छाया: नरेश गौतम
विशिष्ट महिला
सागर ज़िले के पथरिया में बेड़िया समुदाय की महिलाओं के लिए चम्पा बहन उनकी बेड़ियों को तोड़कर आज़ादी दिलाने वाली मसीहा का नाम है। उनका जन्म 9 अप्रैल 1935 को हिमाचल प्रदेश के चम्बा ज़िले में हुआ था। चूँकि उनका घर परिवार क्रांतिकारी गतिविधियों का एक केंद्र था, तो स्वाभाविक रूप से वे गाँधीजी, सुभाष चन्द्र बोस एवं भगत सिंह जैसे आज़ादी के लड़ाकों के बारे में सुनते हुए बड़ी हुईं। उनके पिताजी लाहौर में भगत सिंह के समूह में जूनियर सदस्य थे और कमेटी की ख़बरें इधर-उधर पहुँचाने का काम करते थे। दादा जी की ज़िद के कारण उन्हें अंग्रेज़ों की फ़ौज में भर्ती होना पड़ा, परन्तु सन 1945 में सुभाष चन्द्र बोस की पराजय के बाद वे फ़ौज छोड़ क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़ गए थे।
इसी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण चम्पा बहन के भीतर उस संवेदनशीलता का विकास हुआ जिसने उन्हें जीवन भर समाज से जोड़े रखा। वयस्क होने पर उन्होंने बिनोवा भावे के भूदान आन्दोलन को समझा और उनके साथ जुड़ गईं। सन 1962 में वह सर्वोदय सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए सूरत गईं। उसी वर्ष देश पर चीन ने आक्रमण किया था। युद्ध समाप्त हो जाने के बाद वे देहरादून आ गईं एवं वहाँ के आदिवासी बच्चों को पढ़ाने लगीं। पुनः संत रविशंकर महाराज के साथ उत्तराखंड की पदयात्रा में भाग लिया जिसका संचालन सुन्दरलाल बहुगुणा कर रहे थे। तदुपरांत महान समाज सेवक धीरेन्द्र मजुमदार के साथ जुड़कर कुछ समय उन्होंने भूमि के मुद्दे पर भी काम किया।
इन्हें भी पढ़िये –
उच्च जमींदार की बेटी दयाबाई जिन्हें लोग छिंदवाडा की मदर टेरेसा कहते हैं
वर्ष 1974 से 1977 तक वे उत्तर प्रदेश भूमि व्यवस्था समिति में रहकर शासकीय भूमि वितरण कार्य से जुड़ी रहीं जो आर.के. पाटिल कमेटी के नाम से जानी जाती है। इसी दौरान वे निर्मला देशपांडे के संपर्क में आईं एवं उनके नेतृत्व में 1983-84 में पंजाब में सदभावना पदयात्रा को संचालित किया। वर्ष 1983 की ही बात है, अखिल भारतीय रचनात्मक समाज के एक सम्मेलन में वे भोपाल पहुँचीं। कार्यक्रम के दौरान उनकी मुलाक़ात पथरिया गाँव की एक बेड़नी महिला से हुई, जो अपने समुदाय की महिलाओं के उत्थान के लिए काम करती थी। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश के बेड़िया समुदाय में परम्परानुसार घर की महिलाएं देह व्यापार कर परिवार का पोषण करती हैं, पुरुष सदस्यों के कमाने की यहाँ परम्परा नहीं है।
1983 में ही चम्पा बेन पथरिया गाँव पहुँचीं और सदियों से इस कुप्रथा को झेल रही महिलाओं की दशा देखकर विचलित हो गईं। उन्होंने एक संकल्प लेकर वहीं रहना शुरू कर दिया। वह घर-घर जाकर लोगों से बातचीत करती, धीरे-धीरे कुछ लोग उनके पास आकर बैठने लगे। उसी गाँव के एक व्यक्ति ने ढाई एकड़ ज़मीन दी जिस पर उन्होंने सत्यशोधन आश्रम की नींव रखी। चम्पा बेन ने गाँधी आश्रम, बिनोवा आश्रम तथा अन्य लोगों से भी मदद मांगी। खादी भंडारों से बिस्तर और चादर दान में देने की अपील की। 10 अप्रैल 1984 को सत्य-शोधन आश्रम की औपचारिक शुरुआत हुई लेकिन विधिवत उदघाटन वर्ष 1987 में निर्मला देशपांडे के कर कमलों से हुआ।
इन्हें भी पढ़िये –
जानकी देवी बजाज ने छूआछूत के विरुद्ध लड़ाई की शुरुआत जिन्होंने अपनी रसोई से की
इस आश्रम की स्थापना बहुआयामी उद्देश्यों को लेकर की गई थी जैसे बेड़िया समाज ( Bedia community) की महिलाओं को देह व्यापार के दलदल से निकाल कर उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना एवं उनमें आत्मसम्मान की भावना जागृत करना। बेड़िया समाज में शिक्षा का प्रसार करते हुए उनमें अन्य रोजगारों के प्रति जागरूकता लाना, खासतौर पर पुरुष वर्ग में व्याप्त आपराधिक प्रवृत्ति को समाप्त कर उन्हें रोज़गार के प्रति उन्मुख करना। राई नृत्य (RAI Dance) को देह-व्यापार की छवि से मुक्त कराते हुए सम्मानित लोकनृत्य के रूप में उसे स्थापित करना एवं उसमें नए प्रयोगों को प्रोत्साहित करना और बच्चों को उच्च शिक्षा के साथ-साथ खेल-कूद तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण देना।
सत्यशोधन आश्रम (Satyashodhan Ashram) के माध्यम से चम्पा बेन ()champa-bahan ने बेड़िया समाज को सबसे पहले देह-व्यापार (prostitution) छोड़ने के लिए मानसिक रूप से तैयार करना शुरू किया, बातचीत के क्रम में वैकल्पिक आजीविका की व्यवस्था सबसे बड़ी चुनौती थी। समाज के पुरुषों को परिश्रम कर उपार्जन की आदत नहीं थी। ऐसे में आश्रम में सबसे पहले उनके बच्चों को लाकर रखा गया ताकि वे उस माहौल से अलग पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद से जुड़ जाएँ। शेष समाज में जागरूकता लाने के लिए सबसे पहले उन्हें साक्षर करने की कवायद हुई, इस बीच वैकल्पिक रोजगारों के बारे में हर दिन वे उनके बीच जाकर चर्चा करतीं। निरंतर चलती गतिविधियों के परिणामस्वरूप कई सकारात्मक परिणाम मिले।
इन्हें भी पढ़िये –
आदिवासी महिलाओं के पक्ष में खड़ी रहने वाली समाजसेवी सुरतवंती वर्मा
अब तक समुदाय की कई महिलाएं उनसे हिल-मिल चुकी थीं। वे कहने लगीं थीं कि अब वे अपनी लड़कियों को इस पेशे में धकेलने के बजाय उनकी शादियाँ करेंगी। कुछ दिनों के बाद वास्तव में लड़कियों की शादी होने लगी। कई महिलाएँ देह व्यापार छोड़ कुछ और काम करने लगीं, पुरुषों को अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास होने लगा। वर्तमान में इस आश्रम से निकले चालीस बच्चे सरकारी नौकरी में हैं। ढाई एकड़ से यह आश्रम आठ एकड़ में फैल चुका है। यहाँ बेड़िया समुदाय के 100-200 बच्चों के रहने, उनके भोजन एवं पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था है।
आश्रम परिसर में ही एक छोटा सा उद्योग भी है जिसमें बच्चे श्रमदान करते हैं। आश्रम की देख-रेख के लिए वर्तमान में यहाँ 30-35 सदस्य हैं। परन्तु, इनके बीच चंपा बहन नहीं हैं। वर्ष 2011 में बीमारी के बाद चम्पा बेन का निधन हो गया। उनके जीवनकाल में उस गाँव की एक भी बालिका देह-व्यापार में नहीं उतरी, वे शादी करके घर बसाने लगी थीं, पुरुष काम-धंधे से जुड़ गए थे। यह आश्रम आज भी अपने उद्देश्य को लेकर सतत प्रयत्नशील है तथापि बेड़िया समुदाय फिर अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया है।
संदर्भ एवं सहयोग : भारती शुक्ल
© मीडियाटिक
Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *