्यादा सक्रिय रूप से काम नहीं कर पाती हैं, लेकिन इस दिशा में जागरूकता के अलावा वे पिछले 5 वर्षों से महिला हिंसा उन्मूलन को लेकर राष्ट्रीय स्त्री रोग विशेषज्ञों की संस्था ‘फोगसी’ द्वारा चलाए जा रहे ‘धीरा’ अभियान के तहत युवतियों को सजग करने के प्रयास में जुटी हैं। उन्होंने इसका एक प्रतीक चिन्ह भी तैयार किया था जो 2024 के कैलेंडर के रूप में बांटा गया था। प्रशिक्षण के दौरान किशोरियों को बताया जाता है कि सामने वाले के शुरुआती गलत कदम पर ही वे ‘न’ कहने और नकारने की हिम्मत करें साथ ही किशोरों को बताया जाता है कि किशोरियों के विरुद्ध गलत कदम की स्थिति में वे मूक दर्शक न बने रहें, बल्कि विरोध करें। स्कूलों में हेल्थ चेकअप के तहत स्वास्थ्य बनाम हिमोग्लोबिन बढाने का अभियान चल रहा है साथ ही डायबिटीज को भी इसमें शामिल किया गया है। उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि अब सरकारी संस्थाएं भी इस दिशा में काम कर रहीं हैं।

पिछले 60 वर्षो से अधिक समय से चिकित्सा क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहीं डॉ जोशी कहती हैं, “मैंने अपने स्वयं के अनुभवों के बारे में लिखना शुरू किया, विशेष रूप से यह जवाब देने की कोशिश की कि सरकार, गैर सरकारी संगठनों और चिकित्सा विशेषज्ञों के प्रयासों के बावजूद रतलाम ज़िला एनीमिया का उन्मूलन क्यों नहीं कर पाया है। अपने लेखन में, मैंने इस बारे में ठोस समाधान भी प्रस्तुत किए हैं कि इस बारे में और क्या किया जा सकता है। हालांकि, सबसे ज्यादा संतुष्टि इस बात की है कि हमारे प्रयासों से आदिवासी लड़कियों और महिलाओं के स्वास्थ्य में सुधार आया है।”

संदर्भ स्रोत : डॉ. जोशी से हुई बातचीत,  न्यूज़ 18 नेटवर्क,  दैनिक भास्कर तथा बेटर इण्डिया डॉट कॉम

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