छाया: स्व संप्रेषित
प्रमुख लेखिका
• सारिका ठाकुर
वरिष्ठ लेखिका रश्मि रमानी हिंदी और सिंधी साहित्य में प्रमुख हस्ताक्षर मानी जाती हैं। हिंदी एवं सिंधी में वे अब तक कविता, अनुवाद, आलोचना,बाल-साहित्य एवं लोक-साहित्य की 30 पुस्तकें लिख चुकी हैं, किंतु यह सब उन्हें सरलता से प्राप्त नहीं हुआ, बल्कि इसके पीछे पीड़ा और संघर्ष की एक महागाथा छिपी हुई है। वे अपने साहित्यिक जीवन को “कतरनों का बंदनवार” कहती हैं, हवा के हर झोंके के साथ, वे उनकी उपलब्धियों का अहसास कराने के साथ-साथ संघर्ष भरे अतीत की चौखट पर ला खड़ा कर देती हैं।
रश्मि जी का जन्म इंदौर, म.प्र. में अप्रैल 1960 को हुआ। उनके पिता श्री लीलाराम भागचंदानी उद्योग विभाग में क्लर्क थे और माता लाजवंती जी एक कुशल गृहिणी थीं। रश्मि जी का परिवार 1947 के भारत विभाजन के समय, सिंध (पाकिस्तान) से विस्थापित होकर भारत आया था। उनकी माँ रईस खानदान से थीं लेकिन बंटवारे के बाद सब बिखर गया। पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ी रश्मि जी की दो छोटी बहनें जन्म के अल्प समय के बाद गुज़र गईं, जिसके कारण परिवार में उन्हें बहुत ही लाड़-प्यार और एहतियात से रखा जाता था। निःसंदेह भाइयों की तुलना में उनकी परवरिश ज्यादा बेहतर हुई। उन दिनों लड़कियों की पढ़ाई को लेकर कोई उन्नत अवधारणा नहीं थी, लेकिन माता पिता ने पढ़ाई में कोई रूकावट नहीं आने दी।
रश्मि जी की प्रारंभिक शिक्षा मंदसौर में हुई, और हायर सेकेंडरी उन्होंने रतलाम से की। सरकारी नौकरी में तबादला होने पर, पिता जहां जाते, परिवार भी उनके साथ जाता। उनकी माँ एक सुलझी हुई ख़ुशमिज़ाज महिला थी। कम पैसों में घर को सुचारू रूप से चलाना उन्हें बख़ूबी आता था। वैसे एक मध्यमवर्गीय परिवार की जो भी चुनौतियां होती हैं उसका सामना तो उनका परिवार कर ही रहा था।उनके ननिहाल में धार्मिक पुस्तकों का विशाल भंडार था । पिताजी पांच भाषाएँ जानते थे। माँ-पिताजी दोनों की पढ़ने में रूचि थी। इसके अलावा स्कूल के सामने एक व्यक्ति हिन्दी में अनूदित रूसी पत्रिकाएं और पुस्तकें बेचता था, उनके चित्र रंग-बिरंगे होते थे, और वे सस्ती भी होती थीं, जिन्हें ख़रीदने में उन्हें मुश्क़िल नहीं होती थी। बचपन में किताबों का उनका संसार यही था।बचपन में हालाँकि बहुत ही दुबली-पतली-सी थीं, लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में विशेषकर वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में ख़ूब बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती थीं। वे मात्र 12 साल की थीं जब उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई। पढ़ाई में वे ठीक-ठाक ही थीं, लेकिन स्कूली किताबों से इतर उन्हें पढ़ने का भारी शौक था। वे दो -तीन सरकारी और निजी पुस्तकालयों की सदस्य थीं, जहां से वे मनपसंद किताबें लातीं।
ये किताबें उनके भीतर एक अलग ही दुनिया बना रहीं थीं, जिसके बारे में उनके सिवा कोई नहीं जानता था, या फिर यह कहना चाहिए कि ठीक-ठीक तो उन्हें भी पता नहीं था। वर्ष 1976 में हायर सेकेंडरी करने के बाद, उन्होंने रतलाम के गवर्नमेंट गर्ल्स डिग्री कॉलेज में दाखिला लिया। वहां हिन्दी साहित्य, इतिहास, अंग्रेजी और अर्थशास्त्र विषयों ने जैसे उनकी विचार भूमि का निर्माण किया। लेकिन वे विषय मात्र पढ़ने के लिए ही थे, जिसे वे बड़ी ईमानदारी से निभा रही थीं। साहित्य से लगाव था इसलिए हिन्दी और अंग्रेज़ी – दोनों विषयों से बड़ी स्नेहिल-सी दोस्ती हुई और सन् 1979 में उन्होंने स्नातक की उपाधि हासिल कर ली। ग्रेजुएशन के होते ही रतलाम कलेक्ट्रेट में उनकी नौकरी लग गयी थी।
इधर कॉलेज में प्रवेश लेते ही घरेलू स्तर पर समस्याओं की शुरुआत हो गयी, क्योंकि घर में रिश्ते आने लगे थे। उनकी चचेरी, ममेरी और मौसेरी बहनें 17-18 की उम्र में शादी करके घर बसा चुकी थीं और जब तक रश्मि जी का ग्रेजुएशन पूरा हुआ, तब तक उनकी बहनें एक-दो बच्चों की माँ बन चुकी थीं। रश्मि जी की माँ की भी यही इच्छा थी लेकिन रश्मि जी ने हिंदी साहित्य से स्नातकोत्तर करने का फ़ैसला किया। क्योंकि वे प्रोफ़ेसर बनना चाहती थीं। सो उनकी पढ़ाई और नौकरी दोनों साथ-साथ चलने लगीं। 1981 में उनके एम.ए. की पढ़ाई पूरी हुई, उससे पहले ही बहुत ही अच्छे वेतन में उनकी नियुक्ति म.प्र. विद्युत् मंडल में हो गई।पुरानी नौकरी छोड़कर उन्होंने नई जगह आमद दे दी। यह वह दौर था जब वे आत्मविश्वास से भरी हुई थीं।
उसी दौरान कुछ और महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। उनकी मुलाकात अश्विनी कुमार रमानी से अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय अधिवेशन इंदौर के दौरान हुई। रश्मि जी छात्र संघ की सचिव थीं, जबकि रमानी साहब इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे। पहली मुलाक़ात में रश्मि जी को लगा कि वे तो बहुत ही जीनियस हैं और यह सच भी था। रमानी साहब मेरिट में पंजाब बोर्ड में पांचवा स्थान रखते थे। उनके पिता रेलवे में कार्यरत थे। 1977 में रमानी साहब से हुई वह एक सामान्य-सी मुलाकात थी। इसके बाद वर्ष 1978 में वे रश्मि जी से फिर मिले और इस बार ‘प्रपोज’ कर दिया। रश्मि जी ने कहा इस तरह के प्रस्ताव में मेरा यक़ीन नहीं है, मैं तो बस शादी को ही मानती हूँ। इसके बाद रमानी साहब की नौकरी लग गई और वे बैंगलोर चले गए। 1982 में रमानी जी फिर आए लेकिन इस बार उन्होंने विवाह प्रस्ताव रखा जिसे सहज ही उन्होंने स्वीकार कर लिया, परिवार की ओर से भी आपत्ति नहीं हुई। लेकिन तब तक रश्मि जी पीएचडी के लिए अपना पंजीयन करवाने के बाद उस पर काम शुरू कर चुकी थीं। एक-दो अध्याय का लेखन कार्य शेष था, जब 16 जनवरी 1983 को उनका विवाह हो गया, और वे इसरो में कार्यरत अपने पति के साथ बैंगलौर आ गईं।
अमूमन विवाह के बाद के कुछ महीने या साल जीवन के सबसे ख़ूबसूरत दिनों में गिने जाते हैं, जबकि रश्मिजी का जीवन रोलर-कोस्टर बन गया। विवाह के सातवें दिन ही पिता चल बसे, डेढ़-दो महीने बाद उनके एक भाई की ट्रेन दुर्घटना में मौत हो गई। इसी सदमें में तीन महीने व्यतीत हो गए जो असीम दुखों के बाद भी पति के साथ बिताए गए सुनहरे पल थे। कुछ समय के बाद रश्मि जी के पति महू में स्थापित मिलिट्री कॉलेज में आ गए। वे रोज़ाना इंदौर से महू आना-जाना करते थे। इस कारण रश्मि जी ने नौकरी से लम्बी छुट्टी ले ली, लेकिन वे फिर नौकरी में लौट न सकीं, न ही उनकी पीएचडी पूरी हो सकी। इंदौर में बड़े संयुक्त परिवार में उनसे मात्र एक आदर्श बहू बनकर रहने की अपेक्षा की गई और इस तरह रसोईघर उनका पूर्णकालिक कार्यस्थल बन गया। हालाँकि घूंघट का प्रतिबन्ध नहीं था। सबसे दुखद बात यह थी कि किताबों से नाता टूट गया। शिक्षित परिवार होने के बावजूद पत्र-पत्रिकाओं या पुस्तकों के प्रति उनके ससुराल में किसी को रुचि नहीं थी। रश्मि जी को भी यह रियायत नहीं थी कि वे किताबें खरीद सकें। पति अपना सारा पैसा या तो स्वयं रखते या परिवार को दे देते। छोटे-मोटे ख़र्चे के लिए भी उनके पास पर्याप्त पैसे नहीं होते थे । लेकिन किसी चीज़ की कमी भी नहीं रखी गयी। यह एक विचित्र, किंतु त्रासद स्थिति थी कि यात्राओं के शौक़ीन उनके पति उन्हें तरह-तरह के उपहारों से लाद देते, लेकिन रश्मि जी के पास ख़र्चने के लिए पैसों की तंगी बनी रही ।
जब सभी रास्ते बंद हो गए तब कलम ने सहारा दिया। वे कविताएं लिखने लगीं। इस नीरस और बोझिल जीवन में खुशियाँ तब आई जब उनकी पहली बच्ची का जन्म हुआ, लेकिन यह भी किसी अपराध से कम नहीं था, क्योंकि परिवार को उनसे बेटे की उम्मीद थी। दूसरी बच्ची के समय उन पर लिंग परीक्षण का दबाव डाला गया जिसे उन्होंने नकार दिया। इसके बाद तो उनकी ज़िन्दगी मुश्क़िल होती चली गई। उनके पति हर नई नौकरी के साथ सफलता की नयी सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे, जबकि रश्मिजी के लिए तमाम रास्ते तब तक बंद हो चुके थे। एक बार उन्होंने अपनी कविता एक पत्रिका को भेज दी और वह छप गई, उससे कुछ पैसे भी मिले। उनकी हिम्मत बढ़ी और अन्य पत्रिकाओं में भी उन्होंने कविताएँ भेजनी शुरू कर दी। यह शुरुआत बंद दरवाजे की झिर्रियों से आ रही सूरज की किरणों की तरह थी। लेखन ने उन्हें न केवल संबल दिया बल्कि आत्मविश्वास का भी संचार किया। अब वे अपने पैसों से किताबें और पत्रिकाएं खरीदने लगीं हालाँकि पढ़ने के बाद उन्हें वे कूलर में या घर के स्टोर रूम में छिपा देतीं। लिखने-पढ़ने के लिए चारों ओर से तानों की भी बरसात होने लगी लेकिन बहुत धीरे ही सही, उम्मीद दरवाजे पर दस्तक़ दे रही थी।
आकाशवाणी इंदौर केंद्र घर के पास ही था, एक दिन यूं ही अपनी कविताएं आकाशवाणी केंद्र को डाक से भेज दीं । उसके बाद से कविता पाठ के लिए आकाशवाणी से भी बुलावा आने लगा। आगे चलकर उन्होंने कैजुअल अनाउंसर की परीक्षा भी पास कर ली। वर्ष 1995 में उन्हें उदय भारती राष्ट्रीय युवा कविता पुरस्कार, वर्णमाला ओडिशा से पुरस्कृत किया गया लेकिन वे पुरस्कार समारोह में सम्मिलित नहीं हो सकीं क्योंकि, उन्हें भुवनेश्वर (ओडिशा) लेकर जाने वाला कोई नहीं था, इसके अलावा किसी को विश्वास भी नहीं था कि वे पुरस्कृत हो सकती हैं। कुछ दिनों के बाद उनके पास पुरस्कार की राशि 5000 रूपए भेज दी गई। फोन पर उनका साक्षात्कार लिया गया । इसके बाद उनके पति विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में चार वर्षों के लिए यूनिवर्सिटी पुत्रा, मलेशिया गए, पति और दोनों बच्चों के साथ रश्मि जी भी वहां गईं। इस बीच ननदों का विवाह हो गया और उनके ससुर भी चल बसे। उनकी सास अपने दूसरे पुत्र के साथ रहने लगीं थीं। मलेशिया से लौटने के बाद उन्हें पता चला कि म.प्र. साहित्य परिषद् म.प्र. के लेखकों की पहली पांडुलिपि को प्रकाशित करती है। रश्मि जी ने अपनी पांडुलिपि उन्हें भेज दी। लम्बे समय तक कुछ नहीं हुआ। एक बार रश्मि जी अपने पति के साथ भोपाल आईं क्योंकि उनके पति को राधाकृष्णन् सम्मान से सम्मानित किया जाना था। जब वे साहित्य परिषद् में अपनी पाण्डुलिपि के बारे में पता करने पहुंची तो देखा कि उसका तो लिफाफा भी नहीं खुला था। उन्होंने उसी पाण्डुलिपि को “साज़ चुप है” के नाम से प्रकाशित करने के लिए दोबारा आवेदन किया जो अनुदान प्राप्त हो जाने के बाद वर्ष 1997 में प्रकाशित हो गई। इस पुस्तक को केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली ने पुरस्कृत किया।
अब तक हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में रश्मि जी की पूछ-परख होने लगी थी। अब वे विज़िटिंग प्रोफ़ेसर के तौर पर कॉलेजों में पढ़ाने लगीं। पति की इच्छा यह थी उनके घर से निकलते और लौटते समय, बच्चों के स्कूल से लौटते समय उन्हें अनिवार्य रूप से घर में रहना है। नौकरी के साथ इस इच्छा का निर्वाह मुश्किल नहीं था। उनकी किताबें भी छपने लगीं, हिन्दी के साथ अब वे सिन्धी में भी हाथ आजमाने लगीं थीं। सिन्धी लिपि सीखने में एक महिला ने मदद की जो महज़ चौथी पास थी। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
सिन्धी भाषा के महान साहित्यकार कृष्ण खटवानी जी की रश्मि जी द्वारा अनूदित सोलह कहानियां नई दुनिया में प्रकाशित हुईं, जो बहुत प्रशंसित हुईं। इसके बाद सौ से अधिक सिन्धी लेखकों का अनुवाद उन्होंने किया। वर्ष 2002 -2007 तक वे साहित्य अकादमी के सिन्धी सलाहकार मंडल की सदस्य बन गईं। वर्ष 2004 में भारतीय लेखकों का शिष्ट मंडल पंद्रह दिनों के लिए पकिस्तान गया जिसमें रश्मि जी भी शामिल थीं। इस यात्रा को वे अपने जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ कहती हैं। इसके बाद लेखन में उनकी व्यस्तता बढ़ती चली गई और पढ़ाना छूट गया, हालांकि आकाशवाणी से जुड़ाव बना रहा। कृष्ण खटवानी जी की जिन कहानियों का उन्होंने अनुवाद किया था, उन्हें संग्रह के रूप में ‘अपने-पराये’ नाम से भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया। बाद में इन कहानियों का नाट्य रूपांतरण भी हुआ। वर्ष 2010 में नेशनल बुक ट्रस्ट नई दिल्ली से रश्मि रमानी का सिंधी लोक कथाओं का संग्रह “सिंधी लोक कथाएं” नाम से सिंधी एवं हिंदी दोनों ही भाषाओं में प्रकाशित हुआ।
अब तक बच्चे बड़े चुके थे और अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त थे, पति अपनी नौकरी और वैज्ञानिक अनुसंधान में व्यस्त थे और अब तक उनके काम के महत्व के साथ रश्मि जी को भी समझने लगे थे। वे कभी-कभार ही उनके कार्यक्रमों में शामिल हो पाते थे लेकिन किताबें छपवाने में खुले दिल से मदद करते थे। इन सुकून भरे लम्हों की उम्र भी बहुत छोटी थी। वर्ष 2011 में मात्र बावन वर्ष की आयु में उनके पति का कार्डियक अरेस्ट से निधन हो गया। उसके बाद से रश्मि जी ने स्वयं को लेखन के प्रति पूरी तरह समर्पित कर दिया। रश्मि जी के लिए उनकी लेखनी ने हमेशा मुश्किल वक्त में दर्द निवारक का काम किया है।
रश्मि जी की दो बेटियां है। बड़ी बेटी एच.आर. में एमबीए करने के बाद पुणे में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत है एवं दूसरी बेटी ने सूचना-प्रौद्योगिकी में एम-टेक. किया और गृहिणी हैं,
उनके पति इंडियन नेवी में कार्यरत हैं।
उपलब्धियां
• हिन्दी कविता संग्रह- साज़ चुप है, बीते हुए दिन, स्मृति एक प्रेम की, सदियों पहले मुअनजोदड़ो में, सत्तावन कविता स्वप्न
• साहित्य अकादमी की भारतीय साहित्य के निर्माता श्रृंखला के अंतर्गत श्री कृष्ण खटवाणी पर मोनोग्राफ.
• सिंध की लोककथाओं का अनुवाद नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया से प्रकाशित.
• अपने पराये (लेखक कृष्ण खटवाणी) अनूदित कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली से प्रकाशित.
• अमर प्रेम, सात दिन उपन्यासों का सिंधी से हिंदी में अनुवाद.
• समकालीन सिंधी कहानियां, ‘स्वतंत्रता के पश्चात सिंधी की नई कविता’ का अनुवाद, पिञिरो, कडहिं कडहिं, मां हिक सिंधिण, जलावतन वारिस,कुझु कवीताऊँ के ख़्वाब,सोनी बिलिड़ी (बाल कविताएं) सिंधी कविता संग्रह. सिंधी लोक कथाऊं, कांऊं ऐं झिरकी सिंधी लोक कथा संचयन. सिंधी बाल गीत (अनुवाद), कौआ और चिड़िया (सिंध की लोककथाओं का हिंदी अनुवाद).
• स्वयं की कविताओं के अनुवाद गुजराती, मराठी, पंजाबी, कन्नड़, उड़िया, बांग्ला एवं अंग्रेजी में प्रकाशित.
• ‘सिंध: इतिहास संस्कृति एवं साहित्य’ विषय पर संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार की सीनियर फैलोशिप.
सम्मान/पुरस्कार
• वर्णमाला संस्था उड़ीसा का राष्ट्रीय उदय भारती युवा कविता पुरस्कार-1995
• केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय पुरस्कार, नई दिल्ली 1997-98
• म.प्र. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति भोपाल द्वारा हरिहर निवास द्विवेदी पुरस्कार-1999
• सिंधी अकादमी भोपाल मध्यप्रदेश का श्रेष्ठ कृति पुरस्कार 2006
• राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद् नई दिल्ली का श्रेष्ठ साहित्य पुरस्कार 1999-2000
• अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति पुरस्कार 2007
• सिंधी अकादमी मध्यप्रदेश द्वारा आजीवन साहित्य साधना के लिये गौरव पुरस्कार 2013
• एन.सी.पी.एस.एल. नई दिल्ली का मेरिट लिटरेरी अवार्ड 2013
• म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा भारतीय भाषाओं में अनुवाद श्रेणी में सप्तपर्णी सम्मान 2020
सन्दर्भ स्रोत : रश्मि जी से सारिका ठाकुर की बातचीत पर आधारित
© मीडियाटिक
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