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विशिष्ट महिला
• मध्यप्रदेश की पहली लेखिका हैं जिन्हें पद्मश्री प्राप्त हुआ
• आम गाँव नदी के किनारे हुआ था जन्म
• बचपन में थीं बैडमिंटन खिलाड़ी
श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज मानवीय संवेदनाओं की मार्मिक अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती हैं। उनकी रचनाओं में महिलाओं और आदिवासियों की दयनीय स्थिति, गरीबी और शोषण की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। मेहरुन्निसा जी के पूर्वज करीब सौ साल पहले पेशावर से हिन्दुस्तान आए थे। दादा अब्दुल हबीब खान लाँजी तहसील के बहेला गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। पिता अब्दुल हमीद खान बालाघाट में डिप्टी कलेक्टर और अम्मी मुगलिया खानदान की बेटी शहजादी बेगम एक कुशल गृहिणी रहीं। श्रीमती परवेज के जन्म की कहानी भी दिलचस्प है। मां शहजादी बेगम प्रसव के लिए 10 दिसम्बर,1944 को बैलगाड़ी से गोंदिया (जो तत्कालीन सी.पी. एंड बरार का हिस्सा था) जा रही थीं। बीच रास्ते में ही आम गांव नदी के किनारे मेहरुन्निसा ने जन्म लिया। वहीं से तुरंत पालकी द्वारा उन्हें बहेला गांव लाया गया।
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माता-पिता के बीच तनावपूर्ण सम्बन्ध के कारण उनका बस्तर में गुजरा बचपन सुकून भरा नहीं कहा जा सकता। मधुकर सिंह के संपादन में प्रकाशित पुस्तक ‘गर्दिश के दिन में’ वह लिखती हैं – हर दिन, हर रात, हर बात पर घर में झगड़े होते, झगड़े भी ऐसे कि सारे मोहल्ले में आवाज़ गूंजती। और हम दो भाई-बहन घर के किसी सूने कमरे में, अँधेरे में, एक दूसरे से चिपटे हुए रोते रहते। जब से होश संभाला, अपने घर में शीशे के टुकड़े, खून और आंसू ही देखे हैं। घर के इन्हीं झगड़ों से दुखी नन्ही मेहरुन्निसा का ज़्यादातर समय तालाब के किनारे, बाग़-बगीचों या चपरासियों के बच्चों के संग खेलते बीतता। वह कभी दादी के घर रहती तो कभी नानी के। सबसे ज्यादा तकलीफदेह अनुभव था पिता की दूसरी शादी। जब वह नौवीं कक्षा में पढ़ती थीं, तभी उनकी शादी ऊर्दू के प्रसिद्ध शायर रऊफ़ परवेज़ से हो गई। इस शादी के बाद जीवन की पगडण्डी और भी मुश्किलों भर गई, जबकि यह शादी उनकी मर्ज़ी से ही हुई थी। सपने कांच की तरह झन्न से टूट गए, बाकी रह गईं उनकी किरचें। कट्टर मुस्लिम परिवार में सामंजस्य बिठाना दिन प्रतिदिन कठिन होता चला गया। इसके अलावा शादी के दस वर्षों में वह किसी औलाद को जन्म न सकीं और हालात बिगड़ते चले गए। आखिरकार वह शादी टूट गई। वैसे उन्होंने शादी के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी रखी थी और बी.ए. की उपाधि प्राप्त कर ली।
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उसके बाद मेहरुन्निसा जी ने बस्तर कॉलेज से हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की और तभी से ही वे निरंतर उपन्यास एवं लघु कहानियां लिख रही है। उनकी पहली कहानी 1963 में हिन्दी साप्ताहिक धर्मयुग में प्रकाशित हुई। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर की अनेक पुरस्कारों से सम्मानित मेहरुन्निसा जी को भारत सरकार ने उनके असाधारण लेखन और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए 2005 में पद्मश्री अलंकरण से विभूषित किया। इस तरह पद्मश्री सम्मान पाने वाली मध्यप्रदेश की वे पहली लेखिका बन गईं।
सन् 1978 में उनकी मुलाकात भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी और बस्तर के कलेक्टर भागीरथ प्रसाद से हुई। दोनों एक-दूसरे के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए, कि परिणय सूत्र में बंध गए। विवाह के बाद उन्होंने दो बच्चों को जन्म दिया । लेकिन उनका बेटा समर 17 वर्ष की अल्प आयु में ही चल बसा। बेटे की आखिरी दिनों में मेहरुन्निसा जी के मन में मची सम्पूर्ण उथल-पुथल और स्मृतियों को उन्होंने ‘समरांगण’ उपन्यास में चित्रित किया है। वे उनकी साहित्यिक पत्रिका का नाम भी समरलोक है। उनकी बेटी सिमाला प्रसाद राज्य पुलिस सेवा की अधिकारी हैं।
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15 से अधिक साहित्यिक कृतियों की लेखिका मेहरुन्निसा परवेज को ‘कोरजा’ उपन्यास पर वर्ष 1980 में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा अखिल भारतीय महाराजा वीरसिंह देव पुरस्कार प्रदान किया गया है। इसी उपन्यास पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ ने भी इन्हें सम्मानित किया । ‘आंखों की दहलीज’ ‘अकेला पलाश’, ‘पासंग’, ‘समरांगण’, ‘समर’, ‘लाल गुलाब’, ‘उसका घर’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। अतीत के टुकड़ों को जोडक़र उन्होंने बस्तर की कहानियां लिखीं। रतलाम के पास बसे बांछड़ा समुदाय की महिलाओं की वेदना पर उन्होंने शोध किया है। ‘म्हारा गोरी सी हथेली छाला पड़ गया म्हारोजी’ नामक पुस्तक में स्त्रियों की दशा का चित्रण किया है।
‘आदम और हव्वा’, ‘गलत पुरुष’ ‘टहनियों पर धूप’, ‘फाल्गुनी’ एवं ‘अम्मी’ उनके कहानी संग्रह है। उनकी कहानियां धर्मयुग, हिन्दुस्तान, सारिका आदि राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई है। कुछ कहानियां मध्य प्रदेश, दिल्ली, आगरा, केरल के शिक्षा मंडल विश्वविद्यालय द्वारा पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं। उनकी प्राय: सभी रचनाएं भारतीय भाषाओं में अनुदित हुई हैं। 1982-83 में उनके उपन्यास ‘उसका घर’, ‘आंखों की देहलीज’ कन्नड़ भाषा में प्रकाशित हुई है। पंजाब, मेरठ, जयपुर विश्वविद्यालयों में इनकी रचनाओं पर शोध कार्य हुआ है। सन् 1995 में उनकी कहानियों ‘झूठन’, ‘सोने का बेसर’ और ‘फाल्गुनी’ पर दिल्ली दूरदर्शन ने धारावाहिक का निर्माण किया है। इसके अलावा मेहरुन्निसा जी स्वयं वेश्यावृत्ति पर ‘लाजो बिटिया’ का 1997 में एवं निर्माण किया है। वीरांगना रानी अवंतीबाई’ पर 1998 में धारावाहिक का निर्माण किया। वे सन् 1974 में बाल एवं परिवार कल्याण परियोजना, जिला बस्तर की अध्यक्ष रही हैं। आकाशवाणी सलाहकार समिति की सदस्य भी रहीं। 1977 में बस्तर जिले की ओर से समाज कल्याण परिषद मध्य प्रदेश की सदस्य नियुक्त हुईं तथा जिले की महिला कांग्रेस की अध्यक्ष रही हैं।
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2003 में चरारे शरीफ की घटना पर मध्यप्रदेश शासन ने उन्हें शांति पीठ मिशन में शामिल किया। 1975-78 तक श्रीमती मेहरुन्निसा परवेज राज्य बैंकिंग भर्ती बोर्ड की सदस्य रही हैं। 1993 से 1996 तक वे मध्यप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग की सदस्य तथा महू में अम्बेडकर शोध संस्थान की कार्यकारिणी की सदस्य रही हैं। वे महात्मा गांधी ट्रस्ट की न्यासी सदस्य भी हैं। उनकी रचनाओं के लिए उन्हें देश और विदेश में अनेक पुरस्कार व सम्मान मिले और उन्होंने लगभग पूरे यूरोप और रूस की साहित्यिक यात्राएं की हैं। आज भी मेहरुन्निसा जी बहुत सक्रिय हैं। उनकी रुचि लेखन के अलावा छोटी-छोटी फिल्में बनाने में हैं। बचपन में बेडमिंटन खिलाड़ी रहीं मेहरुन्निसा जी खेल में भी रुचि लेती हैं।
उपलब्धियां
- 2005 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री अलंकरण।
- 2003 में श्रेष्ठ पत्रिका समर के सम्पादन/ प्रकाशन के लिए रामेश्वर गुरु पुरस्कार ।
- 1999 में राष्ट्रभाषा स्वर्ण जयंती के अवसर पर हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए लंदन में विश्व हिन्दी सम्मान ।
- 1995 में महात्मा गांधी के 125वीं जयंती पर रायपुर में सम्मानित।
- 1995 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण अलंकरण।
- 1980 में कोरजा उपन्यास पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं मध्यप्रदेश साहित्य परिषद द्वारा अखिल भारतीय महाराजा वीरसिंह देव पुरस्कार।
संदर्भ स्रोत – मध्यप्रदेश महिला संदर्भ
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