भाषा और कथ्य की बेजोड़ शिल्पकार वन्दना राग

blog-img

भाषा और कथ्य की बेजोड़ शिल्पकार वन्दना राग

छाया : कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल डॉट कॉम

 

• वन्दना दवे 

वन्दना राग का लेखन हाशिए पर छोड़े गए लोगों की बात करता है। वह उन्हीं में से ऐसे चरित्रों को सामने लाता है जिनका सशक्त मनोबल मुख्यधारा के लोगों से लोहा लेने का माद्दा रखता है या किसी आंदोलन में मुखरता से अगुवाई करता है। ऐसे ही लोगों की आवाज को दर्ज कराती वन्दना राग की रचनाएँ हिंदुस्तान की आवाज बनकर उभरती हैं।

वंदना जी का जन्म 10 मार्च, 1967 को मध्यप्रदेश के इंदौर में हुआ। मूलत: बिहार के सीवान जिले से ताल्लुक रखने वाली वंदना के पिता श्री हरीश चंद्र तिवारी भारतीय जीवन बीमा निगम में अधिकारी थे। माता श्रीमती बसंती तिवारी परिवार संभालती थी। पिता के अनेक शहरों में स्थानांतरण के कारण इनकी स्कूली शिक्षा देश के अलग-अलग शहरों में हुई। इन्होंने हायर सेकंडरी, हाईस्कूल लखनऊ के केंद्रीय विद्यालय (आरडीएसओ) से किया। 1990 में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की तथा दिल्ली विश्वविद्यालय से ही चीनी और जापानी स्टडीज़ में एमफिल किया।

घर का माहौल काफ़ी आज़ाद ख्याल रहा। चूँकि मां व पिताजी दोनों को पढ़ने का बेहद शौक था, इसलिए वंदना जी को भी पढ़ने में गहरी दिलचस्पी रही। पढ़ते-पढ़ते ही लिखने की चाहत पैदा हो गई। शुरुआत में स्कूल की पत्रिकाओं में छपना शुरू हुआ। फिर पहली कहानी हंस में 1999 में छपी और तब से लगातार लिखने और छपने का सिलसिला चल रहा है। वन्दना जी की रचनाओं ने पाठकों के बीच भाषा, कथ्य, गहराई और शैली के चलते समकालीन कथाकारों से कुछ अलग सोच को जन्म दिया। इनके लेखन में स्त्री तथा वंचित समाज मनुष्यगत स्वरूप में नज़र आता है। वन्दना राग का पहला कहानी संकलन 'यूटोपिया' 2010 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद ख्यालनामा, हिजरत से पहले और 'मैं और मेरी कहानी' कहानी संग्रह पाठकों को पढ़ने को मिले। इसके अलावा अनेक अनुवाद कर चुकी है जिनमें प्रख्यात इतिहासकार ई.जे. हॉब्सबाम की किताब एज ऑफ़ कैपिटल का अनुवाद पूँजी का युग शीर्षक से किया है।

'बिसात पर जुगनू' इनका पहला उपन्यास है। 2020 के शुरुआत में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित यह उपन्यास साहित्य जगत में बेहद सराहा गया। इसमें डेढ़ सदी से अधिक (1839-2001) की सामाजिक राजनीतिक आर्थिक और धार्मिक स्थितियों को सलीके से प्रस्तुत किया गया है। भारत और चीन की सरजमीं पर घटित हो रही घटनाओं को स्त्री चेतना के बतौर देखने की कोशिश की गई। बिसात पर जुगनू इतिहास का होकर भी किसी खास कालखंड की दास्तां नहीं है, बल्कि उस दौर का जीवन है। वह साधारण वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले छोटे सरोकारों की बात करता है। वन्दना जी का अगला उपन्यास 'सरसों के फूल' प्रकाशन प्रकिया में है । यह उपन्यास हमारे आज को 1948 के बरअक्स रखकर आज़ादी के मायने टटोलता है।

वन्दना जी का मानना है कि हालिया स्त्री रचनाकारों ने बहुत सारे स्टीरियोटाइप तोड़े हैं। बड़ी संख्या में ये लिख रही हैं और लोगों की सोच बदलने का प्रयास कर रही है। घर-बाहर, शील चरित्र से जुड़े मिथकों को ध्वस्त कर रही हैं। परंपरागत सामाजिक ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन हो रहा है और स्त्रियां यह बदलाव ला रही हैं। पुरुष रचनाकारों में स्त्री विमर्श की बात पर कहती हैं कि दरअसल यह बड़ा सच है कि अनेक बार पुरुष रचनाकारों की कहानियों में स्त्रियों की बुनावट कमजोर होती है। कहानियों में स्त्री पात्र या तो अति ममतामयी होते हैं या उच्छृंखल। दोनों के बीच का जो मिलाजुला स्वरूप होता है, वह अद्भुत समन्वय जो स्त्री की निर्मिति एक अच्छे अथवा बुरे मनुष्य के रूप में करता है, वह बारीक समझ और संवेदना पुरुष रचनाकार बहुत ठीक से साध नहीं पाते हैं।लेकिन ठीक इसी तरह से पुरुष रचनाकार ऐसा ही आरोप स्त्रियों पर भी लगा सकते हैं, चूंकि स्त्रियां पुरुष संवेदना को नहीं पकड़ रहीं ठीक से। दरअसल कला का उत्कर्ष यही है कि निज आगे बढ़ पूरे समूह और समाज का स्वर बन उभरे। निज के सुख दुख की अंतर्ध्वनियां व्यापक धरातल पर प्रतिबिंबित हों और साझा लगें ।इसमें रचनाकार का परिष्कार और परिपक्वता दोनों दिखाई पड़ती है।

लेखन की दुनिया में पुरुषिया सोच के बारे में इनका मानना है कि यह क्षेत्र भी हर क्षेत्र की तरह पितृसत्तात्मक मानकों से चलता है और पुरुष को लिखने-पढ़ने की और लोकप्रिय होने की सहज स्वीकृति हासिल है। इसके बावजूद पुरुष रचनाकार चूकते हैं स्त्रियों की बारीकी पकड़ने में।इसकी वजह क्राफ्ट या भाषा के कौशल में कम नहीं है। यह पुरुष के भीतर की रूढ़िगत कमी है जिसकी मूल वजह शायद हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक पिछड़ापन है-पुरुष और स्त्री में सहजता की कमी और मित्रता के अभाव से यह कमी और परवान चढ़ती है। लेकिन फिर भी रचनाकार प्रयास तो करते ही हैं।समग्रता में तो नहीं, लेकिन अपवाद स्वरूप मेरी पीढ़ी के अनेक पुरुष कथाकारों ने स्त्री संवेदना को बेहतर उकेरने का प्रयास किया है। स्त्रियां अपनी बात बेहतर लिखेंगी ही- लेकिन कोई पुरुष भी किसी दिन लंबी यात्रा कर उनके अंतर्मन की बात जरूर लिख सकेगा यदि लिखना चाहेगा तो।पुरुषों ने भी स्त्री को गहराई से उकेरा है और भविष्य में भी उकेरेंगे, उस दिन लिंग भेद समाप्त हो जाएगा।

समाज में स्त्री सहभागिता के बारे में वे कहती हैं कि मुझे फख्र है कि स्त्रियां इस बेमुरव्वत समय में भी अपने संघर्षों को लेकर आगे बढ़ रही हैं। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ स्त्रियों ने मोर्चा संभाला और लंबे समय तक लड़ाई लड़ी। समाज की बेहतरी के लिए आंदोलनों में स्त्रियां मुखर हो आगे आ रही हैं, यही सबसे बड़ा स्वप्न है।स्त्रियाँ राजनीतिक दृष्टि से संपन्न हों, आंदोलनों की अगुआ बनें। इससे सिर्फ स्त्रियां सशक्त नहीं होंगी, बल्कि पूरा समाज संपन्न होगा और यही स्त्री रचनाकारों की कहानियों का मजमून होगा, गांव से शहर तक। स्त्री रचनाकार, चाहे वे किसी भी सामाज की हों -हाशिये के किसी भी समाज की हों, उन्हें अपनी आवाजों को दर्ज करने का मौका मिले, उनकी आवाज़ सुनी जाए, वे विचार की अगुआ लेखक बनें, समाज की सशक्त 'ओपिनीयन मेकर' बनें और संपूर्ण स्त्री जाति के उत्थान की बातें करें,यही स्वप्न मुझे दिखलाई पड़ता है, जो व्यक्तिगत भी हो और सामूहिक भी।

वन्दना जी ने दूरदर्शन में एंकरिंग की है साथ ही कोचिंग संस्थान में इतिहास और अंग्रेज़ी का अध्यापन किया है। राजनीति और स्त्री विषयक आलेख अखबारों में छपते हैं। फ़िलहाल वे तक्षशिला एजुकेशनल सोसायटी के साथ बतौर कॉंटेंट सलाहकार जुड़ी हैं। पुरस्कार के संदर्भ में कहती हैं कि पुरस्कार पाना सभी को अच्छा लगता है लेकिन इन दिनों ऐसे पारितोषिक में आस्था घट गई है। भेड़चाल से पुरस्कार प्राप्त करने से बेहतर है कि पुरस्कार न ही मिले। लोगों को यह एक घिसी-पिटी बात लग सकती है कि पाठकों का प्यार ही असली पुरस्कार है लेकिन यह सच है कि मैंने पाठकों का खूब प्यार पाया और इसीलिए मुझे पहला कृष्ण प्रताप सम्मान और भगवती चरण वर्मा पुरस्कार मिला।

वन्दना जी का विवाह बचपन के साथी श्री पंकज राग से दिसम्बर 1989 में हुआ। वन्दना जी बताती हैं दोनों के परिवारों के रिश्ते बहुत अच्छे थे तो अकसर मिलना जुलना हो जाता  अगस्त 1990 में पंकज जी का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में हो गया, वे इस समय नई दिल्ली में मप्र के आवासीय आयुक्त हैं। वन्दना जी जानी-मानी कथाकार हैं तो पंकज जी प्रतिष्ठित कवि और इतिहासकार हैं। उनके कविता संग्रह 'भूमंडल की रात' को काफ़ी सराहना मिली। उन्होंने अंग्रेज़ी में इतिहास की पुस्तकें लिखी हैं। गायक मुकेश के गीतों के अनन्य प्रशंसक पंकज जी की भारतीय फिल्म संगीत पर लिखी किताब 'धुनों की यात्रा' बेहद चर्चित एवं प्रशंसित है। वंदना और पंकज राग के दो बच्चे हैं नीलाशी और अतीत, दोनों ही पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी कर रहे हैं।

सन्दर्भ स्रोत : वन्दना राग से वन्दना दवे की बातचीत पर आधारित

© मीडियाटिक

Comments

Leave A reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *



सीमा कपूर : उसूलों से समझौता किये
ज़िन्दगीनामा

सीमा कपूर : उसूलों से समझौता किये , बगैर जिसने हासिल किया मुकाम

सीमा जी की ज़िंदगी की शुरुआत ही एक नाटक कंपनी चलाने वाले पिता की पहचान के साथ हुई और यही पहचान धीरे-धीरे इन्हें समाज से अ...

एक साथ दस सैटेलाइट संभालती
ज़िन्दगीनामा

एक साथ दस सैटेलाइट संभालती , हैं इसरो वैज्ञानिक प्रभा तोमर

अक्सर ऐसा होता कि शिक्षक के पढ़ाने से पहले ही गणित के सवाल वे हल कर लिया करती थीं। इसलिए बोर्ड पर सवाल हल करके बताने के ल...

लिखना ज़रूरी है क्योंकि जो रचेगा, वो बचेगा : डॉ.लक्ष्मी शर्मा
ज़िन्दगीनामा

लिखना ज़रूरी है क्योंकि जो रचेगा, वो बचेगा : डॉ.लक्ष्मी शर्मा

उनके उपन्यास 'सिधपुर की भगतणें’ पर मुम्बई विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने एम.फिल का लघु शोध लिखा है। इसी उपन्यास पर ओडिशा...

दुनिया की सबसे युवा महिला सीए
ज़िन्दगीनामा

दुनिया की सबसे युवा महिला सीए , का तमगा हासिल करने वाली नंदिनी

चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने के बाद नंदिनी ने ए.सी.सी.ए. अंतर्राष्ट्रीय परीक्षा में इंडिया में पहली व विश्व में तीसरी रैंक हा...

पारंपरिक चित्रकला को अपने अंदाज़ में संवार रहीं सुषमा जैन
ज़िन्दगीनामा

पारंपरिक चित्रकला को अपने अंदाज़ में संवार रहीं सुषमा जैन

विवाह के 22 साल बीत जाने के बाद दिसम्बर 1998 में देवलालीकर कला वीथिका इंदौर में एकल प्रदर्शनी लगाई।

खिलौनों से खेलने की उम्र में कलम थामने वाली अलका अग्रवाल सिगतिया
ज़िन्दगीनामा

खिलौनों से खेलने की उम्र में कलम थामने वाली अलका अग्रवाल सिगतिया

बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न अलका जी ने गुड्डे-गुड़ियों से खेलने की उम्र में ही काफी लोकप्रियता बटोर ली थी।