निर्गुण की खुशबू बिखेर रही हैं गीता पराग

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निर्गुण की खुशबू बिखेर रही हैं गीता पराग

छाया : स्व सम्प्रेषित 

• सीमा चौबे 

इसमें कोई दो राय नहीं कि शिक्षा सफलता की सीढ़ी है, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनका अशिक्षित या अल्प शिक्षित होना उनके जीवन में बाधा नहीं बन सका। ऐसा ही एक नाम है देवास जिले की टोंकखुर्द तहसील के एक छोटे से गांव बिसलखेड़ी की गीता पराग का। अपनी सास के साथ मिलकर वे अनूठे तरीके से मालवी लोकगीतों और संत कबीर के निर्गुण भजनों के जरिये समाज को जागरूक बनाने का प्रयास कर रही हैं। 

हालांकि संगीत का यह सफ़र उनके लिए बिल्कुल भी आसान नहीं रहा। खुद को स्थापित करने उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। पुरुष प्रधान समाज की रुढ़िवादी सोच ने उन्हें  मंच पर गायन करने से कई बार रोका, लेकिन उन्होंने हर बार अपने लिए परिवार और समाज से लड़ने का फ़ैसला किया। इसी साहस का परिणाम है कि आज उनका पूरा परिवार उनके साथ मंच साझा करता है।

7 अगस्त 1986 को ग्राम खेड़ा जिला शाजापुर में श्रीमती लीलाबाई एवं श्री देवकरण निमार्थी के घर जन्मी गीता उनकी इकलौती संतान हैं। गीता को बचपन से ही लोकगीतों और पारम्परिक भजनों से प्रेम था। अपने जीवन की पहली गुरु वे अपने गाँव की उन महिलाओं को मानती हैं, जिनके पास बैठकर वे भजन सुना करती थीं। बचपन में राम और कृष्ण के पारम्परिक भजन गाने वाली गीता को भान तक नहीं था कि एक दिन उनका यह हुनर उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचा देगा।

ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी गीता का पढ़ाई में बिलकुल भी मन नहीं लगता था, इसीलिए वे छठवीं तक ही शिक्षा प्राप्त कर पाईं। 19 वर्ष की उम्र में बिसलखेड़ी निवासी श्री सिंगाराम से उनका विवाह हो गया। सिंगाराम जी प्रिंटिंग प्रेस के अलावा खेती-किसानी से भी जुड़े थे। शादी के बाद गीता ने पति की प्रेरणा से दसवीं तक पढ़ाई की। साथ ही सास लीला जी से प्रेरित होकर लोकगीत और कबीर को गाना शुरू किया। हालाँकि शुरू-शुरू में उन्हें ये भजन बिलकुल पसंद नहीं थे। जब उनकी सास सुबह पांच बजे से ही कबीर-रैदास के भजन लगा दिया करती तो नींद में खलल पड़ने से वे कई बार झुंझला जातीं। उस समय वे इन भजनों से ऊब जाती थीं, लेकिन धीरे-धीरे जब उन्हें कबीर वाणी का सही अर्थ समझ आया, तब उन्होंने उन्हें ध्यान से सुनना शुरू किया। गाँव में नियमित होने वाले निर्गुण गायन कार्यक्रमों में भी वे जाने लगीं। धीरे-धीरे वे अपनी सास के साथ कबीर भजन गाने लगीं।

सार्वजनिक रूप से गीता के गायन की शुरुआत गांव के ही एक कार्यक्रम से हुई। इस कार्यक्रम में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कबीर भजन गायक कालूराम बामनिया जी प्रस्तुति देने आये थे। कालूराम जी, लीलाबाई के कबीर प्रेम से बहुत अच्छी तरह वाक़िफ़ थे, तो उन्होंने मंच से एक भजन गाने का अनुरोध करते हुए माइक उन तक पहुंचा दिया। महिलाओं के समूह में साथ भजन गाने वाली लीलाबाई ने कहा कि उनके साथ उनकी बहू भी गायेगी। इसके बाद नीचे बैठकर गाने के बजाय  गीता अपनी सास को लेकर सीधे मंच पर पहुँची और गाना शुरू कर दिया। कालूराम जी ने दोनों के गायन की प्रशंसा करते हुए लीलाबाई से कहा- “तुम्हारी बहू का कंठ तो तुमसे भी ज्यादा सुरीला है”। मंच पर प्रतिष्ठित कलाकार से मिली प्रशंसा से गीता को न सिर्फ हौसला मिला, बल्कि और अधिक बार गाने की प्रेरणा भी मिली। गीता ने तब तक भी नहीं सोचा था कि वह पल उनके जीवन की दिशा निर्धारित करने वाला है।

इस कार्यक्रम के करीब पन्द्रह दिन बाद कालूराम जी के कहने पर कबीर स्मारक सेवा संस्थान के संस्थापक और विख्यात लोकगायक प्रहलाद टिपाणिया अपने साथी नारायण देल्म्या जी के साथ गीता के घर पहुँच गए। उन्होंने लीलाबाई और गीता से पूछा “क्या निर्गुण भजनों को बेहतर तरीके से सीखना चाहोगी?” अंधा क्या चाहे दो आँखे, लीलाबाई और गीता ने तुरंत हामी भर दी, लेकिन टिपाणिया जी ने उनसे एक वादा लिया कि सीखने के बाद कार्यक्रमों में भी जाना पड़ेगा। इस तरह एकलव्य संस्थान के माध्यम से प्रहलाद टिपाणिया, नारायण देल्म्या और कालूराम बामनिया द्वारा विधिवत गायन की शिक्षा प्रारम्भ हुई। इसके लिए वे हर हफ्ते घर पर आकर गायन के अलावा तम्बूरा, ढोलक, मंजीरा और हारमोनियम बजाना भी सिखाते थे।

एक तो पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, दूसरा खेती किसानी का काम, इन सबके बीच दोनों सास-बहू को अभ्यास के लिए समय ही नहीं मिल पाता था। खेतों में दिन भर काम करने के बाद थकिहारी सास-बहू जैसे-तैसे शाम का काम निपटाकर रात का समय संगीत के लिए निकालतीं। बाद में कार्यक्रमों के कारण धीरे-धीरे खेती का काम छोड़ उन्होंने खुद को पूरी तरह से कला के लिए समर्पित कर दिया।

उनके संगीत सीखने का शुरुआत में तो किसी ने विरोध नहीं किया, लेकिन जब खेती-किसानी का काम प्रभावित होने लगा तो हर हफ्ते इस तरह बाहरी व्यक्ति का घर में आना परिवार के पुरुषों को खटकने लगा। खासतौर से सिंगाराम जी को उन संगीतज्ञों का घर में आना बिलकुल पसंद नहीं था, लेकिन वे माँ के कारण कुछ नहीं कह पाते, लेकिन बाद में गीता से खूब झगड़ते। जब आसपास के गाँवों में गीता कार्यक्रमों में जाने लगीं तो सिंगाराम जी ने स्पष्ट शब्दों में मना करते हुए कहा “घर और अपने गाँव में भजन करने तक तो ठीक है, लेकिन बाहर जाकर गायकी करना हमारे घर की परम्परा नही है।“ दरअसल आलोचक उनके सार्वजनिक प्रदर्शनों को लेकर तरह-तरह की बातें किया करते थे। वे मुश्किल भरे उन दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि एक रात जब वे कार्यक्रम में भजन गाकर देर से घर लौटीं तो सिंगाराम जी ने उन्हें घर से बाहर निकाल दिया था। हालांकि पति की डांट, नाराजगी और लोगों के ताने-उलाहनों के बावजूद गीता ने संगीत सीखना जारी रखा। इधर घर पर हालात मुश्किल ही बने रहे। इन सबके बीच उनकी सास लीला बाई गीता की ढाल बनकर खड़ी रहीं।

वर्ष 2017 में उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण क्षण आया, जब उन्हें भोजपुरी साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद भोपाल द्वारा संत कबीर की स्मृति में देवास में आयोजित निर्गुण समारोह में साउथ कोरिया की ख्यात लेखिका और कबीर प्रेमी लिंडा हेस की मौजूदगी में अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ। सुश्री हेस ने उनके गायन की खूब सराहना की। यह मंच उनके ज़िन्दगी का महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ और उनके जीवन में सुखद परिवर्तन की शुरुआत भी यहीं से हुई। इस आयोजन के बाद गीता के प्रति सिंगाराम जी का रवैया नरम पड़ने लगा। धीरे-धीरे जब उन्हें भी कबीर के दोहों की समझ आई और गीता के लोकप्रिय होने का कारण समझ आया तो वे भी उनके साथ कार्यक्रमों में जाने लगे। इतना ही नहीं, वे उनके साथ मंच भी साझा करने लगे।

गीता की प्रतिभा को देखते हुए कालूराम और नारायण जी ने उनकी सास को गायन में मुख्य कलाकार के रूप में बहू को रखने की सलाह दी। इसके बाद दोनों ने एक साथ मंचीय प्रस्तुतियां देना शुरू किया। इन दोनों का साथ में गायन इतना लोकप्रिय हुआ कि अब ये दोनों अपने नाम से कहीं ज्यादा सास-बहू की जोड़ी के नाम से पहचानी जाती हैं। इस बारे में गीता कहती हैं “सास-बहू का रिश्ता केवल लड़ाई-झगड़ा वाला ही नहीं होता, आत्मीय भरा भी होता है, हमारा रिश्ता कुछ ऐसा ही है। मेरी सास ने हमेशा ही मुझे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया है।”

वर्ष 2009 से महिला एवं बाल विकास विभाग, टोंकखुर्द में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहीं गीता विभागीय योजनाओं को लेकर लोगों के बीच जागरूकता भी फैला रही हैं। उनकी पहल से गांव ही नहीं, बल्कि पूरे प्रदेश की महिलाओं व युवतियों को प्रेरणा मिल रही है। वर्ष 2018 में शुरू हुए उनके यूट्यूब चैनल ‘गीता पराग कबीर’ को सवा करोड़ से अधिक लोग देख चुके हैं और यह संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। इस चैनल पर 45 से अधिक भजन अपलोड हैं और 51 हजार के लगभग सबस्क्राइबर्स हैं।

संगीत विषय के साथ बी.ए. कर रही उनकी बेटी तनु पराग भी माँ के नक्शे कदम पर चलते हुए उनकी इस विरासत को आगे बढ़ा रही है। इस तरह तीन पीढ़ियाँ - सास लीला पराग, बहू गीता और पोती तनु, कबीर को जीवंत रखने में अपनी अहम भूमिका निभा रही हैं। मंच पर सिंगाराम पराग नगाड़ी और तनु हारमोनियम पर संगत देती हैं। उनका बेटा नीलेश पराग दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.ए. कर रहा है।

उपलब्धियां

अनेक प्रतिष्ठित मंचों पर बेहद खूबसूरत प्रस्तुतियां दे चुकीं गीता, आकाशवाणी. इंदौर से बी ग्रेड कलाकार हैं। कोविड काल में भी सोशल मीडिया से संगीत द्वारा लोगों को जागरूक करने करने वाली इस लोकगायिका को अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मान एवं प्रशस्ति पत्र से अलंकृत किया जा चुका है।  

सम्मान

• मप्र संस्कृति विभाग, भोपाल द्वारा कबीर महोत्सव पर प्रस्तुति के लिए सम्मानित

• कबीर गायन को जीवित रखने के लिए प्रोफेसर लिंडा हैस स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी अमेरिका, एकलव्य संस्थान और संवाद वाहिनी संस्थान द्वारा संयुक्त रूप से सम्मानित

• अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर नेहरू युवा केन्द्र,  देवास द्वारा कबीर गायन के लिए सम्मानित

• जिला महिला बाल विकास विभाग द्वारा लोकगीत एवं कबीर गायन के लिए सम्मानित

• तहसील एवं महिला बाल विकास टोंकखुर्द द्वारा लोकगीत एवं कबीर गायन के लिए सम्मानित

• कबीर जन विकास समूह, इंदौर एवं अपर कलेक्टर द्वारा सम्मानित

• बैंक नोट प्रेस, देवास के महाप्रबंधक द्वारा अंबेडकर जयंती पर सम्मानित

• अन्तर्राष्ट्रीय विश्वरंग सांस्कृतिक समारोह रविंद्रनाथ टैगोर विश्व वि। भोपाल एवं  लोक रंग महोत्सव टिमरनी-हरदा के अलावा स्थानीय संस्थाओं द्वारा अनेक बार सम्मानित किया जा चुका है।

 

प्रस्तुतियां

एकलव्य संस्थान द्वारा मध्यप्रदेश के विभिन्न स्थानों पर आयोजित कार्यक्रमों में कबीर भजन की प्रस्तुतियां

• भारत भवन/रविंद्र भवन-भोपाल

• मप्र भोजपुरी साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित निर्गुण सांस्कृतिक समारोह- देवास

• मप्र स्थापना दिवस/ भारत पर्व – भोपाल

• स्पिक मैके संस्थान, दिल्ली द्वारा आयोजित कार्यक्रमों के तहत हरियाणा, पंचकुला, करनाल, कुरुक्षेत्र अंबाला, पानीपत में प्रस्तुति

• 'हर घर तिरंगा'  अभियान में कबीर, लोक गीतों की प्रस्तुति

• अशोका विश्वविद्यालय-सोनीपत, हरियाणा

• बैंगलोर -कबीर गायन 

• अंतर्राष्ट्रीय विश्वरंग सांस्कृतिक समारोह, रविन्द्रनाथ टैगोर विवि,भोपाल

• लोक रंग महोत्सव-टिमरनी, हरदा

• पचमढ़ी/मुंबई

• जन साहस संस्था, देवास 

• कबीर फेस्टिवल- दिल्ली

• मोमासर उत्सव – बीकानेर, राजस्थान

• मप्र संस्कृति विभाग द्वारा आयोजित भारत पर्व, बड़वानी

सन्दर्भ स्रोत : गीता पराग से सीमा चौबे की बातचीत पर आधारित

© मीडियाटिक

 

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