छाया : स्व संप्रेषित
बाल साहित्य में चर्चित रचनाकार गिरिजा कुलश्रेष्ठ का जन्म ग्राम मामचौन कलां जिला मुरैना में 1 जनवरी 1959 को हुआ। उनके पिता श्री बाबूलाल श्रीवास्तव शिक्षक थे और माँ श्रीमती कुसुम श्रीवास्तव गृहिणी थीं। दो भाइयों की सबसे बड़ी बहन गिरिजा को छोटे भाई के जन्म के बाद तिलोंजरी गाँव में नानी के पास भेज दिया गया। पहली और दूसरी कक्षा की पढ़ाई वहीँ हुई, फिर पाँचवी कक्षा तक बड़बारी में हुई जहाँ पिताजी शिक्षक थे। आगे की पढ़ाई की समस्या थी क्योंकि ज्यादातर गाँवों में प्राइमरी स्कूल ही थे। मामचौन में एक संस्था द्वारा संचालित मिडिल स्कूल से छठवीं-सातवीं कक्षाएं पास कीं। इसके बाद वह स्कूल बन्द हो गया तो आठवीं की पढ़ाई कैलारस कस्बे में पिता जी के एक मित्र के घर रहकर उन्होंने पूरी की।
आठवीं के आगे की पढ़ाई जारी रखना काफी मुश्किल था क्योंकि हायर सेकेन्डरी स्कूल या तो कैलारस में था या पहाड़गढ़ में- वह भी केवल लड़कों का लेकिन उनके पिताजी ने भी ठान लिया था कि वे अपनी बेटी को किस भी तरह पढ़ाएंगे। इसलिये उन्होंने गिरिजा को पहाड़गढ़ के स्कूल में मुझे नौवीं कक्षा में भर्ती करा दिया। तिलोंजरी से पहाड़गढ़ अपेक्षाक़त पास था। गाँव के कुछ लड़के भी पैदल पढ़ने जाया करते थे। गिरिजा भी उनके साथ ही जाने लगी थी पर जल्दी ही उन लड़कों ने उन्हें साथ ले जाने से मना कर दिया, इसलिये उनके पिताजी ने उन्हें अपनी साइकिल दे दी थी।
पिताजी ने गिरिजा के दिल दिमाग में पढ़ने की अनिवार्यता इस तरह भर दी थी कि उन्हें न रास्ते की मुश्किलें दिखती थीं न ही अपने सस्ते साधारण कपड़े। लोग हँसते थे कि देखो मास्टर अपनी लड़की को ‘इंदिरा गांधी’ बनाने चला है। उन दिनों पूरे ग्रामीण इलाके में ग्यारहवीं पास करने वाली लड़की गिरिजा ही थीं। रूढ़िवादी गाँव में रहते हुए भी गिरिजा पढ़ पायीं क्योंकि उनके पिता स्वयं एक निष्ठावान् शिक्षक थे और शिक्षा का महत्त्व जानते थे। लिखने की शुरुआत 1975 में ग्यारहवीं के बाद हुई । हालाँकि जब वे पढ़ ही रही थीं, उनका रिश्ता तय कर दिया गया था। गिरिजा बड़ी मायूसी से कहती हैं, "न मालूम क्यों काकाजी (पिताजी),जो समाज और व्यवस्थाओं से लड़ते हुए मुझे स्नातक, स्नातकोत्तर और पी.एच.डी. कराने का सपना देखा करते थे, मेरे विवाह के लिये कैसे तैयार हो गए, जबकि मैं मानसिक रूप से बिल्कुल तैयार न थी।"
उन्ही दिनों गिरिजाजी ने अधखिला फूल, दहेज और समाज को बदल डालो शीर्षक से तीन कहानियाँ, एक गीत –काँटों को मैं अपना लूँ या कलियों से प्यार करूँ और एक बाल उपन्यास ‘रानी नील गगन की’ लिखा था (जिसका एकमात्र पाठक व प्रशंसक उनका छोटा भाई है) उपन्यास व कहानियाँ अब नहीं हैं पर गीत बच गया।
वर्ष 1976 में गिरिजा का विवाह ग्वालियर निवासी दिनेश कुलश्रेष्ठ से हो गया। संयोगवश दोनों ही विवाह के दो महीने के बाद मप्र शिक्षक चयन परीक्षा में सम्मिलित हुए और चयनित हुए। विवाह के छह माह बाद जून 1976 में मैंने शिक्षक-चयन परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद दिनेशजी की नियुक्ति ग्वालियर में और गिरिजाजी की नियुक्ति तिलोंजरी गाँव, मुरैना में हुई। बुनियादी प्रशिक्षण के दौरान उन्हें माध्यमिक कक्षाओं के लिये दस पाठ तैयार करने का कार्य मिला था। उस समय उन्होंने तीन कहानियाँ, दो निबन्ध, तीन कविताएं, एक व्यंग्य और एक एकांकी खुद लिखकर दस पाठों का पाठ्यक्रम तैयार किया था जिसके लिये उन्हें खूब शाबासी मिली।
वे कहती हैं, ‘‘उन दिनों सोचा ही नहीं था कि मैं साहित्य-सृजन की दिशा में कुछ कर रही हूँ तो रचनाओं को सुरक्षित रखना चाहिये। जुलाई सन् 1977 में उनकी पोस्टिंग उसी स्कूल में हो गई जहाँ उन्होंने खुद ककहरा सीखे थे। उन्हें उनके प्रथम गुरु पलिया जी ने ही कराया।
सन् 1977 से 1987 तक के दस वर्ष जिन्दगी के बहुत संघर्षमय, व्यस्त और सक्रिय रहे। तीनों बच्चों के जन्म और लालन पालन के बीच ही, माँ के सहयोग और स्वाध्याय से उन्होंने बी.ए. और एम. ए. की परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। एक खण्डकाव्य ‘ध्रुवगाथा’ लगभग पूरा लिख लिया और सात आठ बड़ी कहानियाँ भी लिख लीं। यह वह समय था जब उस सुदूर गाँव में कोई समाचार पत्र भी नहीं पहुँच पाता था। किसी प्रकाशन या पत्रिका या किसी साहित्यकार से परिचय नहीं था। जितना पाठ्यक्रम में था वही पढ़ लिया था। पढ़ने का शौक था पर किताबें नहीं थीं। पढ़ने के नाम पर पिताजी के सहेजे गुलशननन्दा के कुछ उपन्यास और माँ की गीताप्रेस की कुछ किताबें और अखण्ड-ज्योति के अंक ही थे। ऐसे में स्कूल में बच्चों की पत्रिका चकमक का आना, किसी उपहार कम नहीं था। यह सन् 1986 की बात है। उन दिनों वे प्राइमरी स्कूल में पहली -दूसरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाया करती थी और उनकी शरारतों पर एक कविता लिखी थी –‘मेरी शाला चिड़ियाघर है ..’ गिरिजाजी ने वह कविता चकमक में भेज दिया। चार पांच दिन बाद ही अन्तर्देशीय पत्र द्वारा कविता की स्वीकृति की सूचना मिल गयी। पत्र लिखा था श्री राजेश उत्साही जी ने। वे उस समय चकमक के सहायक सम्पादक थे। वह पहला स्वीकृति पत्र मानो अँधेरे कमरे में किरण का आना था। 1987 का शायद जुलाई अंक था, उसमें यह पहली रचना प्रकाशित होकर आई। उत्साहित होकर उन्होंने दो कहानियाँ और लिखीं। एक अपनी गाय के बछड़े गबरू पर आधारित इन्तजार और दूसरी बाजरे की रखवाली करते बच्चे पर आधारित छोटी चिड़िया। ये दोनों कहानियाँ चकमक के नवम्बर 88 के अंक में आईं। इसके बाद भैया का दोस्त, बिल्लू का बस्ता ..कहानियों का सिलसिला चल पड़ा।. कहने की जरूरत नहीं कि चकमक उनके बाल-साहित्य सृजन का आधार बनी।
गिरिजाजी कहती हैं, मेरी सभी कहानियाँ मेरे आसपास की हैं। गेंदा के पौधे को कहीं से उखाड़कर रोपने से पहले उसका मुरझाना फिर खिल उठना देखा तो ‘मिट्टी की बात’ कहानी बनी।. क्यारी में पौधों के बीच पपीते के पौधे को बढ़ते हुए देखा तो ‘मुझे धूप चाहिये’ कहानी बनी। इसी तरह पेड़ किसका है, भैया का दोस्त, इन्तज़ार’, लड़ाकू, ‘मीकू फंसा पिंजरे में, ‘पूसी की वापसी ‘…आदि अनेक कहानियाँ मेरे आसपास की ही हैं”।’’ उस समय सभी कहानियाँ व कविताएं उन्होंने केवल चकमक को ध्यान में रखकर ही लिखती थीं।
गिरिजा जी का मानना है कि प्रकाशन से लेखन का गहरा सम्बन्ध है। पाठकीय प्रतिक्रियाएं लेखन के लिये बड़ी प्रेरणाएं होती है।” सन् 2000 व 2002 में उनकी दो कहानियाँ क्रमशः ‘खूबसूरत’ और ‘क्यों लगती है पैरों में धूल?, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट से पुरस्कृत हुईं। सन् 2001 किताबघर, नई दिल्ली से ‘गुलमोहर फिर खिलेगा’ में उनकी कहानी ‘काल कोठरी प्रकाशित हुई। इस कहानी को ‘आर्य सम्मान’ प्राप्त हुआ। पुरस्कार के लिए कहानी का चयन मूर्धन्य साहित्यकार कमलेश्वर ने किया था इसलिए गिरिजाजी के लिए यह एक बड़ी बात थी। इसके बाद से उनका रुझान फिर से वयस्कों के लिए लिखी जाने वाली कहानियों की ओर हुआ। 2011 में फिर उनकी एक कहानी ‘पार्ट फाइनल’ आर्य सम्मान के लिए चुनी गयी।
जिन्दगी अपने संघर्ष के साथ आगे बढ़ती रही, लेकिन कलम कभी नहीं रुकी । सेवानिवृत्ति के बाद वर्तमान में वे ग्वालियर में निवास कर रही हैं। उनकी लगभग पचास कविताएं चकमक, बालवाटिका, हिन्दुस्तान, बाल साहित्य की धरती आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं और लगभग साठ लघुकथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें से कुछ पुरस्कृत हैं। एक कहानी उत्तराखण्ड के रा. शि . द्वारा कक्षा 7 के पाठ्यक्रम में शामिल ।
उनके तीन पुत्रों में सबसे बड़े प्रशांत कुलश्रेष्ठ वैज्ञानिक हैं और इसरो से जुड़े हुए हैं। चंद्रयान-3 के अभियन से भी वे जुड़े थे। दूसरे पुत्र इंजीनियर हैं और आस्ट्रेलिया में रहते हैं जबकि तीसरे इंजीनियर पुत्र बंगलौर में निवास करते हैं ।
प्रकाशित रचनाएं
• छोटी सी बात-राज्य संसाधन केंद्र, 2002
• नई सुबह –रूम टू रीड, 2007
• बात बन गयी-राज्य संसाधन केंद्र, भोपाल -2008
• मोरपंख –नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली 2011
• ध्रुवगाथा –खण्डकाव्य, जेएमडी प्रकाशन, नईदिल्ली-2012
• चुग्गा-रूम टू रीड, 2013
• अपनी खिड़की से –बाल कहानी, प्रगतिशील प्रकाशन, नई दिल्ली-2012
• मुझे धूप चाहिये—बाल कहानी संग्रह- एकलव्य प्रकाशन, भोपाल
• कुछ ठहर लें और मेरी जिन्दगी – गीत संग्रह, ज्योतिपर्व प्रकाशन, नई दिल्ली -2014
• अजनबी शहर में –काव्य संग्रह, राजेश्वरी प्रकाशन भोपाल -2016
• क़र्ज़ा-वसूली –कहानी संग्रह, बोधि प्रकाशन, 2018
• बातूनी बच्चे, राज्य शिक्षा केंद्र द्वारा चयनित और रूम टू रीड से प्रकाशित-2023
• बाल उपन्यास किट्टू एवं गिलहरी पर काम जारी
पुरस्कार/सम्मान
• किताबघर, नई दिल्ली द्वारा कहानी ‘काल कोठरी’ पर ‘आर्य सम्मान’-2001
• कादम्बरी संस्था, जबलपुर द्वारा कहानी ‘कर्ज वसूली’ के लिए कादंबरी सम्मान-2019
• मध्यप्रदेश लेखक संघ, भोपाल द्वारा कमला चौबे लेखिका सम्मान-2020
संदर्भ स्रोत: स्व संप्रेषित
© मीडियाटिक
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