छाया : केन बौल्टर, कनाडा
• वन्दना अवस्थी दुबे
• लोहार की बेटी पुनिया के सौन्दर्य और गायन पर मोहित थे राजा इन्द्रजीत.
• पुनिया की आवाज से प्रभावित होकर इन्द्रजीत ने राज संरक्षण में उसकी शिक्षा की व्यवस्था की.
• महाकवि केशवदास ने पुनिया को दिया राय प्रवीण नाम.
• राय प्रवीण नृत्य-संगीत में प्रवीण होने के साथ-साथ बेहतरीन कवियित्री और चित्रकार थीं
‘‘विनती राय प्रवीन की, सुनिए शाह सुजान
जूठी पातर भखत हैं, बारी, बायस, श्वान।।’’
ये वो कवित्त है, जिसने गुमनाम राय प्रवीण को इतिहास में उच्च सिंहासन पर स्थापित कर दिया। अफ़सोस कि इस बेहतरीन कवयित्री की रचनाएं किसी ग्रन्थ में संकलित नहीं हैं। बहुत से पाठक अभी भी राय प्रवीण को लेकर संशय में होंगे। संशय, उनके महारानी होने पर, महाराज इंद्रजीत की पत्नी होने पर या राजनर्तकी होने पर। संशय होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि राय प्रवीण पर जिसने भी लिखा, उन्हें राजनर्तकी के रूप में ही प्रस्तुत किया, लिहाजा उनकी घोषित छवि राजनर्तकी की बन गयी, जो उपलब्ध सन्दर्भों से कतई मेल नहीं खाती। ख़ैर.. मैंने आज इसी उलझे हुए मसले को सुलझाने की कोशिश में कलम उठाई है। तो आइए पहले जानते हैं महाराजा इंद्रजीत सिंह और राय प्रवीण के बारे में।
भारतीय इतिहास के मध्ययुग में, भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र में कला और संस्कृति का केंद्र ग्वालियर था। तोमर राजाओं ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये। राजा डूंगर सिंह तोमर से लेकर मानसिंह तोमर तक अनेक नाम हैं जिन्होंने, कला और हिंदी भाषा के लिए उल्लेखनीय कार्य किये। राजा मानसिंह तोमर ने ग्वालियर-शिवपुरी मार्ग पर ग्राम बरई में “राछ” नाम की एक अद्भुत रंगशाला का निर्माण करवाया था, जिसके भग्नावशेष आज भी उसकी गौरवगाथा कहते हैं। तोमरों के पतन के साथ ही वहां की भाषा, साहित्य, कला, संगीत, और सांस्कृतिक गतिविधियों पर विराम लगना शुरू हो गया।
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इसी समय ओरछा में बुंदेलों का प्रभाव धीरे धीरे बढ़ने लगा। बुंदेला राज्य के संस्थापक रुद्रप्रताप सिंह ने अपनी राजधानी गढ़ कुंडार से हटाकर ओरछा में बना ली थी। ओरछा नगर का अब नवनिर्माण हो रहा था। पत्थरों को काटकर विशालकाय दुर्ग तैयार किया गया जो आज भी दर्शनीय है। तोमरों का पतन और बुंदेलों का उत्थान लगभग एक साथ हुआ। बुंदेला नरेश भी भाषा, साहित्य, कला और संगीत को प्रश्रय देने वाले थे, लिहाजा ग्वालियर से निराश कला साधक अब ओरछा की ओर रूख़ करने लगे। इन कलाकारों को ओरछा के नरेश और यहां का माहौल तोमरों से भी ज़्यादा अनुकूल लगा। उन्हीं दिनों बेतवा के किनारे, फूलबाग के निकट एक पाठशाला स्थापित की गई । इस पाठशाला में संगीत सिखाने के लिए ग्वालियर के संगीत साधकों को नियुक्त किया गया तो चित्रकला के लिए नाथद्वारा से कलाकार शिक्षक बुलाये गए। कत्थक नृत्य सिखाने वृंदावन की प्रसिद्ध रासमण्डली के संस्थापक गोस्वामी जी स्वयं आकर ओरछा में ही रम गए। नगर के संभ्रांत परिवारों की लड़कियों ने यहां प्रवेश लिया और शिक्षा ग्रहण की जिनमें नवरंगराय, विचित्र नयना, तरंग आदि के नाम प्रमुख हैं।
इसी पाठशाला के प्रमुख गुरु थे महाकवि केशवदास। वे स्वयं विद्यार्थियों को कला और भाषा की शिक्षा देते। व्यवहारिक, सैद्धांतिक और प्रायोगिक शिक्षा देना उनकी विशेषता थी। प्रसिद्ध संगीतज्ञ बैजनाथ, जिन्हें हम बैजू बावरा के नाम से बेहतर जानते हैं, कालांतर में ग्वालियर छोड़, ओरछा में बस गए थे। बैजनाथ मुख्य रूप से राजघराने की राजकुमारियों, रानियों को ही संगीत की शिक्षा देते थे, लेकिन बाद में उन्होंने फूलबाग में भी अपनी सेवाएं दीं। स्त्री शिक्षा का अनुपम उदाहरण है ये काल, ये स्थान जहाँ नगर की बेटियां हर कला में दक्ष हो रही थीं। ये अलग बात है कि अपनी इन कलाओं का प्रदर्शन उन्होंने सार्वजिनक रूप से कभी नहीं किया। राजघरानों में भी राजकुमारियों को नृत्य की शिक्षा दी जाती थी, लेकिन ये भी स्वांतः सुखाय ही होती थी।
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शेरशाह सूरी को खदेड़ने के बाद राजा भारती चन्द्र जू देव के छोटे भाई मधुकर शाह गद्दी पर बैठे। मधुकर शाह के आठ पुत्रों की जानकारी मिलती है लेकिन आठों पुत्रों में वीरसिंह जू देव और इंद्रजीत सिंह ही चर्चित राजा हुए। वीरसिंह जूदेव (प्रथम) को बड़ौनी और इंद्रजीत सिंह को कछौआ की जागीरें प्राप्त हुईं। मधुकरशाह के निधन के बाद ज्येष्ठ पुत्र रामशाह जूदेव गद्दी पर बैठे लेकिन अत्यंत साधु प्रकृति और राजकाज की लिप्सा न रखने वाले रामशाह जूदेव ने जल्दी ही कछौआ से इंद्रजीत सिंह को बुला कर उन्हें ओरछा का राज सौंप दिया।
ये तो हुआ महाराजा इंद्रजीत सिंह का विवरण। अब राय प्रवीण के बारे में-
बरधुंआ नाम के एक छोटे से गांव के बहुत गरीब लुहार की बेटी है पुनिया। बिना मां की इस बेटी को ईश्वर ने बहुत सुरीला गला दिया है। पिता भी संगीत प्रेमी है। जब इंद्रजीत सिंह कछौआ के जागीरदार थे, तब वे अधीनस्थ गांवों का हाल जानने के लिए खुद ही भ्रमण पर निकलते थे। इसी क्रम में वे बरधुंआ पहुंचे। रात्रि विश्राम के लिए वे जहाँ रुके थे, रात में उन्हें वहां बेहद सुरीले कंठ से गाये जा रहे गीत की ध्वनि सुनाई दी। सुबह हरकारे से पता लगवाया तो मालूम हुआ कि ये तो लुहार की बेटी है, जो काम करते हुए गीत गा रही थी। इंद्रजीत सिंह को ये आवाज़ इतनी भा गयी कि वे बार बार बरधुंआ जाने लगे। इस बारे में उन्होंने राजकवि केशव से बात की और इस गरीब बालिका का गायन सुनने के लिये कछौआ में समारोह करवाया। इस संगीत समारोह में स्थापित गायकों के अलावा उन्होंने पुनिया का गायन भी रखवाया। असल मे तो यह पूरा आयोजन ही पुनिया के लिए था। बस, महाराज ये भान नहीं होने देना चाहते थे किसी को भी। पुनिया ने इस समारोह में जो अद्भुत रसधार बहाई, उसे सुनकर बड़े बड़े गायक भी चकित रह गए। समारोह की समाप्ति पर राजा इंद्रजीत सिंह ने प्रसन्न हो भगवान को चढाई जाने वाली माला पुनिया के गले में डाल, उसके आंचल में मिठाई का दोना रख दिया। ग्रामीण भोली भाली पुनिया ने इस हार को ही वरमाला मान लिया और खुद को राजा इंद्रजीत की पत्नी।
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पुनिया के इस संकल्प से इंद्रजीत सिंह अनभिज्ञ थे। वे रावरानी (महाराज की पत्नी) से बहुत प्रेम करते थे। पुनिया उम्र में छोटी थी और वे उसके गायन के दीवाने थे, उन्होंने उस वक्त तक स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि वे पुनिया के प्रेम में पड़ेंगे। पुनिया के इस संकल्प का पता उसके पिता को तब चला, जब उन्होंने पुनिया के ब्याह की बात उठाई। दृढ़ संकल्प पुनिया ने तब कहीं भी विवाह करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। अब इस बात का खुलासा सबके सामने हो गया था। बात इंद्रजीत सिंह तक भी पहुंची। अत्यंत रूपवती पुनिया के गायन पर मोहित इंद्रजीत सिंह ने पहले तो पुनिया को समझाने की कोशिश की लेकिन कोशिशें बेअसर होती देख उन्होंने भी यथास्थिति को स्वीकार किया और पूरे सम्मान के साथ उसे ओरछा तब बुलाया जब एक अलग महल का निर्माण करवा लिया। रनिवास में ये बात तब भी गुप्त ही थी कि राजा का तथाकथित गन्धर्व विवाह पुनिया से हो चुका है।
ओरछा आने के बाद पुनिया की संगीत और शास्त्र शिक्षा की ज़िम्मेदारी महाकवि केशव को सौंपी गई। वे पूर्व में ही उसकी लेखन क्षमता से परिचित हो चुके थे। केशव के सान्निध्य में पुनिया के भीतर का कवि अब मंजने लगा। उसकी योग्यताओं को देखते हुए कवि केशव ने ही पुनिया को राय प्रवीण नाम दिया। पुनिया भी उन्हें पितृतुल्य मानती थी।
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रनिवास में ये खबर थी कि नए महल में कोई कन्या आई है जो फूलबाग की पाठशाला में शिक्षा ग्रहण कर रही है। राजा का वहां नियमित जाना और एक अजनबी कन्या को पूरा महल देना अपने आप में संदिग्ध मामला था जिसे रावरानी ने ताड़ लिया। अब तक राय प्रवीण और इंद्रजीत सिंह का प्रेम गहरा चुका था। राय प्रवीण नृत्य-संगीत में प्रवीण होने के साथ साथ बेहतरीन कवित्त लिखने लगी थी। इसी बीच रावरानी ने अकबर के पास अपने विश्वासपात्र के हाथों राय प्रवीण की कैफ़ियत भेजी और यह भी कहलवाया कि ऐसे रत्न को तो उनके रनिवास में होना चाहिए था। ख़बर लगते ही अकबर ने ओरछा नरेश के पास सन्देश भेजा कि वे राय प्रवीण को तत्काल उनके दरबार में पेश करें अन्यथा एक करोड़ सवर्ण मुद्राओं का हर्जाना उन्हें भुगतना होगा। इंद्रजीत सिंह इस सूचना से परेशान हो गए। ख़बर राय प्रवीण तक भी पहुंची, तब उसने एक कवित्त के ज़रिए इंद्रजीत सिंह को अपनी बात समझाई-
”आई हों बूझन मंत्र तुमें, निज सासन सों सिगरी मति गोई,
प्रानतजों कि तजों कुलकानि, हिये न लजो, लजि हैं सब कोई।
स्वारथ और परमारथ कौ पथ, चित्त, विचारि कहौ अब कोई।
जामें रहै प्रभु की प्रभुता अरु- मोर पतिव्रत भंग न होई।“
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राजा इंद्रजीत सिंह को विश्वास हो गया कि राय प्रवीण का बाल भी बांका नहीं हो सकता, लेकिन अपनी पत्नी को अकबर के दरबार में पेश करने की बात ही उन्हें बेहद अपमानजनक लग रही थी। भले ही उनका विवाह हिन्दू रीति से नहीं हुआ, लेकिन राय प्रवीण को पत्नी का ही सम्मान प्राप्त था और राजा तो जानते ही थे कि वो उनकी पत्नी है। लेकिन अकबर जैसे शक्ति सम्पन्न शासक से टकराना भी उनके बूते की बात नहीं थी। राय प्रवीण के बहुत समझाने पर वे कवि केशव के साथ उसे भेजने को तैयार हुए। आगरा पहुंच कर अगले दिन जब राय प्रवीण को अकबर के दरबार में पेश किया गया तो उन्होंने बस एक कवित्त सुनाया-
“विनती राय प्रवीण की, सुनिए शाह सुजान,
जूठी पातर भखत हैं, वारी, बायस, स्वान। “
अर्थात जूठी पत्तल को कौए और कुत्ते ही खाते हैं। कवित्त सुनते ही अकबर न केवल शर्मिंदा हुए, बल्कि उन्होंने राय प्रवीण को ससम्मान ओरछा वापस भेजा और तभी उनके सामने यह स्पष्ट हुआ कि राय प्रवीण दरबारी नर्तकी नहीं, बल्कि इंद्रजीत सिंह की अघोषित पत्नी हैं। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और इंद्रजीत सिंह ने अपमान की ज्वाला में दग्ध हो प्राण त्याग दिए थे। ओरछा पहुंच कर राय प्रवीण ने जब महल पर राजपरिवार का ध्वज झुका देखा तो वे सीधे बेतवा के किनारे पहुंची, यहां भी इंद्रजीत सिंह की चिता ठंडी हो चुकी थी। व्यथित राय प्रवीण ने चिता की राख अपनी मांग में भर के बेतवा में छलांग लगा दी और इस प्रेमकथा का इस तरह अंत हुआ।
इस अतीव बुद्धिमति, कला सम्पन्न व्यक्तित्व के बारे में अब तक जो भी लिखा गया, उसमें इसे राजनर्तकी ही साबित किया गया। वो कोई उपन्यास हो या आलेख किसी ने भी राय प्रवीण पर शोध की आवश्यकता महसूस नहीं की। जबकि सच यह है कि राय प्रवीण कभी दरबारी नर्तकी रही ही नहीं और इस सत्य को बहुत प्रामाणिक तरीक़े से प्रस्तुत करता है उपन्यास- “एक थी राय प्रवीण”।लम्बे शोध के बाद गुणसागर सत्यार्थी जी द्वारा लिखित ये उपन्यास एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए बहुत मददगार साबित हो सकता है।
यह एक अफ़सोसनाक सत्य है कि अब तक, राय प्रवीण पर जितना भी लिखा गया, जितने भी उपन्यास लिखे गये, उन सब में उन्हें राजनर्तकी के रूप में वर्णित किया गया। अब चूंकि राजनर्तकी, उस पर राजा इंद्रजीत सिंह की प्रेमिका। तो उपन्यासकारों ने स्वयमेव मान लिया कि यदि कोई नर्तकी प्रेमिका भी है, तो उसकी स्थिति क्या मानी जायेगी? ज़रा स्तरीय भाषा में हम भले ही उसे राजनर्तकी लिखें, लेकिन अन्तत: राजनर्तकी का क्या स्थान होता था दरबार में? एक नर्तकी जो राजा की प्रेमिका भी हो, को क्या उपाधि दी जा सकती है? रखैल से ज़्यादा कुछ नहीं। चलताऊ भाषा में हम इस रिश्ते को यही नाम देते हैं, किन सत्यार्थी जी का उपन्यास – “एक थी राय प्रवीण” इस मिथक को पूरी तरह नकारता है और राय प्रवीण को उनकी भार्या के रूप में स्थापित करता है। हां, यह सच है कि राय प्रवीण घोषित पत्नी का दर्ज़ा पाने के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गयीं। कवि केशव की शिष्या, जिसे स्वयं केशवदास ने राय प्रवीण नाम दिया, कितनी कुशल कवियित्री, नर्तकी, गायिका और चित्रकार थीं, यह आप इस उपन्यास के माध्यम से जान सकेंगे।
आलेख में इस उपन्यास का ज़िक्र आवश्यक था। कोई भी आलेख, जो किसी ऐतिहासिक चरित्र पर लिखा जा रहा हो, कि प्रमाणिकता उसमें प्रयुक्त सन्दर्भ ग्रन्थों से ही साबित होती है और मेरे इस आलेख का मुख्य आधार ये उपन्यास है जो उपन्यास कम, शोधग्रन्थ अधिक है। चालीस वर्षों के अथक परिश्रम के बाद इसे रचा जा सका। इतना समय केवल इसलिए लगा क्योंकि राय प्रवीण से जुड़ी कोई भी लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं थी, सिवाय कवि केशव की कविप्रिया के। तब ज़रूरी था कि उस गांव और कछौआ के बुजुर्गों से प्रामाणिक जानकारी जुटाई जाए। राय प्रवीण महल में उकेरे गए, राय प्रवीण द्वारा रचित कवित्त भी अपने आप में महत्वपूर्ण प्रमाण हैं।
आज इतने वर्षों बाद, आवश्यकता इस बात की है कि इस अत्यंत गुणी कलाकार को राजनर्तकी की जगह छोटी रावरानी का दर्ज़ा दिया जाए और राजनर्तकी की छवि से मुक्त किया जाए।
लेखिका साहित्य एवं शिक्षण से जुड़ी हैं।
© मीडियाटिक
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