अनामिका तिवारी : जिन्होंने फसलों को

blog-img

अनामिका तिवारी : जिन्होंने फसलों को
बीमारी से लड़ने की ताक़त दी


 छाया: डॉ. अनामिका तिवारी के फेसबुक अकाउंट से 

• सारिका ठाकुर

कृषि विज्ञान एक और ऐसा क्षेत्र है जिसमें पुरुषों का लगभग एकाधिकार रहा आया है, लेकिन जबलपुर की अनामिका तिवारी ने इस क्षेत्र में अपने झंडे गाड़ दिए हैं। वे न केवल पौध रोग की विशेषज्ञ मानी जाती हैं बल्कि कई पौधों की नई किस्म तैयार करने के लिए भी उन्हें जाना जाता है। नाना प्रकार के बैक्टीरिया, वायरस और फफूंद से पौधों में पनपने वाले रोगों का सामना अक्सर किसानों को करना पड़ता है। कृषि वैज्ञानिक इन्हीं समस्याओं से निपटने के लिए नए-नए तरीके ईजाद करते रहते हैं।

अनामिका जी का जन्म 11 सितंबर 1945 को जबलपुर में हुआ था। उनके पिता स्व. रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ इन्डियन प्रेस पब्लिकेशन की जबलपुर शाखा में मैनेजर होने के अलावा खुद भी जाने-माने साहित्यकार थे, जबकि माँ श्रीमती रमा देवी कुशल गृहणी थीं। एक भाई और छह बहनों में अनामिका जी सबसे छोटी थीं। उनकी स्कूली शिक्षा जबलपुर के सेंट नॉर्बर्ट स्कूल में हुई। इसी स्कूल से उन्होंने 1962 में हायर सेकेंडरी पास किया। बीएससी के लिए पहले उनका नामांकन होम साइंस कॉलेज, जबलपुर में हुआ, लेकिन वहां से फ़र्स्ट ईयर करने के बाद वे महाकौशल विज्ञान महाविद्यालय आ गईं। वे डॉक्टर बनना चाहती थीं, मेडिकल कॉलेज में दाखिला भी हो गया लेकिन उस समय भी डाक्टरी की पढ़ाई बहुत महंगी थी सो ये ख़याल उन्हें छोड़ना पड़ा। दूसरे विकल्प के तौर पर उन्होंने वनस्पति विज्ञान को अपना लिया। स्नातकोत्तर करते समय ही विशेष पत्र के रूप में उनका विषय था - पादप रोग विज्ञान। पढ़ाई ख़त्म होते ही 1970 में उनकी शादी श्री सतीश तिवारी से हो गयी। सतीशजी जबलपुर आकाशवाणी केंद्र में उद्घोषक थे।

अब तक अनामिका के लिए कृषि विज्ञान मात्र पढ़ाई का रुचिकर विषय था। आगे चलकर वे इसी विषय की अनुसन्धानकर्ता बन जाएंगी, यह उन्हें भी पता नहीं था। पढ़ाई के अलावा उनकी रूचि संगीत और साहित्य में भी था। उनकी माँ को संगीत से ख़ास लगाव था, शादी से पहले उन्होंने सितार बजाने का प्रशिक्षण भी कुछ समय के लिए लिया था। शायद यही अधूरी ख्वाहिश अनामिका जी के भीतर धीरे-धीरे आकार लेने लगी। उन्होंने भातखंडे संगीत महाविद्यालय से कंठ संगीत में मध्यमा किया। आगे चलकर आकाशवाणी केंद्र, इंदौर की सुगम संगीत गायिका बनीं और कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपनी प्रस्तुतियां भी दीं। साहित्य के क्षेत्र में भी इनकी कई उपलब्धियां रहीं। साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग और कादम्बिनी जैसी मशहूर पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ प्रकाशित हुई।

शादी के अगले ही साल जवाहर लाल नेहरु कृषि महाविद्यालय (उस समय यह एशिया का सबसे बड़ा कृषि विश्वविद्यालय माना जाता था।) के पौध रोग विज्ञान विभाग लिए वरिष्ठ अनुसंधान सहायक के पद पर उनकी नियुक्ति हो गई। अनुसंधान, संगीत और गृहस्थी के त्रिकोण में व्यस्त रहते हुए ‘लेखन’ के लिए उन्हें समय नहीं मिल पाया। हालांकि अपने पूरे कार्यकाल में अनामिका जी सफलता की नई-नई इबारत लिखती रहीं। अपनी नौकरी के साथ ही  उन्होंने मूंग में होने वाले रोगों पर पीएचडी भी कर डाली। वर्ष 2007 में विभागाध्यक्ष के पद से अनामिका सेवानिवृत्त हो गईं। कृषि वैज्ञानिक के तौर पर अनामिका जी का काम मुख्य रूप से कपास, मटर और मूंग के पौधों में होने वाले रोगों पर केन्द्रित रहा। उनके द्वारा की गई खोज से किसानों को आज भी मदद मिल रही है।

अनामिका जी मप्र की पहली महिला पौध रोग वैज्ञानिक है। जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में 1971 से 1976 तक अकादमिक क्षेत्र में उनके अलावा कोई दूसरी महिला नहीं पहुंची। एक लम्बे अरसे तक बैठकों, सेमिनारों और सिम्पोजियम के आयोजनों में वह अकेली महिला के रूप में ही शामिल होती रहीं। उनके सहकर्मियों को लगता था वे कीचड़ से भरे खेतों, गाँव के दौरों, धूल, मिट्टी के बीच काम नहीं कर पाएंगी। सभी को लग रहा था वे जल्द ही नौकरी छोड़कर चली जाएंगी। लेकिन मई-जून में कपास, मूंग और क्वांर मटर की बोआई के समय न तो वे तपती धूप से डरीं, न ही त्वचा को सांवला और खुरदुरा होते देख घबराई। बोआई से लेकर कटाई तक सभी मौको पर वे खेतों पर किसानों के साथ हाज़िर रहतीं। उन्होंने खुद कई बार सर पर साड़ी लपेटकर बोआई भी की और भारी स्प्रयेर उठाकर दवा का छिड़काव भी किया। नतीजतन विरोध करने वाले और साजिश रचने वालों की भी कमी नहीं रही। अनामिका जी पर कई बार लांछन लगाए गए, उन्हें परेशान करने की कोशिश की गई लेकिन इन हालात में भी वे अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकीं।

अनामिका जी के कुछ महत्वपूर्ण अनुसन्धान

•  कपास की कई प्रजातियाँ होती हैं जो अक्सर विभिन्न रोगों की चपेट में आकर समय से पहले ही नष्ट हो जाती हैं। अनामिका जी ने कपास की एक ऐसी प्रजाति विकसित की जिस पर किसी रोग का प्रभाव न पड़े। इस नई किस्म को विश्वविद्यालय के नाम से जोड़ते हुए ‘जवाहर कपास’ नाम दिया गया।

•  वर्ष 1987 में मटर जेपी 169 (बटरी मटर) अनुसन्धान के क्रम में सभी सफल प्रयोगों को विश्वविद्यालय के नाम के साथ अंक देकर नामित करने का नियम है। इस अर्थ में मटर जेपी (जे: जवाहर पी: मटर) 169 : मटर का यह किस्म विषैले तिवड़े की जगह बुआई के लिए उपयुक्त किस्म के तौर पर केन्द्रीय कृषि मंत्रालय की एक परियोजना के तहत विकसित की गई थी।

•  वर्ष 1992 में मटर जेपी 885(दलहनी मटर): माना जाता है कि फसल की विकसित की गई कोई भी किस्म 15 साल बाद खराब होने लगती है, इसलिए 885 का अनुमोदन भी 15 सालों के लिए ही किया गया था। लेकिन अपनी गुणवत्ता और विश्वसनीयता के कारण आज भी किसान यह मटर सफलतापूर्वक उगा रहे हैं।

•  वर्ष 1996 में मटर जेपी 4 (सब्जी मटर): यह शीघ्र पकने वाली प्रजाति है और पहाड़ी इलाकों जैसे मंडला, शहडोल, अंबिकापुर, छिंदवाड़ा, होशंगाबाद और बैतूल जैसे क्षेत्रो में अगस्त के महीने में बोनी के लिए उपयुक्त है।

•   वर्ष 1996 में मटर जेपी 83(मीठी मटर): मध्यभारत में जिन जगहों पर मटर में भभूतिया रोग का प्रकोप हो, वहां के लिए यह किस्म उपयुक्त है।
जेपी 4 और जेपी 83, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बनारस स्थित ‘प्रोजेक्ट डायरेक्टोरेट वेजिटेबल रिसर्च' की परियोजना थी।

इसके अलावा अनामिका जी को विभिन्न वैज्ञानिक समितियों द्वारा फेलोशिप भी दी गई,जैसे -

•  वर्ष 1988 में इंडियन फाइटोपैथोलॉजी सोसाइटी, आई.ए.आर.आई, नई दिल्ली से
•  इन्डियन सोसाइटी ऑफ़ पल्स रिसर्च एंड डेवलपमेंट, कानपुर द्वारा
•  इन्डियन सोसाइटी ऑफ़ माइकोलॉजी एंड प्लांट पैथोलॉजी, उदयपुर द्वारा

पुरस्कार और सम्मान

•  मटर की बहु रोग निरोधक उन्नत जाति निर्माण पर वर्ष 1995 में वेजिटेबल साइंस जनरल में प्रकाशित शोध पत्र - The performance of garden pea varieties with dual resistance against powdery mildew and fusarium wilt. Veg. Sci.22(1):62-67 वेजिटेबल साइंस सोसाइटी, वाराणसी द्वारा सर्वश्रेष्ठ आंका गया और 1997 डॉ. हरभजन सिंह स्मृति सम्मान से नवाज़ा गया।

•  पर्ण-जाल अंगमारी (web blight) रोग पर आधारित विस्तृत शोधपत्र ‘मध्यप्रदेश में खरीफ की फल्ली वाली फसलों पर पर्ण-जाल अंगमारी रोग का प्रकोप-एक अध्ययन', भारतीय कृषि अनुसंधान, शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ जिसे 1998 के सर्वश्रेष्ठ शोधपत्र के रूप में स्वीकार करते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान समिति करनाल (हरियाणा) ने सम्मानित किया।

•  हिन्दी में शोधपत्र प्रकाशित करने वाली भारत की एकमात्र वैज्ञानिक के तौर पर ‘भारतीय कृषि अनुसंधान समिति, करनाल द्वारा हिंदी में उत्कृष्ट वैज्ञानिक शोधपत्र प्रकाशन हेतु राजभाषा सेवी विशिष्ट सम्मान -2005.

1997 में अनामिका जी पति का देहांत हो गया। उनके ज्येष्ठ पुत्र अनिमेष संगीत सिखाते हैं, दूसरे पुत्र अभिषेक हाईकोर्ट में वकील हैं और बेटी विजयश्री खन्ना रेलवे में काम करती हैं। सेवानिवृत्ति के बाद अनामिका जी ने अपने समय का सदुपयोग विरासत में मिले लेखन को आगे बढ़ाने में किया। अब तक उनकी 5 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं-

प्रकाशन 

•  दरार बिना घर सूना (व्यंग्य संग्रह -2005)

•   बूँद (काव्य संग्रह-2012)

•  शूर्पणखा (नाटक -2018)

•  ख्याल (हिंदी ग़ज़ल संग्रह-2018)

•  आग और फूस (नाटक 2022) 

सन्दर्भ स्रोत : डॉ. अनामिका तिवारी से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक 

Comments

Leave A reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *



मंजूषा गांगुली : इन्द्रधनुषी प्रतिभा वाली कलाकार
ज़िन्दगीनामा

मंजूषा गांगुली : इन्द्रधनुषी प्रतिभा वाली कलाकार

देश के शीर्ष पांच कोलाजिस्टों- Collagists (कोलाज विशेषज्ञों ) में तीसरे स्थान पर काबिज हैं मंजूषा गांगुली

इशिका चौधरी : चुनौतियों से बढ़ता है जिनका हौसला
ज़िन्दगीनामा

इशिका चौधरी : चुनौतियों से बढ़ता है जिनका हौसला

खेल के प्रति उसकी प्रतिबद्धता इतनी मजबूत थी कि जब वह अवकाश पर ग्वालियर आती, तो अपने घर पर परिवार के साथ रहने के बजाय अका...

प्राचीन गणित के इतिहास की अन्वेषक डॉ. प्रगति जैन
ज़िन्दगीनामा

प्राचीन गणित के इतिहास की अन्वेषक डॉ. प्रगति जैन

एक प्राध्यापक के रूप में डॉ. प्रगति अपने छात्रों को मात्र गणित के सूत्र सुलझाने में मदद नहीं करतीं बल्कि उनके भीतर छिपी...

खुद को आजमाने की ज़िद का नाम है कनीज़ ज़ेहरा रज़ावी
ज़िन्दगीनामा

खुद को आजमाने की ज़िद का नाम है कनीज़ ज़ेहरा रज़ावी

गणित और विज्ञान उनका पसंदीदा विषय रहा लेकिन भाषा पर भी ज़बर्दस्त पकड़ रखती हैं, हिन्दी, अंग्रेज़ी और उर्दू-इन तीन भाषाओँ मे...

अंकिता जैन : इंजीनियरिंग के बाद थामी
ज़िन्दगीनामा

अंकिता जैन : इंजीनियरिंग के बाद थामी , कलम, करती हैं खेती किसानी भी

एक लेखिका का  किसान और सफल उद्यमी बनने का तक सफ़र  

भूमिका दुबे : रंगमंच से रुपहले पर्दे तक
ज़िन्दगीनामा

भूमिका दुबे : रंगमंच से रुपहले पर्दे तक , मिसाल कायम करने वाली अदाकारा

उन्होंने ‘भूमिका थिएटर ग्रुप’ के बैनर तले कॉस्टिंग डायरेक्टर से लेकर निर्देशन, लेखन, प्रोडक्शन में भी हाथ आजमाया