दुर्गा बाई व्याम- गोंड कला के लिए समर्पित जीवन

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दुर्गा बाई व्याम- गोंड कला के लिए समर्पित जीवन

छाया: डॉ. राजेंद्र कुमार सिंह के ट्विटर अकाउंट से 

लोक कलाकार

•  सीमा चौबे

मध्यप्रदेश की प्रमुख आदिवासी महिला लोक कलाकारों में से एक दुर्गा बाई व्याम कभी स्कूल नहीं गईं लेकिन अपने हुनर के दम पर ऐसे मुकाम पर पहुंच गई हैं, जहाँ उड़ान के लिए आसमान भी छोटा पड़ गया। छह साल की उम्र से ही अपनी दादी से डिगना (शादी-विवाहों और उत्सवों के मौकों पर दीवारों और फर्श पर की जाने वाली परंपरागत चित्रकारी) कला सीखी। गरीबी में पली-बढ़ी दुर्गाबाई ने विपरीत परिस्तिथियों में संघर्षों के साथ काम करते हुए गोंड भित्ति चित्रों के जरिए अपनी अलग पहचान बनाई और इसी कला ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार तक पहुंचा दिया।  

दुर्गा बाई का जन्म वर्ष 1974 में डिंडोरी जिले के ग्राम बुरबासपुर में एक गरीब परिवार में हुआ। उनके पिता चमरू सिंह परस्ते तथा माता रामवती परस्ते गाँव में खेती किसानी और मजदूरी किया करते थे। चार भाई-बहनों में दूसरे नम्बर की दुर्गा जब हमउम्र लड़कियों को पढ़ते देखतीं, तो उनका मन भी स्कूल जाने का होता, लेकिन घर की माली हालात ऐसी नहीं थी कि उनके बच्चों की पढ़ाई का बोझ उठाया जा सके। छोटी उम्र में जब उन्हें खुद ही देखभाल की जरूरत थी, उन पर छोटे भाई-बहनों और घर के कामकाज की जिम्मेदारियों का बोझ आ गया। इतना ही नहीं, उन्हें पशु चराने जंगल भी जाना होता। समय मिलने पर वे खेती किसानी के कार्य में भी माता-पिता का सहयोग करतीं।

महज 15 साल की उम्र में उनका विवाह डिंडोरी जिले के सनपुरी ग्राम निवासी मूर्तिकार सुभाष सिंह व्याम से हो गया। सुभाष खुद मिट्टी और लकड़ी की मूर्तियां बनाने के लिए जाने जाते थे। तीन बच्चों (एक बेटा और 2 बेटी) के जन्म के बाद उनके जीवन यापन में काफी दिक्कतें आने लगी। 26 जनवरी 96 का दिन उनकी जिन्दगी में रोशनी लेकर आया। दरअसल लोकरंग उत्सव के लिए उनके पति को भोपाल के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में लकड़ी से आकृतियां बनाने के लिए आमंत्रित किया गया था। वे अपने पति और तीनों बच्चों के साथ भोपाल आ गईं। इस तरह अपने पति के साथ उन्होंने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल द्वारा आयोजित लोककला शिविर से अपनी रचनात्मक यात्रा शुरू की।

भोपाल आने के बाद दुर्गा बाई की प्रतिभा को जनगढ़ सिंह श्याम और आनंद सिंह श्याम जैसे गोंड कलाकारों ने पहचाना और उन्हें गोंड चित्रकला के नए-नए कौशल सिखाए। जनगढ़ ने उन्हें रंगों और कूचियों की मदद से कैनवास पर पेंटिंग बनाना सिखाया और प्रोत्साहित कर आगे बढ़ने में मदद की। भोपाल आने के बाद दुर्गाबाई के सपनों को पंख लग गए, लेकिन मामूली पैसों में घर चलाना कठिन होता जा रहा था। ऐसे में उन्होंने लोगों के घरों में झाड़ू-पोछा करने का काम भी किया। दुर्गा बाई बताती हैं कि हम मजदूरी के बाद कुछ रूपये इकट्ठे कर वापस गांव जाना चाहता थे, लेकिन धीरे-धीरे पेंटिंग का काम चल निकला। प्रारम्भ में जरूर उन्हें समस्याएं आईं पर बाद में उनकी कला की कद्र की जाने लगी।

पहली बार वर्ष 1997 में आनंद सिंह श्याम के कहने पर वे सरगुजा से आई महिलाओं के समूह के साथ भारत भवन में आयोजित जनजातीय चित्रकारी के  शिविर में शामिल हुईं। उस समय उनकी पेंटिंग 10 हजार रुपए में बिकी थी। भोपाल के बाहर उनकी पहली प्रदर्शनी वर्ष 99 में दिल्ली के प्रगति मैदान में प्रदर्शित हुई। इसके बाद मौके मिलते गए और भारत के कई बड़े शहरों सहित दुबई, लंदन, जर्मनी आदि स्थानों पर प्रदर्शनी में भाग लिया। दिल्ली पर्यटन द्वारा वर्ष 2002 में जर्मनी के फ्रैंकफर्ट में प्रदर्शनी और पुस्तक मेले के लिए दुर्गाबाई को पहली बार विदेश गईं। जब कभी दुर्गाबाई को कला प्रदर्शनी में हिस्सा लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है, वे यह सुनिश्चित करती हैं कि उनके पति और तीनों बच्चे भी उनके साथ जाएं।

दुर्गा बाई बताती हैं प्रगति मैदान में कंचना मैडम ने उनका काम देखने के बाद पुस्तकों के आवरण पृष्ठ का काम दिलवाया। पहली बार एकलव्य संस्था की एक पुस्तक के आवरण के लिए चित्र बनाया। वर्ष 2003 में चेन्नई में तारा पब्लिशिंग, चेन्नई  द्वारा एक कार्यशाला में आमंत्रित किया गया और तब से अब तक वे दर्जन भर किताबों के लिए चित्र बना चुकीं हैं। 'तारा' द्वारा प्रकाशित चुरकी-बुरकी पुस्तक में दुर्गा बाई ने अपने बचपन और जीवनी को कागजों में उकेरा है। वे अब तक ‘द नाइट लाइफ ऑफ ट्रीज’, ‘वन-टू-थ्री’, ‘सुल्ताना ड्रीम’ जैसी अनेक कला पुस्तकों को चित्रित करने में योगदान दे चुकी हैं। वे खुद पढ़ाई नहीं कर पाई, लेकिन गांव के बच्चों को पढ़ाने के लिए डिगना चित्रकारी के जरिए चूहा, छिपकली, चिड़िया और पेड़ के चित्र बनाकर गिनती सीखने के लिए  वन-टू-थ्री शीर्षक से किताब तैयार की। दुर्गा बाई की सबसे चर्चित किताब अंबेडकर के जीवन को दिखाती ‘भीमायना’ है, जो 11 अलग-अलग भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है। यह पुस्तक विदेशों भी खासी लोकप्रिय हुई है।

पद्मश्री सम्मान मिलने से उत्साहित दुर्गाबाई कहती हैं कि उनके समुदाय के बच्चे इस कला में माहिर हैं वे इसे और बढ़ावा देना चाहती हैं, ताकि उनकी प्राचीन परंपराएं हमेशा बरकरार रहे। वे कहती हैं अच्छा लगता है जब आज की पीढ़ी - चाहे वह बड़े शहरों की हो या विदेश की, इसे सीखना चाहती हैं। दुर्गाबाई अपने पति के साथ मिलकर इस कला को बढ़ावा देने के लिए तीन वर्ष पहले 2019 में स्थापित ‘डिगना कला माध्यम’ नाम से संस्था भी चला रही हैं, जिसमें दिल्ली, मुंबई और चेन्नई से बच्चे सीखने आ रहे हैं। जर्मनी के बच्चों को वे ऑनलाइन सिखा रही हैं।

उनके तीनों बच्चों बेटे मानसिंह (राज्य स्तरीय पुरस्कार प्राप्त), बेटी रोशनी और रजनी ने भी इसे सीखा है। वे अब अपनी बहू सहोदरा को भी यह कला सिखा रही हैं। वर्तमान में दुर्गाबाई जनजाति संग्रहालय भोपाल की तरफ से नर्मदा को लेकर चलाए जा रहे कार्यक्रम के तहत खजुराहो म्यूजियम के लिए ‘नर्मदा मैया’ की यात्रा पर 200 फीट के कैनवास पर पति के सहयोग से काम कर रही हैं।  

पुरस्कार /सम्मान

वर्ष 2022 में पद्मश्री सम्मान हासिल कर चुकी दुर्गाबाई को दुर्गावती राष्ट्रीय अवार्ड, विक्रम अवार्ड, बेबी अवार्ड और महिला अवार्ड सहित अनेक राज्य स्तरीय पुरस्कार मिल चुके हैं। वर्ष 2004 में दुर्गाबाई को हस्तशिल्प विकास परिषद द्वारा सम्मानित किया गया। वर्ष 2006-2007 के लिए आईजीएनसीए स्कालरशिप प्राप्त, वर्ष 2008 में दुर्गाबाई (दो अन्य गोंड कलाकारों राम सिंह उर्वेती तथा भज्जू‍ श्याम) को तारा पब्लिशिंग द्वारा प्रकाशित बच्चों  की किताब “द नाइट लाइफ आफ ट्रीज” में उनके चित्रों के लिए इटली में बोलोग्ना राग़ाजी पुरस्कार (अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार) से अलंकृत किया जा चुका है। 

संदर्भ स्रोत - श्रीमती दुर्गाबाई द्वारा सम्प्रेषित सामग्री तथा सीमा चौबे से बातचीत पर आधारित 

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