भूरी बाई- जिनकी कला को मिली अन्तर्राष्ट्रीय पहचान

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भूरी बाई- जिनकी कला को मिली अन्तर्राष्ट्रीय पहचान

छाया : बॉलीकॉर्न.कॉम

लोक कलाकार

भूरी बाई मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के मोरी बावड़ी इलाके में स्थित पिटोल गाँव की निवासी हैं। वे पिथौरा चित्रकारी में पारंगत भील समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। भूरीबाई भी बचपन से ही विभिन्न पारंपरिक गतिविधियों के चित्र बनाती थीं लेकिन तब उन्होंने सोचा भी नहीं था कि चित्रकारी का यह शौक उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर देगा। भील समुदाय में गाँव के मुखिया की मृत्यु होने पर उनकी स्मृति में गाँव से कुछ दूरी पर एक पत्थर लगाया जाता है। इस पत्थर पर घोड़े का विशेष चित्र बनाया जाता है। यह विशेष किस्म का घोड़ा ही पिथौरा कला की आत्मा है। भील समुदाय में इसे चित्रित करने की अनुमति केवल पुरुषों को है, तथापि भूरी बाई इसे अपनी शैली में तैयार करती हैं। उनके चित्रों में घोड़े के अलावा लोक जीवन की झलक भी दिखाई देती है।

एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि – “बचपन तो हमारा दिहाड़ी मजदूरी में ही चला गया। मैं और मेरी बहन अपने पिता जी के साथ कभी कहीं, तो कभी कहीं काम की तलाश में जाया करते थे। अगर काम नहीं करते, तो खाने को कैसे मिलता। हम इधर-उधर मजदूरी करते, फिर जंगल से लकड़ियाँ इकट्ठा करके लाते और ट्रेन में बैठकर बेचने जाते थे। पर इस सबके बीच भी मैं चित्रकारी करती रहती थी। गाँव में जो भी कच्चा-पक्का घर था उसे ही गोबर-मिट्टी से लीपकर, दीवारों पर चित्र बनाकर सजाया करती थी। उस जमाने में रंग-ब्रश के बारे में कुछ पता ही नहीं था। मैं तो घर की चीज़ों – जैसे गेरू, खड़िया, हल्दी से ही रंग बनाती थी। काले रंग के लिए तवे को खुरच लेती थी, तो पत्तों से हरा रंग बना लेती थी। बस तरह-तरह की आकृतियां, कभी मोर, हाथी, चिड़िया तो कभी कुछ और बना लेती थी।”

एक बार वह अपने पति जौहर सिंह के साथ मजदूरी करने भारत भवन पहुंची। साथ में गाँव के कुछ और लोग भी थे। उन दिनों भारत भवन में निर्माण कार्य चल रहा था। वहीँ उनकी मुलाक़ात मूर्धन्य चित्रकार श्री जगदीश स्वामीनाथन से हुई। उन्होंने भूरी बाई की प्रतिभा को पहचाना; रंग-ब्रश और कागज़ देकर कुछ चित्र बनाने को उनसे कहा। भूरी बाई असमंजस में थीं। वह मन ही मन सोच रही थीं कि अगर मैंने बैठकर चित्र बनाने लगी तो मजदूरी कौन करेगा। वह दिन के6 रूपये की मजदूरी छोड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकती थीं। स्वामीनाथन जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे उन्हें दिन के 10 रूपये देंगे, जिस पर भूरी बाई ने हामी भर दी। उन्होंने 10 चित्र बनाए जिसे लेकर स्वामीनाथन जी दिल्ली चले गए। तकरीबन 1 साल बाद स्वामीनाथन जी उनके घर पर आए, उनसे कुछ और चित्र बनाने को कहा तथा उन 10 चित्रों के उन्हें 1500 रूपये दिए। इतने सारे पैसे पाकर वह हैरान थीं। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

भूरी बाई के साथ-साथ पिथौरा कला को भी दुनिया भर में पहचान मिली। हालांकि इस बीच आस पास के लोगों ने पति के कान भरने शुरू कर दिए। वे कहते आखिर कोई क्यों इन चित्रों के इतने सारे पैसे देगा!! परिवार में कलह शुरु हो गयी। यह भी संभव था कि परिवार में शांति बहाल करने के लिए वह अपना काम छोड़ देतीं, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। अब जगदीश स्वामीनाथन उनके गुरु थे, जिनके मार्गदर्शन में वह नित नए नए चित्र बना रही थीं। उन्होंने इस विषय पर भी भी स्वामीनाथन जी से बात की, उन्होंने उनके पति को भारत भवन में चौकीदार की नौकरी दिला दी। यहाँ आकर उनका पति उन्हें चित्र बनाते हुए देखते, तब जाकर उन्हें यकीन आया कि वह सम्मानजनक काम से ही जुड़ी हैं। बाद में उन्होंने भी चित्र बनाना सीख लिया और भूरी बाई का हाथ बंटाने लगे।

कुछ समय बाद जब मध्यप्रदेश सरकार ने भूरी बाई को शिखर सम्मान से नवाजा तो सभी अचम्भे से उन्हें देखने लगे। यहाँ तक कि खुद उन्हें भी समझ में नहीं आ रहा था, जब लोगों ने उन्हें यह बताया कि अख़बार में तुम्हारा नाम आया है। यह तो महज एक शुरुआत थी, इसके बाद भूरी बाई का नाम देश विदेश में गर्व से लिया जाने लगा। कई वर्षों तक वह भोपाल में स्थित जनजातीय संग्रहालय में काम करती रहीं। उन्होंने अपना जीवन गाथा संग्रहालय की ही एक लम्बी दीवार पर उकेरी है, जिसे पर्यटक कौतूहल से देखते हैं। उनकी दो बेटियां और एक बेटा भी पिथौरा चित्रकारी करते हैं।

उपलब्धियां

  • 1986-87 – शिखर सम्मान,
  • 1998 देवी अहिल्या बाई सम्मान,
  • 2009- रानी दुर्गावती सम्मान (भूरी बाई एवं श्रीमती दुर्गा बाई व्याम, सुनपुरी, डिंडोरी संयुक्त रूप से सम्मानित)

संपादन – मीडियाटिक डेस्क 

© मीडियाटिक

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