हिमाचल हाइकोर्ट : पिता अपने बालिग बच्चों की

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हिमाचल हाइकोर्ट : पिता अपने बालिग बच्चों की
पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि एक पिता अपने बालिग बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का खर्च उठाने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है। दरअसल, एक व्यक्ति के वयस्क बच्चों ने उच्च शिक्षा के लिए अपने पिता से पैसे दिलाने की मांग करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। कोर्ट ने उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए उनके हक में फैसला सुनाया है। जानकारी के अनुसार, बेटी पीएचडी, जबकि बेटा बीटेक करना चाहता है। बेटी का जन्म 1 अगस्त 1998 को हुआ था और बेटे की जन्मतिथि 17 मार्च 2002 है। दोनों ही अब वयस्क हो चुके हैं। बेटे और बेटी दोनों ने अपनी याचिका में कहा कि आर्थिक तंगी के चलते उनकी पढ़ाई बुरी तरह प्रभावित हो सकती है।

अपने बच्चों की स्थिति को देखते हुए उनकी मां ने उनके साथ मिलकर अपने पति व बच्चों के पिता के खिलाफ ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास के समक्ष भरण-पोषण भत्ता देने के लिए मामला दायर किया। 9 जुलाई 2012 को ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट फर्स्ट ने मां, बेटे और बेटी प्रत्येक को 2,000-2,000 हर महीने भरण-पोषण भत्ता देने का आदेश दिया। इसके बाद ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के फैसले के खिलाफ एडिशनल सेशंस जज-सेकेंड की अदालत में रिवीजन याचिका डाली गई। 20 मार्च 2015 कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की अपील पर भरण-पोषण राशि को 2,000 से बढ़ाकर 3,000 प्रति माह कर दिया था। इसके बाद 22 जुलाई, 2017 को लोक अदालत में उक्त भरण-पोषण भत्ते को बढ़ाकर 4,000 रुपये प्रति माह कर दिया गया था।

2 जुलाई 2018 को मां और बच्चों ने भरण-पोषण भत्ते को और बढ़ाने के लिए सीआरपीसी की धारा 127 के तहत फिर से एक याचिका दायर की। इस पर फैमिली कोर्ट के एडिशनल प्रिंसिपल जज ने उनकी मां के लिए भत्ते को 4,000 से बढ़ाकर 8,000 प्रति माह कर दिया। हालांकि, उन्होंने याचिकाकर्ता बेटे और बेटी की भरण-पोषण वृद्धि की मांग को इस आधार पर खारिज कर दिया कि वे बालिग हो चुके हैं। इस आदेश के खिलाफ परिवार ने हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट में अपील दायर की थी। 12 सितंबर 2025 को उन्हें आंशिक जीत मिली।

द विक्टोरियम लीगलिस की फाउंडिंग पार्टनर कृतिका सेठ ने बताया कि हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट में सुना गया यह मामला सीआरपीसी 1973 की धारा 125 और हिंदू दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के तहत भरण-पोषण के दायरे के संबंध में एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम करता है। वो आगे बताती हैं कि विवाद की मुख्य बात यह थी कि क्या उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे और अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ बालिग लोगों को भरण-पोषण जारी रखने या बढ़ाने का अधिकार है। उन्होंने कहा कि इस मामले में फैमिली कोर्ट ने प्रतिवादियों के बच्चों की भरण-पोषण राशि बढ़ाने की अर्जी पहले ही खारिज कर दी थी, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि वे अब नाबालिग नहीं हैं। हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने इस आदेश को आंशिक रूप से बरकरार रखा और फैसला सुनाया कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत, बच्चों के भरण-पोषण का पिता का कर्तव्य उनके 18 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर समाप्त हो जाता है। कृतिका सेठ ने बताया कि यह अपवाद केवल उन व्यक्तियों पर लागू होता है जो वयस्क हो गए हैं, लेकिन किसी शारीरिक या मानसिक असामान्यता या चोट से पीड़ित हैं जिसके परिणामस्वरूप वे अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं। इसलिए, यह माना गया कि बेटी, जो आवेदन दायर करते समय नाबालिग नहीं थी, सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण पाने की पात्र नहीं है। इसके अलावा कोर्ट ने यह भी माना कि चूंकि आवेदन दायर करते समय बेटा बालिग नहीं हुआ था, इसलिए वह बढ़े हुए भरण-पोषण का हकदार है, लेकिन केवल 18 वर्ष की आयु तक ही।

उन्होंने बताया कि इस फैसले ने इस बात पर भी जोर दिया कि हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 20 (3) के तहत, एक अविवाहित बेटी, जो अपनी कमाई या संपत्ति से अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, अपनी उम्र की परवाह किए बिना अपने पिता से भरण-पोषण पाने की हकदार है। इसलिए, हाईकोर्ट ने आगे कहा कि हालांकि पिता सीआरपीसी के तहत अपने बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए कानूनन बाध्य नहीं हो सकता, लेकिन चूंकि बच्चे अभी भी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, इसलिए उनकी आर्थिक मदद करना उसका नैतिक दायित्व है। 

सन्दर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट

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