राजुला शाह

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राजुला शाह

छाया : स्व सम्प्रेषित

प्रतिभा -टेलीविजन, सिनेमा और रंगमंच

• वंदना दवे

मध्यप्रदेश से सिनेमा उद्योग को समृद्ध करने वाली अनगिनत शख्सियतें हुई हैं, उनमें से अनेक का रास्ता फिल्म एवं टेलीविज़न इंस्टिट्यूट, पुणे से होकर निकला और अधिकांश ने नाम और दाम के लिए व्यावसायिक सिनेमा में ही जाना बेहतर समझा। 25 जुलाई 1974 को अपने ननिहाल मुम्बई में जन्मी राजुला शाह ने अपने लिए अलग ही रास्ता चुना।

कबीराना मिज़ाज और बहुमुखी प्रतिभा की धनी राजुला चित्रकार, कवि, फिल्म निर्देशक, कथाकार, सिनेमेटोग्राफर और अनुवादक हैं। ये भारतीय फिल्म और टीवी संस्थान पुणे से स्नातकोत्तर हैं। बाद में कुछ वर्ष वहां अध्यापन भी किया। इनके प्रमुख सरोकार लोक में व्याप्त कविता, कला की वाचिक परम्परा से जुड़ा रहा है।

उनके पिता श्री रमेश चन्द्र शाह भारत सरकार के प्रतिष्ठित पद्मश्री और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से सम्मानित हैं। श्री शाह हिन्दी साहित्यकार, उपन्यासकार, कवि और समालोचक हैं तथा हमीदिया कॉलेज भोपाल से अंग्रेजी के प्रोफेसर के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। माता श्रीमती स्व. ज्योत्स्ना मिलन शाह हिन्दी और गुजराती की प्रख्यात साहित्यकार होने के साथ ही सामाजिक सरोकार की पत्रिका अनसूया (सेवा) की तीस बरस संपादक रही हैं। बहन शंपा शाह शिल्पकार, साहित्यकार हैं। दोनो बहनों के बीच रचनात्मक संवाद का पुल सतत बना रहा है और इनकी एक दूसरे के कार्यों में सहभागिता और साझेदारी रहती है।

राजुला की स्कूली शिक्षा भोपाल के बाल भवन और क्षेत्रीय शैक्षणिक संस्थान (RIE) से हुई। चित्रकारी में रुचि होने से देश के प्रतिष्ठित कॉलेज  बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव में बीए फाइन आर्ट में एडमिशन लिया लेकिन कला की पढ़ाई पूरी तरह से अकादमिक होने से इनका मन ज्यादा रमा नहीं। राजुला का कहना है कि कला को इतना बांधकर नहीं पढ़ाया जा सकता यहां कुछ खुलापन जरूरी है। वे एक साल ही वहां रहीं। लेकिन इस दौरान कॉलेज के विशाल पुस्तकालय में इनकी मुलाकात प्रसिद्ध कालजयी चित्रकार विन्सेंट वान गॉग के चित्रों और उनके भाई थिओ को लिखे पत्रों वाली किताब से हो गई। इन पत्रों का गहरा असर राजुला पर ऐसा हुआ कि  उन्होंने उन चिट्ठियों का अनुवाद कर डाला।  

बड़ौदा से वापस आकर राजुला ने भोपाल के नूतन कॉलेज से संस्कृत, इतिहास और साहित्य विषय से बीए किया। फिर बरकतुल्लाह वि.वि.भोपाल से सन 1997 में अंग्रेजी एम, ए, किया। कला, संस्कृति और साहित्य में गहरी रुचि होने से वे ऐसी जगह जाना चाहती थीं, जहां उन्हें यह सब कुछ मिल सके। इसी तलाश में इन्होंने(1997 से 2000) पूना के फिल्म और टेलीविजन संस्थान में एडमिशन ले लिया। वहां तीन वर्षीय पाठ्यक्रम में इन्होंने फ़िल्म निर्देशन की कला व उसकी बारीकियों को समझा।राजुला ने कुछ सालों तक वहां अध्यापन भी किया। इतना ही नहीं, 2019 में जब एफटीआईआई ने पहली बार फिल्म समालोचना और समीक्षा कला में एक पाठ्यक्रम की घोषणा की, तो उसके संचालन का दायित्व राजुला को ही सौंपा गया।

राजुला की पहली फिल्म ‘बियॉन्ड द व्हील’ कुम्हार महिलाओं पर केन्द्रित है। इसमें उस वर्जना का चित्रण है, जिसके चलते महिलाएं चाक पर काम नहीं कर सकतीं। केरल के विबग्योर उत्सव में यह दूसरी सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंट्री चुनी गई और 2006 में साइंस फिल्म फेस्टिवल, तिरुवनंतपुरम में विशेष जूरी पुरस्कार प्राप्त किया।

लगभग दो दशक से ज्यादा काम करते हुए कला, साहित्य, दर्शन और सिनेमा की साझा जमीन पर अंतर्जगत और बाह्य जगत के बीच राजुला एक पुल बनाते हुए नज़र आती हैं। साथ ही कलात्मक और गैर कलात्मक सिनेमा के अंतर से बाहर एक आत्मीय और सहज सिनेमा की पक्षधर हैं।  राजुला के काम को शब्दों में बांधना आसान नहीं है,इसे केवल अनुभव किया जा सकता है। कबीर पर बनाई फिल्म ‘सबद निरंतर’ हो या ‘चलो सखा उस देश में’ आपको रूहानियत से भर देती है। ‘सबद निरंतर’ (शब्द के भीतर शब्द) एक रचनात्मक वृत्तचित्र है जो चौदहवीं शताब्दी की भक्ति कविता को इक्कीसवीं सदी के भारत में प्रतिध्वनित करता है। इस फिल्म के बारे में राजुला कहती हैं, कि कबीर के प्रति मेरी दिलचस्पी स्कूल में पढ़ाये जाने वाले दोहों और साखियों के कारण हुई। उस वक्त इनके दोहों के तात्विक अर्थ की तो समझ नहीं थी लेकिन  कबीर के काव्य रूपक बड़े अच्छे लगते थे। मसलन पत्ता टूटा डाल से…. जैसे काव्य रूपक जीवन की जटिलताओं से जोड़कर सोचने समझने की एक नई दृष्टि देते हैं। वे कहती हैं कि हमारी हिन्दी शिक्षिका को कबीर या भक्तिकाल के कवियों को पढ़ाने में ज्यादा रुचि नहीं थी। वे इनके गूढ़ अर्थ को लेकर बेखबर थी। उन्होंने भाषा के आधार पर इन कवियों को नकार दिया  कि इनकी भाषा बहुत पुरानी है इसे आजकल बोला नहीं जाता। वे आधुनिक हिन्दी साहित्य को ज्यादा तरजीह देती थी।

दूसरी तरफ भोपाल के भारत भवन, रविंद्र भवन में कबीर के भजन होते थे उसमें मालवांचल के नामी लोक गायक आते थे।  जब इन्हें सुनने जाते और वहां सुनने वालो की भीड़ में भोपाल के बुद्धिजीवी दिखाई देते थे तब मुझे ऐसा लगा कि हिंदी टीचर ने कबीर या उनके समय के कवियों को भाषा के आधार पर कैसे नकार दिया जबकि इन्हें सुनने वालो में तो शहर के सभी वर्ग के लोग हैं। यहीं से कबीर और तेरहवीं शताब्दी से शुरू हुई भक्ति और निर्गुण काल की कविता और इसकी आज के समय में उपयोगिता पर कुछ करने का विचार आया और फिर सबद निरंतर बनाने का निश्चय किया। करीब पांच साल तक मालवा के गांवों में जाकर लोगों में कबीर कैसे घुला मिला है यह जाना। कबीर भीतर की चीज है। फिर चाहे वो आत्मा के भीतर जाना हो या कबीर को पाने के लिए गांव के अंदर गांव में जाना हो। हम लोग सतत काम में लगे रहे। सचमुच यह अनुभव कबीर का दीदार करने जैसा था। कई दफा ऐसे गांव में चले जाते थे कि वापस लौटना आसान नहीं होता था। हम लोग गांव में ही किसी के घर ठहर जाते थे। ये लोग बड़ी आत्मीयता से आवभगत करते थे। इन्हें इससे कोई मतलब नहीं होता था कि हम लोग फिल्म बना रहे हैं तो इन्हें कैमरे के सामने आना है। सारा दिन खेत में काम करने के बाद रात में हमारे लिए झांझ मंजीरा लेकर बड़ी तल्लीनता से भजनों से कबीर रस में सराबोर कर देते थे।

हम लोगों का उद्देश्य था कि कबीर की सहज गायकी हो जिसमें सभी की सहभागिता हो। ऐसा नहीं कि कोई एक गा रहा हो और बाकी श्रोता रहे। इसी से जुड़ा एक किस्सा है कि गांव में एक बार मनोहर भाई – जो खुद बहुत अच्छा गाते थे,  ने कहा कि रात में भजन श्मशान घाट पर रखेंगे। उस वक्त मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव था कि एक ओर चिता जल रही है और दूसरी तरफ भजन मंडली भजन गा रही है। इसी में एक व्यक्ति बड़ा बेसुरा गा रहा था तो लगा कि रिकॉर्डिंग बंद कर दूं मगर उसी वक्त ध्यान आया कि फिल्म का उद्देश्य सभी की सहभागिता है। इस तरह इस फिल्म के जरिए हमारी स्व को जानने की यात्रा शुरू हुई।  सबद निरंतर ने म्यूनिख के डॉकफेस्ट 2008 में होरिज़ोंटे प्रीस में एक पुरस्कार जीता।

इसी कड़ी की दूसरी फिल्म है चलो सखा उस देश में (एट होम वॉकिंग)। इस फिल्म की स्क्रिप्ट, निर्देशन, ध्वनि संयोजन राजुला का है।  सह छायांकन व सह संपादन भी राजुला का ही है। इसकी निर्माता शम्पा हैं जो खुद बेहतरीन लेखिका, अदाकारा और सिरेमिक कलाकार भी हैं, यह फिल्म, भारत के दक्कन में हाइलैंड्स के खानाबदोशों और तीर्थयात्रियों को दर्शाती है, जो बार्ड्स के संगीत और एक काव्यात्मक एकालाप को उजागर करती है। लयबद्ध शॉट्स और चलने वाले पैरों के फुटेज को बार-बार देखने से दर्शक को एहसास होता है कि चलना ध्यान है। इस फिल्म के बारे में बताते हुए राजुला कहती है कि फिल्म और टेलीविजन संस्थान में पढ़ने और फिर पढ़ाने के दौरान संत ज्ञानेश्वर और संत तुकोबा की जन्मस्थली पर जाना होता था। वहीं वारकरी संप्रदाय के बारे में पता चला। मेरी जिज्ञासा तीर्थयात्रा लेकर हमेशा रही है कि आखिर लोग दर्शन करने के लिए पदयात्रा क्यों करते हैं। दर्शन करना उद्देश्य है तो किसी साधन से भी जा सकते हैं। पदयात्रा क्यों? इसके पीछे क्या रहस्य है? कुछ यही जानने के लिए आषाढ़ी वारकरी तीर्थयात्रा को समझने के लिए इनके साथ हो ली।

वारकरी भक्ति काल की देन है। महाराष्ट्र, कर्नाटक में विट्ठल को मानने वाला यह एक प्रगतिशील संप्रदाय है। ये बताती हैं आषाढ़ी एकादशी से पहले चंद्रभागा नदी के तट पर लाखो वारकरी अपने प्रिय देवता विठोबा का आशीर्वाद लेने इकट्ठा होते हैं। यह परम्परा 13 वीं सदी से चली आ रही है। इस यात्रा को वारी कहते हैं और इस  यात्रा करने वाले वारकरी कहलाते हैं।

जब हमारे यहां कर्मकाण्ड, छुआछूत, पाखंड अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया तब देश की हर दिशा से ऐसे संत और कवि सामने आने लगे जो न केवल समाज में व्याप्त इन कुरीतियो और वर्ग विशेष के आतंक के खिलाफ अपनी बात कहते थे बल्कि मनुष्य के भीतर की आध्यात्मिक चेतना से भी रुबरु कराते थे। इन ज्ञान और भक्ति मार्गी संतों ने लोक भाषा में बड़े ही सरल तरीके से पद,  दोहे, अभंग गाकर लोगों तक अपनी बात पहुंचाई। इसके लिए ये सड़को पर निकले और लोगों को जोड़ते गए। पदयात्रा उस वक्त का सबसे सशक्त संचार माध्यम था।

इस दौरान महाराष्ट्र के संतों का बड़ा योगदान रहा। इनके द्वारा कही गई बात का महाराष्ट्र में आज भी व्यापक असर नजर आता है। इन संतो ने अपनी बात को मजबूती से हर व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए वारकरी आंदोलन की शुरुआत की। प्रति वर्ष आषाढ़ी एकादशी पर पंढरपुर में भगवान विठोबा के दर्शन के लिए ख़ास तौर पर  महाराष्ट्र के तमाम हिस्सों से बगैर भेदभाव के हर जाति धर्म, अमीर, गरीब सभी वर्ग के लोग समूह में पहुंचते हैं। यह एक सामाजिक धार्मिक और आध्यात्मिक आंदोलन है जिसे संत ज्ञानेश्वर जो ब्राह्मण थे, ने शुरू किया इनके साथ और बाद में संत तुकाराम (किसान), नामदेव (दर्जी), नरहरि (सोनार), सवतोबा (माली), गोरा (कुम्हार), कान्होपात्रा, मुक्ताबाई, जनाबाई, बहिनाबाई आदि इस आंदोलन को चलाते रहे। वारकरी समूह इन्हीं संतो के अभंग व पद गाते हुए अपनी यात्रा करते हैं।

इन्हें इस यात्रा पर कविता और रोजमर्रा के बीच घनिष्ठ दार्शनिक और अस्तित्व के संबंध का अध्ययन करना था। यद्यपि यात्रा प्रकृति में धार्मिक है लेकिन वारकरियों द्वारा गाये जाने वाले अभंग और कविता में सामाजिक विसंगतियों को लेकर चेताया जाता है। इन्होंने इस यात्रा और उसका फ़िल्मांकन सन 2011-2013 के बीच किया था। इसके आधार पर नोमैड्सलैंड (Nomadsland) नामक एक वेब इंटरैक्टिव फ़िल्म 2014 में रिलीज़ की थी। 2019 में फिर यह एक फ़ीचर डॉक्युमेंटरी के बतौर ‘चलो सखा उस देस में’  (एट होम वॉकिंग) फिल्म सामने आयी। इसे हाल ही में 2021 में केरल के अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव IDSFFK में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र का पुरस्कार मिला है।

 राजुला ने अनेक काव्य कृतियों का संपादन और अनुवाद किया ही है, देश-विदेश में प्रतिष्ठित मंचों से कविता पाठ भी किया है। ‘परछाई की खिड़की से’ नामक उनके कविता संग्रह ने भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार जीता। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं में राजुला की लघु कथाएँ, कविताएँ, रेखाचित्र और रेखाचित्र हुए हैं,उन्होंने कलाकारों और पुस्तकों के लिए ब्रोशर और फ़्लायर डिज़ाइन किए हैं और जनजातीय कलाकारों के जीवन, कला तथा शिल्प पर लघु वीडियो बनाए हैं। अनुभवी कारीगर और कुम्हार-कथाकार लोकनाथ राणा के कामों और कहानियों पर आधारित राजुला के वृत्तचित्र को काफ़ी पसंद किया गया। उल्लेखनीय है कि राजुला का मुख्य सरोकार लोक में व्याप्त वाचिक परम्परा से जुड़ा है।

राजुला शाह ने भारत और विदेशों में अनेक फ़िल्मोत्सवों, सम्मेलनों और कविता पाठों में भाग लिया है।

• उपलब्धियां  

 2000 : लघु फिल्म दो हफ्ते गुजरते दो हफ्ते लगते हैं।

 2005 : भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हिन्दी कविता संग्रह परछाई की खिड़की

 2005  : कुम्हार महिलाओं की जिंदगी पर बियोंड द व्हील डाक्यूमेंट्री का निर्माण

 2006  :  इला भट्ट की वी आर पुअर बट सो मैनी का हिन्दी अनुवाद, लड़ेंगे भी, रचेंगे भी।

 2006 :  सिनेमा पर एक निबंध ब्लैक स्क्रीन आइसीपीआर के जर्नल में प्रकाशित

 2008 : कबीर पर सबद निरंतर फ़िल्म का निर्देशन

 2009 : गोंड और भील जनजाति कलाकार पर शॉर्ट वीडियो

 2011 : विंसेंट वान गॉग के चुनिंदा पत्र का हिन्दी अनुवाद व सम्पादन ‘मुझ पर भरोसा  रखना’

2013 : ऐसा नहीं हुआ था ताहिरा लघु फिल्म की पटकथा व निर्देशन

2013 : नींद से लंबी रात का छै मिनट का पोएट्री म्यूजिक वीडियो, में प्रोडक्शन डिज़ाइनर।

2016 :  ऑफ एक्जाइल एंड किंगडम फिल्म डिविजन के लिए लघु वृत्तचित्र में छायाकार

2019 : चलो सखा उस देश में फ़िल्म का निर्देशन

2021 : विश्व सिनेमा पर किसका स्वप्न पुस्तक प्रकाशाधीन है।

राजुला के काम को अपने देश के साथ ही विदेशों में भी सराहा गया। अनेक अंतर्राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में इनके फिल्मों की स्क्रीनिंग की गई।

2006 : SIGNS फिल्म फेस्टिवल, तिरुवनंतपुरम

2008 : सिनेमा वैराइटी ईरान इंटरनेशनल डाक्यूमेंट्री फेस्टिवल, तेहरान

2010 : मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, इंडिया

2009 : केरल इंटरनेशनल वीडियो फेस्टिवल इंडिया

2009 : डॉक्सा फिल्म फेस्टिवल वैंकूवर कनाडा

2009 : पारनू एथनोग्राफिक फिल्म फेस्टिवल एस्टोनिया

2010 : गुग्गेनिहम म्यूजियम बर्लिन

2011 : डॉक लिपजिग जर्मनी

2011 : डॉकफेसट म्यूनिख में शबद निरंतर (Word within the word) डाक्यूमेंट्री फिल्म का वर्ल्ड प्रीमियर

2019 चेकोस्लाविया में चलो सखा उस देश में (At Home Walking) डाक्यूमेंट्री फिल्म का यूरोपियन प्रीमियर

2019 जापान के यामागाता में चलो सखा उस देश में (At Home Walking) डाक्यूमेंट्री फिल्म का वर्ल्ड प्रीमियर

• पुरस्कार

2004 :  भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा परछाईं की खिड़की से कविता संग्रह को नवलेखन पुरस्कार

2005 : बियोंड ड द व्हील को साइंज़ फ़िल्म फेस्टिवल का ज्यूरी अवार्ड

2008 : सबद निरंतर फिल्म को डोकफ़ेस्ट म्यूनिख जर्मनी में होरिज़ोंटे पुरस्कार

2013 : कथा लोकनाथ को साईंज़ में जॉन अब्राहम नेशनल अवार्ड

2014 : ऐसा नहीं हुआ था तहिरा के लिए जॉन अब्राहम नेशनल अवार्ड

2021 चलो सखा उस देस में को सर्वश्रेष्ठ दीर्घ वृत्तचित्र के लिए 13th IDSFFK अवार्ड

राजुला ने पांच साल तक राष्ट्रीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के लिए कोर्स तैयार किए तथा इन्हें संचालित किए।

वे अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले फिल्म समारोह की ज्यूरी रही है।

2019 :  पुणे अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव की ज्यूरी सदस्य

2017 : अंतरराष्ट्रीय डाक्यूमेंट्री फिल्म फेस्टिवल केरल की ज्यूरी सदस्य

2011 : नेशनल फिल्म अवार्ड की ज्यूरी सदस्य

• अन्य उपलब्धियां

2019 : कोर्स डायरेक्टर आलोचना फिल्म क्रिटिसिजम (ऑनलाइन)

2017 : कोर्स डायरेक्टर एशियन, इंडियन एस्थेटिक्स पर विंटर फिल्म एप्रिसिएशन कोर्स एफटीआईआई पुणे

2016 : नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के लिए फिल्म एप्रिसिएशन की कोर्स डायरेक्टर

2016 : हिन्दी में युवा लेखन के लिए कृष्ण बलदेव फैलोशिप

2006 : साहित्य अकादमी के गोल्डन जुबली में हैम्बर्ग में लेखक रेज़िडेन्सी

1999 : अंतरराष्ट्रीय स्टूडेंट फिल्म फेस्टिवल म्यूनिख में सहभागिता।

वर्तमान में राजुला एक फीचर फिल्म पर काम कर रही हैं ।

सन्दर्भ स्रोत : राजुला जी से श्रीमती वंदना दवे की बातचीत पर आधारित 

© मीडियाटिक

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