मध्यप्रदेश की पहली महिला सत्याग्रही सुभद्रा कुमारी चौहान

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मध्यप्रदेश की पहली महिला सत्याग्रही सुभद्रा कुमारी चौहान

छाया :सुभद्रा-कुमारी-चौहान

अपने क्षेत्र की पहली महिला

• डॉ. शम्भुदयाल गुरु 

·  परंपरा के विरुद्ध भाई ने पढ़ाया-लिखाया

·   अपने पति के साथ लिया था असहयोग आन्दोलन में हिस्सा

·    जेल जाने वाली पहली महिला सत्याग्रही बनीं

·    छोटी सी बच्ची को गोद में लेकर गई थीं जेल

·     अपनी कविता से रानी झाँसी को अमर कर दिया

श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान (subhadra-kumari-chauhan) का जन्म इलाहाबाद (Allahabad) में, नागपंचमी के दिन 15 अगस्त 1904 में हुआ। उनके बड़े भाई रामनाथ सिंह, पुलिस इंस्पेक्टर थे, परंतु वे इस्तीफा देकर 1920 के असहयोग आंदोलन (Non-cooperation movement) में शामिल हो गए थे। दूसरे भाई राजबहादुर सिंह प्रगतिशील विचारों के थे। उन्होंने परंपरा तोड़कर अपनी बहनों को शिक्षित किया। सुभद्रा जी की प्रारंभिक शिक्षा क्रास्थवेट स्कूल, इलाहाबाद में हुई। उन्होंने 15 वर्ष की आयु में 1919 में मिडिल परीक्षा पास की और छात्रवृत्ति पाई। परंतु उसी साल 20 फरवरी को खंडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान (Thakur Laxman Singh Chouhan) से उनका विवाह हो गया। इससे पढ़ाई रुक गई। बाद में उनके पति जबलपुर में वकालत करने लगे। उन्होंने सुभद्रा जी को थियोसोफिकल स्कूल, बनारस (Theosophical School, Benares) पढ़ने के लिए भेजा। परंतु वहां भी पढ़ाई अधिक दिनों नहीं चली।

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जब गांधी जी के आह्वान पर सन 1920 में आंदोलन प्रारंभ हुआ तो सुभद्रा जी, अपने पति के साथ आंदोलन में हिस्सा लेने जबलपुर लौट आईं और इसके बाद से पति-पत्नी का जीवन राष्ट्र सेवा को समर्पित हो गया। स्वाधीनता आंदोलन (Independence Movement) में ये दोनों हमेशा अग्रिम पंक्ति के सैनिक बने रहे। उनकी राजनीतिक यात्रा की पहली परीक्षा शीघ्र ही आ गई। 1923 में पहली बार जबलपुर नगर पालिका पर कांग्रेस का झण्डा फहराया गया। पुलिस ने न केवल झण्डा उतार दिया बल्कि उसे पैरों तले रौंदा भी। इससे आग भड़क गई। इसे देश का अपमान माना गया। सुभद्रा जी ने अन्य लोगों  के साथ  सरकारी आदेशों को धता बताते हुए विशाल जुलूस झण्डे के साथ निकाला। झण्डा सत्याग्रह (Flag Satyagraha) शीघ्र ही अखिल भारतीय बन गया और नागपुर उसका केंद्र बन गया। सारे देश से सत्याग्रही वहां आने लगे।

पहली महिला सत्याग्रही

सुभद्रा जी को जेल जाने वाली भारत की पहली महिला सत्याग्रही (India's first woman satyagrahi) होने का गौरव प्राप्त है। सत्याग्रहियों को निर्ममता से मारा-पीटा जाता था। इसलिए शुरू में सुभद्रा जी को सत्याग्रह की अनुमति नहीं दी गई। पर वे तो वीरांगना थी। वे जिद पर अड़ी रहीं। विवश होकर उन्हें अनुमति देनी पड़ी। पुलिस ने जब उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (Chakravarti Rajagopalachari) ने नागपुर की सभा में कहा था ‘‘आज हमारी बहिन बंदी बना ली गयी है। कोई भी हिन्दू महिला पुलिस की गिरफ्त में आने का सोच भी नहीं सकती। यदि आप सोचें तो क्या  यह स्वतंत्रता की ओर हमारे प्रयाण में आश्चर्यजनक प्रगति का द्योतक नहीं है? सुभद्रा देवी का यह वीरतापूर्ण कार्य प्रत्येक घर में सुना और सराहा जायेगा।’’

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प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी

महाकोशल क्षेत्र की प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण, सुभद्रा जी दिन-रात जन -जागरण अभियान में लगी रहीं। 1930 के दशक में उन्होंने महाकोशल कांग्रेस कमेटी (Mahakoshal Congress Committee) में महिला विभाग की अध्यक्षता संभाली। उनके पति ठाकुर लक्ष्मण सिंह पहले ही जेल जा चुके थे, सुभद्रा जी भी यदि जेल जातीं तो उनके छोटे-छोटे बच्चों की देखभाल करने वाला कोई न रहता। इसलिए उन्हें 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन (savinay avagya andolan) में जेल जाने की अनुमति पार्टी ने नहीं दी। परंतु 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह और फिर 1947 के भारत छोड़ो आंदोलन में सुभद्रा जी छोटी बिटिया को गोद में उठाए जेल चली गईं। यह उनकी तीसरी जेल यात्रा थी।

अमर कविताएं

सुभद्रा जी जन्मजात कवयित्री और कहानीकार (Poet and storyteller) थीं। उनकी पहली कविता ‘नीम’ 1913 में मर्यादा में प्रकाशित हुई थी,जब वे मात्र नौ साल की थीं। उन्हें जल्दी ही शोहरत हासिल हो गई, जब उनकी चार रचनाएं देश की प्रमुख कविताओं के संग्रह ‘कविता कौमुदी’ (kavita kaumudi) में स्थान पा गईं। 1930 में उनका प्रथम काव्य संग्रह 'मुकुल' (First poetry collection Mukul) प्रकाशित हुआ फिर उनकी पहली कहानी होली प्रेमा, पत्रिका में मार्च 1934 के अंक में छपी। फिर उसी साल सितंबर में कथा संग्रह बिखरे मोती प्रकाशित हुई। स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष के रोमांच को  हृदय में समाहित करके उन्होंने देश भक्ति की ऐसी रचनाएं रचीं, जिनसे जनमानस आन्दोलित हो उठा और मर मिटने को तैयार हो गया। उनकी कविताओं और कहाननियों में आज़ादी की भावना और फिरंगियों के खिलाफ विद्रोह की भावना विविध रूपों से प्रकट होती है।

काव्य और इतिहास एक रस होकर मुखरित हुए है उनकी कविता झांसी की रानी में। बानगी देखिए-

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

बूढ़े भारत में भी आयी, फिर से नयी जवानी थी,

गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,

चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी,

बुन्देले हर बोलों के मुँह से हमने सुनी कहानी थी,

खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।

यह कविता राष्ट्रीय आंदोलन में अमरत्व प्राप्त कर चुकी है। इसी तरह वीरों का कैसा हो बसंत, जलियांवाला बाग, माता मंदिर, विजय दशमी आदि में उनकी अटूट देशभक्ति बार-बार उजागर हुई है।

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नारी शक्ति विश्वास

सुभद्रा जी नारी जागृति की प्रबल समर्थक थी और उन्हें महिला शक्ति पर पूरा विश्वास था। वे महिलाओं से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का आव्हान करतीं , उन्हें पुरूषों के साथ केवल बराबरी पर खड़ा नहीं करतीं, बल्कि उससे भी आगे ले जाती हैं। वे कहती हैं –

तुम्हारे देशबन्धु यदि कभी आगे डरें

कायर हो पीछे हटें,

बन्धु दो बहनों को वरदान,

युद्ध में वे निर्भय मर मिटें।

आचार्य ललिता प्रसाद सुकुल ने लिखा है, उनकी कविता में नारी सुलभ अजस्त्र सहानुभूति और नैसर्गिक करुणा से सिक्त, वीर रस का दर्द भरा स्वर नहीं, गर्व गौरव भरा स्वर फूटा था, ज्यों-ज्यों  संघर्ष बढ़ता गया त्यों-त्यों उनका स्वर प्रखर होता गया।

भाईचारे और साम्प्रदायिक सद्भाव में उनकी पूरी आस्था थी। और जीवन भर वे उसके लिए कार्य करती रहीं। दलितों के उत्थान के प्रति भी वे सदा प्रयत्नशील रहीं। वे सदा खादी के वस्त्र पहनती और सादगी से रहती थीं। 1930 तक वे चप्पल तक नहीं पहनती थीं। नंगे पैर ही संघर्ष में शामिल होती थीं। 1937 में चुनाव में वे मध्यप्रांत विधानसभा की सदस्य निर्वाचित हुईं। जब 1946 में चुनाव हुए तो कांग्रेस की ओर से उन्हें दोबारा जनता ने मध्यप्रांत (सी.पी. एंड बरार) की विधानसभा के लिए चुना। 15 फरवरी 1948 को  बसंत पंचमी के दिन  मात्र 44 वर्ष की उम्र में सुभद्रा जी का एक कार दुर्घटना में निधन हो गया।

लेखक जाने माने इतिहासकार हैं।

© मीडियाटिक

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