सुप्रीम कोर्ट : बच्चे को चल संपत्ति नहीं मान सकतीं अदालतें

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सुप्रीम कोर्ट : बच्चे को चल संपत्ति नहीं मान सकतीं अदालतें

सुप्रीम कोर्ट ने बच्ची की अभिरक्षा पिता को हस्तांतरित करने से इनकार करते हुए कहा कि इस तरह बच्ची को परेशानी होगी और कोर्ट बच्चों पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव को नजरअंदाज नहीं कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतें बच्चे को चल संपत्ति नहीं मान सकतीं और उन पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव पर विचार किए बिना बच्चे की अभिरक्षा हस्तांतरित नहीं कर सकती है। 

सुप्रीम कोर्ट एक ढाई साल की बच्ची की अभिरक्षा को लेकर सुनवाई कर रहा था, जो अभी अपने ननिहाल में है और उसके पिता और दादा-दादी से नहीं मिली। ऐसे में ददिहाल पक्ष को बच्ची की तुरंत अभिरक्षा से कोर्ट ने इनकार करते हुए कहा कि इससे उसको दिक्कत होगी क्योंकि वह कभी उनसे मिली नहीं। कोर्ट ने ऐसे मामलों में बच्चों की मानसिकता पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डालते हुए अहम टिप्पणी की कि कोर्ट इसको नजरअंदाज नहीं कर सकता।

जस्टिस ए.एस.ओका और जस्टिस ए.जी. मसीह की बेंच ने कहा कि ऐसे मुद्दों पर बिना सोचे समझे फैसला नहीं किया जा सकता और कोर्ट को मानवीय आधार पर काम करना होगा। बेंच ने कहा, 'जब अदालत किसी नाबालिग के संबंध में बंदी प्रत्यक्षीकरण के मुद्दे पर विचार करती है, तो वह बच्चे को चल संपत्ति नहीं मान सकती है और कस्टडी में व्यवधान के बच्चे पर पड़ने वाले प्रभाव पर विचार किए बिना कस्टडी नहीं सौप सकती है।' बेंच ने कहा कि पिछले वर्ष जुलाई में शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट के फैसले के लागू करने पर रोक लगा दी थी। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जून 2023 के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें बच्ची की कस्टडी उसके पिता और दादा-दादी को सौंपने का आदेश दिया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट एक ऐसी बच्ची की कस्टडी के मामले को देख रहा है जो अपनी मां की मौत के बाद छोटी सी उम्र से ही अपने ननिहाल पक्ष के रिश्तेदारों के पास रह रही है। कोर्ट ने कहा कि जहां तक बच्चे की कस्टडी के संबंध में फैसले का सवाल है, उसमें एकमात्र सबसे बड़ा मुद्दा बच्ची का कल्याण है और पक्षकारों के अधिकारों को बच्चे के कल्याण पर हावी नहीं होने दिया जा सकता। बेंच ने कहा, 'हमारा मानना है कि मामले के सटीक तथ्यों और बच्ची की उम्र को देखते हुए, यह ऐसा मामला नहीं है, जिसमें भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर कर बच्चे की कस्टडी में बाधा पहुंचाई जा सके.' कोर्ट ने कहा, 'बच्ची ने एक साल से अधिक समय से अपने पिता और दादा-दादी को नहीं देखा है। दो वर्ष और सात महीने की छोटी सी उम्र में यदि बच्ची की कस्टडी तुरंत पिता और दादा-दादी को सौंप दी जाती है, तो बच्ची दुखी हो जाएगी, क्योंकि बच्ची काफी लंबे समय से उनसे नहीं मिली है। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिता को कस्टडी का अधिकार है या नहीं, यह मामला अदालत के जरिए तय किया जाना है, लेकिन निश्चित रूप से, यह मानते हुए भी कि वह कस्टडी का हकदार नहीं है। इस स्तर पर, वह बच्ची से मिलने का हकदार है। बेंच ने कहा, 'हम अपीलकर्ताओं को निर्देश देने का प्रस्ताव करते हैं कि वे बच्ची के पिता और दादा-दादी को हर 15 दिन में एक बार बच्ची से मिलने की अनुमति दें।'

सन्दर्भ स्रोत : एबीपी लाइव

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