करुणा शुक्ला: प्रधानमंत्री से था रिश्ता, लेकिन राजनीति में पहचान खुद बनाई

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करुणा शुक्ला: प्रधानमंत्री से था रिश्ता, लेकिन राजनीति में पहचान खुद बनाई

छाया: करुणा शुक्ल के एफ़बी अकाउंट से

राजनीति-प्रमुख हस्तियाँ

राजनीति में विगत 40 वर्षों से सक्रिय करुणा शुक्ला  (karuna-shukla) का जन्म 1 अगस्त 1950 को को शिंदे की छावनी, ग्वालियर में हुआ। उनके पिता पं. अवध बिहारी वाजपेयी (Pt. Avadh Bihari Vajpayee) स्वास्थ्य विभाग, मप्र में कार्यरत थे एवं माता  कमला वाजपेयी (Kamla Vajpayee) गृहिणी थीं। कमला जी ने उस दौर में आठवीं कक्षा में स्वर्ण पदक हासिल किया था। करुणा जी पांच भाई बहनों में तीसरी हैं, उनका बचपन भोपाल में ही व्यतीत हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पुराने भोपाल में स्थित बाबे अली मिडिल स्कूल में हुई। वर्ष 1966 में सुल्तानिया गर्ल्स स्कूल से हायर सेकेण्डरी करने के बाद उन्होंने महारानी लक्ष्मी बाई गर्ल्स कॉलेज से स्नातक एवं हमीदिया कॉलेज से समाजशास्त्र विषय लेकर वर्ष 1971 में स्नातकोत्तर किया।

करुणा जी के अनुसार उनके परिवार में अनुशासन पर अत्यधिक ज़ोर दिया जाता था। सुबह साढ़े पांच बजे उठने से लेकर सोने तक हर काम के लिए समय की पाबंदी थी। इसलिए बचपन की शैतानियों के लिए बहुत कम गुंजाइश थी। यद्यपि इसी अनुशासन के कारण स्कूल में आयोजित वाद-विवाद एवं भाषण प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत होने का अवसर भी मिला। कई बार ऐसा भी होता कि वे अपने ही छोटे भाई की प्रतिद्वंदी बन जातीं, नतीजतन प्रथम एवं द्वितीय दोनों पुरस्कार एक ही घर में आता। इनकी दोनों बड़ी बहनें भी वाद-विवाद प्रतियोगिताएं में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेतीं थीं। यह क्रम स्कूल और कॉलेज तक चलता रहा। इन प्रतियोगिताओं की वजह से उन दिनों उन्हें ‘वाजपेयी सिस्टर्स’ के नाम से बुलाया जाता था। वह सीखने और खुद को गढ़ने का दौर था।

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वर्ष 1970 में जब वे एम.ए. प्रीवियस में थी, उनका विवाह छत्तीसगढ़ के डॉ. माधव शुक्ल के साथ हो गया । वे सरकारी डॉक्टर  थे। घर में दो बच्चों के अलावा उनके जेठ के चार बच्चे एवं एक अन्य रिश्तेदार का बच्चा उनके साथ थे यानी कुल सात बच्चों को वे संभाल रही थीं। महीनों घर से बाहर निकलने का अवसर नहीं मिलता था। डॉक्टर साहब की पोस्टिंग बलौदा बाज़ार के सिटी हॉस्पिटल में थी। उस समय महिला चिकित्सकों की बहुत कमी थी। प्रसूति आदि पुरुष चिकित्सक ही संभालते थे। डॉ. माधव शुक्ल ने एक परिचिता लेडी डॉक्टर को- जो रायपुर में रहती थीं,  हफ़्ते में तीन दिन बलौदा बाज़ार में अपनी सेवाएँ देने के लिए राजी कर लिया। तीन दिनों तक वे उनके घर ही रुकतीं। इस नई व्यवस्था से सिटी हॉस्पिटल में आने वाली महिलाओं को काफी राहत मिली परन्तु कुछ लोगों को यह बात काफी नागवार गुजरी।

उस क्षेत्र के तत्कालीन विधायक ने उनके घर की बैठक में यह तंज किया कि क्या उस लेडी डॉक्टर की तनख्वाह का लाभ डॉक्टर साहब उठाते हैं। यह बात उनको चुभ गई। उन्होंने करुणा जी से कहा कि या तो मैं डॉक्टरी छोड़कर राजनीति में जाता हूँ या तुम जाओ। यह अचंभित करने वाली बात थी। करुणा जी ने जब यह देखा कि उनके पति मज़ाक नहीं कर रहे और वे वास्तव में गंभीर हैं तो काफ़ी सोच-विचार के बाद करुणाजी के राजनीति में आने पर सहमति बनी, ताकि परिवार का एक सदस्य घर चलाने के लिए उपार्जन भी करता रहे। तब राजनीति के द्वार तक सामाजिक गलियारों से गुजरते हुए ही पहुंचा जा सकता था। उस समय स्थानीय आयोजनों में डॉ. माधव शुक्ल को लोग मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया करते थे। अब करुणा जी भी पति के साथ ऐसे आयोजनों में जाने लगीं।

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वे कहती हैं, “वक्तृत्व कौशल वाजपेयी परिवार को विरासत में प्राप्त है।” इस कौशल की वजह से उन्हें लोकप्रिय होने में भी देर नहीं लगी। वर्ष 1980 में जनता पार्टी के विघटन के बाद भारतीय जनता पार्टी का अभ्युदय हुआ, उसके एक माह के बाद ही करुणा जी उसकी सदस्य बन गईं। 1980 से 1992 तकएक साधारण कार्यकर्ता के रूप में वार्ड से ब्लाक पुनः जिला स्तर तक की राजनीति में अपनी मौजूदगी दर्ज करते हुए  वर्ष 1993 में उन्हें विधानसभा के लिए टिकट मिला वह भी बड़ी कठिनाइयों के बाद। उस समय छत्तीसगढ़ अलग राज्य नहीं बना था और अटल जी का नाम देश के शीर्ष नेताओं में शुमार था ही।

वाजपेयी परिवार से अनूप मिश्र (अटलजी के भांजे) पहले से ही राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बना चुके थे। जब टिकट के लिए नाम तय किये जा रहे थे तो अनूप मिश्र के नाम पर निर्विरोध सहमति बनी। लेकिन जैसे ही  बलौदा बाज़ार विधानसभा क्षेत्र से करुणा शुक्ल के नाम का प्रस्ताव आया तो  अटल जी ने हाथ उठाकर कहा –“हमारे परिवार से एक  को टिकट दिया जा चुका है, दूसरे नाम पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है।”  भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष आडवाणी जी ने उन्हें समझाया कि करुणा जी को जिस क्षेत्र से टिकट दिया जा रहा है वहां से वे पहली महिला हैं और उनके नाम की अनुशंसा गोविन्द सारंग (तत्कालीन संगठन मंत्री) ने की है।

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करुणा जी खुद को राजनीति में लाने का श्रेय स्व. कुशाभाऊ ठाकरे (Kushabhau Thackeray) को देती हैं। वे कहती हैं –अटल जी की भतीजी होने के नाते आम धारणा यह बनी कि मुझे सब कुछ अपने आप प्राप्त हो गया। सच्चाई यह है कि अटल जी अपने परिवार को बढ़ावा देने के लिए अलग से कुछ करने के बारे में सोचते भी नहीं थे। लेकिन पार्टी ने कभी भरोसा नहीं किया। यहाँ तक कि बैठकों या सभाओं में कोई ‘अटल जी की भतीजी’ उच्चारित भी कर दे तो पार्टी के लोगों को नागवार गुजरता था। वे कहती हैं कि अटलजी देश के नेता थे, इसलिए मेरे भी नेता थे।

राजनीतिक जीवन में लाभ पहुंचाने की चेष्टा न तो उन्होंने की न हमने ऐसी कभी मांग रखी। यद्यपि कभी-कभी सही-गलत समझाते ज़रुर थे। उदाहरण के लिए उन्हें सांसदों का सत्र के दौरान वेल में जाकर बोलना बहुत बुरा लगता था। एक बार करुणाजी ने भी ऐसा किया था तो उन्होंने बुलाकर समझाया था कि ऐसा करना बहुत ही गलत है, सदन में अपने स्थान से खड़े होकर ही अपनी बात रखनी चाहिए। सांसदों को अपनी गरिमा का ध्यान रखना चाहिए और अपनी भाषा और व्यवहार को संतुलित रखना चाहिए। इसके बाद करुणा जी ने सदैव इस सीख का पालन किया।

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1993 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की वे अकेली महिला विधायक छत्तीसगढ़ से चुनी गईं थीं, जबकि कांग्रेस से दो महिलाएं – गीता देवी सिंह और  रश्मि देवी निर्वाचित हुई थीं। उन्हें वर्ष 1996-97 का पंडित कुंजीलाल दुबे उत्कृष्ट विधायक पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। परन्तु वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में उन्हें बहुत ही कम अंतर से पराजय का सामना करना पड़ा। तथापि कार्यकर्ता के रूप में वे परिश्रम करती रहीं।

वर्ष 2004 में उन्हें जांजगीर संसदीय क्षेत्र से लोकसभा (Lok Sabha from Janjgir Parliamentary Constituency) के लिए टिकट मिला, इस चुनाव में उनके प्रतिद्वंदी कांग्रेस प्रत्याशी चरणदास महंत (Charandas Mahant) थे। इस आम चुनाव में मिली जीत ने करुणा जी के हौसले को और भी बुलंद कर दिया। लोकसभा में एक तरफ उनकी यह पहली पारी की शुरुआत थी, दूसरी तरफ संसद में यही साल अटल जी का आखिरी साल था। वर्ष 2009 में लोकसभा सीट बदल जाने के कारण वे जांजगीर के बजाय कोरबा से चुनाव लड़ीं। इस बार अपने चिर प्रतिद्वंदी चरणदास महंत से वे पराजित हुईं। रोचक तथ्य यह है कि 2004 के चुनाव में श्री महंत उनसे 12 हज़ार मतों से पराजित हुए थे  और 2009 में उतने ही मतों से वे जीत गए। इस बीच 2001 से 2003 तक करुणा जी भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष (National Vice President) रहीं और साथ ही ओडिशा, झारखण्ड एवं उत्तरप्रदेश की सह प्रभारी भी। पुनः 2004 से 2006 तक भाजपा के महिला मोर्चे की राष्ट्रीय अध्यक्ष (National President of BJP Mahila Morcha) रहीं।

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वे भाजपा के साथ अपना संग-साथ सफल होते हुए भी विविध संघर्षों से परिपूर्ण मानती हैं, जिसकी वजह से वर्ष 2013 में वे कांग्रेस में शामिल हो गईं, एवं 2014 के लोकसभा चुनाव में बिलासपुर संसदीय क्षेत्र से लड़ीं, जिसमें वे पराजित रहीं। इसी प्रकार 2018 में वे रमण सिंह के विरुद्ध राजनांदगाँव से विधानसभा चुनाव लड़ीं परन्तु इस बार भी पराजय का सामना करना पड़ा।

करुणा जी के राजनीतिक करियर में  एक रोचक संयोग दिखाई देता है। जब तक वे भाजपा में रहीं तब तक पार्टी विपक्ष में ही रही, उनके कांग्रेस में आने के बाद फिर राजनीतिक परिदृश्य में परिवर्तन हुआ और कांग्रेस विपक्ष में आ गई। यद्यपि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सत्ता में आने में सफल रही।

उनके दो बच्चे हैं, पुत्र कलकत्ते में एवं पुत्री बिलासपुर में सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। 26 अप्रैल 2021 की रात रायपुर में कोरोना संक्रमण के कारण उनका निधन हो गया।

संदर्भ स्रोत: करुणा जी से बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

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