शोभा घारे

blog-img

शोभा घारे

छाया : स्व संप्रेषित

• सारिका ठाकुर 

सुप्रसिद्ध चित्रकार शोभा घारे का जन्म मध्यप्रदेश के गुना शहर में 10 अप्रैल 1951 को हुआ था। उनके पिता श्रीकृष्णराव सदाशिवराव साटम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण रत्नागिरी(कोंकण), महाराष्ट्र से एवं माता श्रीमती शालिनी राणे गोवा की रहने वाली थीं। शोभा जी तीन बहनें एवं दो भाई हैं। पिता फ़ौज में थे और उनका पूरा परिवार प्रकृति के प्रति अगाध स्नेह से भरा हुआ था। इस परिवार में प्रकृति और उससे जुड़ी तमाम चीज़ों के लिए एक अतिरिक्त संवेदना थी। संभवतः यही संवेदना रंगों से हिल मिलकर शोभा जी के कैनवास पर उभर आती हैं।

श्रीकृष्णराव जी का स्थानान्तरण गुना से ग्वालियर हो गया, जहाँ दूसरी कक्षा तक शोभा जी की पढ़ाई हुई। 60 के दशक में परिवार भोपाल आकर बस गया। एक दुर्घटना के कारण पिता ने फ़ौज से सेवानिवृत्ति ले ली थी। शहर के साउथ टीटी नगर इलाके  में स्थित तत्कालीन सुभाष स्कूल में शोभा जी दाख़िला हुआ। अगले सालों में सुभाष स्कूल का विलय कमला नेहरु गर्ल्स हाईस्कूल में हो गया, जहाँ उन्होंने 11वीं तक की पढ़ाई की।

बचपन में वे अपनी कॉपी में रेखाचित्र बनाती रहती थीं। उनके लिए यह सुखद संयोग था कि कमला नेहरु स्कूल में चित्रकला, विषय के रूप में पढ़ाई जाती थी और उस समय रॉयल ड्राइंग सोसाइटी, लंदन का एक पाठ्यक्रम वहाँ संचालित होता था। इसमें पाठ्यक्रम और प्रश्न पत्र आदि लन्दन से ही तैयार होकर आते थे, लेकिन चित्रकला सिखाने का काम कमला नेहरु स्कूल के शिक्षक करते थे। यह तीन साल का पाठ्यक्रम था, जिसमें प्रति वर्ष परीक्षा होती थी। रॉयल ड्राइंग सोसाइटी का पाठ्यक्रम उस समय आमतौर पर सिखाई जाने वाली तकनीकों से बिलकुल अलग थी। शोभा जी ने 1968 में यह पाठ्यक्रम पूरा कर लिया। तीनों वर्ष की परीक्षाओं में उनकी रैंकिंग उत्कृष्ट दर्ज हुई।

11 वीं के बाद उसी वर्ष पिता ने शोभा जी की रुचि को देखते हुए सर जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स, मुंबई भेज दिया। वहाँ जाकर उन्हें पता चला कि चित्रकला से संबंधित कितनी और विधाएँ हैं। उस समय वहाँ पाँच वर्षों का जी. डी. फाइन आर्ट का पाठ्यक्रम हुआ करता था। इसके अलावा एक ही समय में चार वर्ष का अप्लाइड आर्ट का पाठ्यक्रम करने की सुविधा भी वहाँ थी। उल्लेखनीय है कि सर जे.जे. स्कूल ऑफ़ आर्ट्स, मुंबई में दाखिला लेने के कुछ समय बाद ही समूह प्रदर्शंनियों में उन्होंने हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। अपने प्रतिभा के बल पर जल्द ही संस्थान में उन्होंने अपनी एक अलग जगह बना ली।   

 वर्ष 1972 उन्होंने वहाँ से जी. डी. फ़ाइन आर्ट्स’ का पाठ्क्रम पूरा कर लिया। उसके बाद 1973 में वहीं से ‘जी.डी, अप्लाइड आर्ट’ का पाठ्यक्रम पूरा किया। इसके अलावा वर्ष 1973 में ही उन्होंने ‘जी. डी. आर्ट मास्टर की उपाधि भी उसी संस्थान से प्राप्त किया, जिसमें उन्हें स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ था। इस संस्थान में सात वर्ष गुजारने के दौरान वहाँ से संचालित अपनी रूचि के लगभग सही पाठ्यक्रम उन्होंने पूरा कर लिया, जैसे ग्राफिक्स में लिथोग्राफी, एचिंग. सेरिग्राफ़ी, वुडकट, लिनोकट, ड्राई पॉइंट आदि 
इसी वर्ष ‘जहांगीर आर्ट गैलरी’ मुंबई में उन्होंने अपने दो सहपाठियों नवजोत और सलीम के साथ समूह-प्रदर्शनी में उन्होंने हिस्सा लिया, जिसमें उन्हें काफी सराहना मिली।

वर्ष 1974 में शोभा जी भोपाल वापस आ गईं। उन दिनों भोपाल के पत्रकार भवन में ‘भांड स्कूल ऑफ़ आर्ट्स’ संचालित होता था, जिसमें वे चित्रकला सिखाने लगीं । वहां उन्होंने लगभग तीन साल काम किया। वह एक छोटा सा संस्थान था लेकिन उन तीन सालों में उस स्कूल का प्रदर्शन पूरे मध्यप्रदेश के कला संस्थानों में उत्कृष्ट रहा। इसके अलावा वे कमला नेहरु स्कूल में भी शौकिया सिखाने जाती थीं। दरअसल मुंबई से जो चीज़ें वे सीखकर आई थीं, उन दिनों स्कूल के स्तर पर उनका नामो-निशान नहीं था। स्कूल से भावनात्मक जुड़ाव होने के कारण बच्चों का हुनर  निखारने में उन्हें अच्छा लगता था। ‘भांड स्कूल ऑफ़ आर्ट’ में वे प्रभाकर घारे जी से मिलीं, जो बहुत पहले जे.जे. स्कूल के ही विद्यार्थी रह चुके थे। शोभा जी उनसे बहुत प्रभावित थीं। एक दिन वह उनसे पूछ बैठीं –क्या हम साथ रह सकते हैं? शर्त यह है कि मैं अपनी पेंटिंग कभी नहीं छोड़ूंगी। श्री घारे इस प्रश्न के लिए तैयार नहीं थे लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने भी हामी भर दी और 1975 में दोनों परिणय सूत्र में बंध गए। इसके बाद शोभा जी एक विज्ञापन एजेंसी से जुड़ गईं, वहाँ भी उन्होंने तीन-चार साल काम किया।

वर्ष 1983 में शोभा जी को मध्यप्रदेश सरकार द्वारा अमृता शेरगिल फ़ेलोशिप प्रदान की गयी। इसके बाद वर्ष 1994 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जूनियर फ़ेलोशिप एवं वर्ष 2005 में सीनियर फ़ेलोशिप  प्रदान किया गया। वर्ष 1985 में शोभा जी का ‘जहांगीर आर्ट गैलरी’ में ‘छापा कला’ पर आधारित ‘शो’ था। इसके लिए ज़रुरी मशीन उस समय भोपाल में केवल संस्कृति विभाग के पास थी, जिसे वह स्वयं कला परिषद से उठवाकर भारत भवन ले आईं और वहीं अपना काम किया। तब तक भारत भवन की स्थापना को महज तीन साल हुए थे।  अपने फ़ेलोशिप से संबंधित काम भी वह  भारत भवन के वर्कशॉप में ही करती थीं। दरअसल शोभा जी ने अपना अधिकाँश काम भारत भवन के ग्राफिक्स और सिरेमिक स्टूडियो में ही किया है।

वर्ष 1987 आते तक वे कला क्षेत्र में व्याप्त राजनीति से व्यथित हो गईं थीं। इससे उपजे अवसाद से मुक्ति पाने के लिए वे अपने पति के साथ मुंगेर, गंगा दर्शन आश्रम चली गईं, जहां उनकी मुलाक़ात अपने आध्यात्मिक गुरु परमहंस स्वामी सत्यानंदजी सरस्वती से हुई। वे जीवन से संन्यास लेना चाहती थीं, लेकिन गुरु के समझाने पर पुनः भोपाल वापस आकर रंगों और तूलिकाओं के साथ व्यस्त हो गईं। हालाँकि विघ्नसंतोषी अब भी उनके खिलाफ सक्रिय थे। लेकिन उन पर ध्यान न देते हुए वे अपने रचना कर्म में लगी रहीं और देश-विदेश की प्रतिष्ठित कला वीथिकाओं में आयोजित एकल और समूह प्रदर्शनियों में सम्मिलित होती रहीं। वर्ष 2007 में शोभा जी को भारत भवन के निदेशक पद (रुपंकर)  हेतु चुन लिया गया, किंतु कतिपय षड्यंत्रों के चलते उन्हें वह पद छोड़ना पड़ा।

पारिवारिक ज़िम्मेदारियों और अपने कलाकर्म के बीच संतुलन साधते हुए शोभा जी का जीवन अपनी रफ़्तार से गुजर रहा था, लेकिन वर्ष 2008 में सिर में चोट लगने के कारण उनके पति ने बिस्तर पकड़ लिया। उनके मस्तिष्क में खून के थक्के जम गये थे। लंबी बीमारी के बाद वर्ष 2013 में उनका देहांत हो गया। यह उनके व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ उनकी कला के लिए भी भयंकर आघात सिद्ध हुआ।
शोभा जी के रेखांकन और चित्रों में प्रकृति के विभिन्न रूपों को देखा जा सकता है। वे छापाकारी और चित्रकारी दोनों में अपनी दक्षता रखती हैं। दुबली-पतली इकहरी काठी की खामोश और सामान्य सी दिखने वाली यह चित्रकार अनेक झंझावतों के बीच से राह बनाती एकाग्रता से अपनी मंज़िल की ओर आज भी अग्रसर है। उन्हें बचपन से ही पशु-पक्षियों से गहरा लगाव रहा है। वह उनसे मात्र प्रेम ही नहीं करतीं बल्कि उनकी हिफाज़त भी बढ़ चढ़ कर करतीं हैं । उनकी पुत्री  स्वतंत्रा इंदौर में अपने परिवार के साथ रहती हैं और पुत्र भारत भोपाल में ही कार्यरत हैं और शोभा जी के साथ ही रहते हैं।

 

पुरस्कार/सम्मान
• 1970 एवं 1984 : ( ग्राफ़िक एवं प्रिंट )  बॉम्बे आर्ट सोसायटी  द्वारा प्रथम पुरस्कार
• 1971 : महाराष्ट्र स्टेट आर्ट एग्जीविशन द्वारा प्रोफेशनल कैटेगरी में  ‘प्रथम पुरस्कार
• 2001 : राष्ट्रीय ललित कला अकादमी पुरस्कार, नई दिल्ली
• 2002 : कला कौस्तुभ सम्मान, कलावर्त उज्जैन द्वारा
• 2007 : शिखर सम्मान, मप्र शासन द्वारा

संदर्भ स्रोत – स्व संप्रेषित दस्तावेज़ एवं शोभा घारे  से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

Comments

Leave A reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *



बाधाओं से लेती रही टक्कर भावना टोकेकर
ज़िन्दगीनामा

बाधाओं से लेती रही टक्कर भावना टोकेकर

अब भावना सिर्फ एक खिलाड़ी नहीं रहीं, वे एक सोच, एक बदलाव की प्रतीक बन चुकी हैं।

मिट्टी से जीवन गढ़ती कलाकार - निधि चोपड़ा
ज़िन्दगीनामा

मिट्टी से जीवन गढ़ती कलाकार - निधि चोपड़ा

उस समय जब लड़कियाँ पारंपरिक रास्तों पर चलने की सोच के साथ आगे बढ़ रही थीं, निधि ने समाज की सीमाओं को चुनौती देते हुए कला...

स्नेहिल दीक्षित : सोशल मीडिया पर
ज़िन्दगीनामा

स्नेहिल दीक्षित : सोशल मीडिया पर , तहलका मचाने वाली 'भेरी क्यूट आंटी'    

इस क्षेत्र में शुरुआत आसान नहीं थी। उनके आस-पास जो थे, वे किसी न किसी लोग फ़िल्म स्कूल से प्रशिक्षित थे और हर मायने में उ...

डॉ. रश्मि झा - जो दवा और दुष्प्रभाव
ज़िन्दगीनामा

डॉ. रश्मि झा - जो दवा और दुष्प्रभाव , के बिना करती हैं लोगों का इलाज 

बस्तर के राजगुरु परिवार से ताल्लुक रखने के बावजूद डॉ. रश्मि ने अपनी पहचान वंश से नहीं, बल्कि अपने कर्म और सेवा से बनाई।

पूजा ओझा : लहरों पर फतह हासिल करने
ज़िन्दगीनामा

पूजा ओझा : लहरों पर फतह हासिल करने , वाली पहली दिव्यांग भारतीय खिलाड़ी

पूजा ओझा ऐसी खिलाड़ी हैं, जिन्होंने अपनी गरीबी और विकलांगता को अपने सपनों की राह में रुकावट नहीं बनने दिया।

मालवा की सांस्कृतिक धरोहर सहेज रहीं कृष्णा वर्मा
ज़िन्दगीनामा

मालवा की सांस्कृतिक धरोहर सहेज रहीं कृष्णा वर्मा

कृष्णा जी ने आज जो ख्याति अर्जित की है, उसके पीछे उनकी कठिन साधना और संघर्ष की लम्बी कहानी है। उनके जीवन का लंबा हिस्सा...