क्या पति से घर के काम करवाना, भाई की शादी में नहीं जाना और समय पर खाना नहीं बनाना जैसे मामूली घरेलू मामले किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए वाकई सही और ठोस आधार हैं? मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की इंदौर बेंच ने एक हालिया मामले में इसको लेकर बेहद अहम फैसला देते हुए आरोपी पत्नी को बरी कर दिया। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट इंदौर ने आत्महत्या के लिए उकसाने के हालिया मामले में पाया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ लगाए गए आरोप, जैसे कि समय पर खाना न बनाना, अपने पति से घर के काम करवाना और अपने भाई की शादी में शामिल होना, मामूली घरेलू मुद्दे हैं, जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 107 के तहत परिभाषित उकसाने की सीमा को पूरा नहीं करते।
जस्टिस हिरदेश ने इस मामले में पत्नी संगीता को बरी कर दिया, जिस पर अपने पति को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप है और आत्महत्या के लिए उकसाने के मामलों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उकसाने या उकसाने के ठोस सबूतों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। अदालत ने नोट किया कि संगीता के पास अपने पति को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए आवश्यक मानसिक कारण होने का कोई सबूत नहीं है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि हर घर में होने वाली सामान्य घरेलू असहमति और चिड़चिड़ापन को आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं माना जा सकता। अभियोजन पक्ष संगीता द्वारा उकसाने के किसी भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कृत्य का ठोस और ठोस सबूत पेश करने में विफल रहा।
याचिकाकर्ता संगीता ने दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 397 सपठित धारा 401 के तहत आपराधिक पुनर्विचार दायर किया, जिसमें फर्स्ट एडिशनल सेशन जज, सरदारपुर, जिला-धार (एमपी) द्वारा पारित 3 अप्रैल, 2024 के आदेश को चुनौती दी गई। निचली अदालत ने उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत उसके पति को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप में आरोप तय किए। संगीता और उसके पति की शादी 27 अप्रैल, 2022 को हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुई थी और उनकी एक बेटी भी है। सरकारी स्कूल में शिक्षिका संगीता और मजदूर पति धार के राजगढ़ में किराए के मकान में रहते हैं।
अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि संगीता अपने पति को परेशान करती थी, उसे घर के काम करने के लिए मजबूर करती थी, जिसके कारण 27 दिसंबर, 2023 को उसने आत्महत्या कर ली। शुरुआती बयान दर्ज होने के बाद 16 जनवरी, 2024 को संगीता के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। संगीता के बचाव पक्ष के वकील ने तर्क दिया कि घटना से पहले मृतक द्वारा किसी भी तरह की शिकायत या प्रताड़ित करने के आरोप का कोई सबूत नहीं है। इसके अलावा सुसाइड नोट या मृत्युपूर्व बयान की अनुपस्थिति ने अभियोजन पक्ष के मामले को कमजोर किया। बचाव पक्ष ने कहा कि संगीता केवल अपने वैवाहिक कर्तव्यों का पालन कर रही थी। उसका अपने पति को आत्महत्या के लिए उकसाने का कोई इरादा या मेन्स रीआ (दोषी मन) नहीं है।
दूसरी ओर अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि संगीता के उत्पीड़न के कारण उसके पति ने आत्महत्या की, जिससे आईपीसी की धारा 306 के तहत आरोप उचित साबित होते हैं। जस्टिस हिरदेश ने धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने को नियंत्रित करने वाले कानूनी ढांचे और आईपीसी की धारा 107 के तहत इसकी व्याख्या की जांच की जो उकसाने को परिभाषित करती है। अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि धारा 306 के तहत दोषसिद्धि के लिए आत्महत्या करने में उकसाने षड्यंत्र या जानबूझकर सहायता का स्पष्ट सबूत होना चाहिए।
न्यायालय ने उकसावे के सिद्धांतों को स्पष्ट करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक निर्णयों का हवाला दिया जैसे कि चित्रेश कुमार चोपड़ा बनाम राज्य (दिल्ली सरकार) (2009), जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि उकसाने में किसी व्यक्ति को किसी कार्य को करने के लिए उकसाना, उकसाना या प्रोत्साहित करना शामिल है। वास्तविक शब्दों का इस्तेमाल किया जाना आवश्यक नहीं है लेकिन उकसावे की एक उचित निश्चितता होनी चाहिए।इसके अलावा प्रवीण प्रधान बनाम उत्तरांचल राज्य (2012) में न्यायालय ने माना कि उकसाने वाले का इरादा महत्वपूर्ण है और बिना इरादे के गुस्से में कहे गए शब्द उकसावे का गठन नहीं कर सकते।
न्यायालय ने संजू @ संजय सिंह सेंगर बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2002) का हवाला दिया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि उकसावे के लिए मेन्स रीया की उपस्थिति आवश्यक है। सामान्य कलह के प्रति अतिसंवेदनशील प्रतिक्रिया को उकसावा नहीं माना जा सकता। इन निष्कर्षों के आलोक में न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि धारा 306 आईपीसी के तहत आरोप संधारणीय नहीं थे। इस प्रकार अदालत ने फर्स्ट एडिशनल सेशन जज का आदेश रद्द कर दिया और संगीता को आरोपों से मुक्त कर दिया।
सन्दर्भ स्रोत : लाइव लॉ
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