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प्रमुख चिकित्सक
डॉ. भक्ति यादव का जन्म उज्जैन के निकट स्थित महिदपुर गाँव में 3 अप्रैल 1926 को हुआ था। उस समय लड़कियों को पढ़ाने का चलन बिलकुल नहीं था। उन्होंने आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की। उनका परिवार भी प्रगतिशील विचारों वाला था। उनके पिता ने आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें पास के गरोठ कस्बे में भेज दिया, जहां सातवीं तक उन्होंने पढ़ाई की। इसके बाद उनके पिता इंदौर आ गए और भक्ति जी का नामांकन अहिल्या आश्रम स्कूल में करवा दिया। उस समय इंदौर में छात्रावास की सुविधा वाली वही एकमात्र लड़कियों का स्कूल था। यहीं से उन्होंने 11वीं का इम्तिहान दिया और अच्छे अंकों से पास हुईं। सन 1948 में उन्होंने होलकर साइंस कॉलेज में दाख़िला लिया और बीएससी प्रथम वर्ष में पूरे कॉलेज में अव्वल रहीं.
मेडिकल की पढ़ाई उन्होंने महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज से की। वे इस कॉलेज की पहली बैच की अकेली लड़की थीं। इस बैच में कुल 40 छात्र थे। 1952 में भक्ति डॉक्टर बन गयीं और मध्य भारत की पहली एमबीबीएस डॉक्टर बनने का गौरव हासिल किया। उन्होंने उसी कॉलेज से बाद में एमएस भी किया। उन्हें मध्यप्रदेश की पहली महिला रोग विशेषज्ञ माना जाता है। डॉ. यादव ने 1962 में अपने शोध पत्र ‘प्रेग्नेंसी इन अडोलसेंस ‘ में ही यह उल्लेख किया था कि आने वाले समय में सामाजिक मूल्यों के ह्रास के कारण 12 से 17 वर्ष की आयु की बालिकाओं में गर्भ धारण की समस्या सबसे ज़्यादा होगी।
1957 में वे अपने सहपाठी डॉ.चन्द्रसिंह यादव के साथ विवाह सूत्र में बंध गयीं। डॉ. भक्ति यादव को देश के बड़े-बड़े सरकारी अस्पतालों से नौकरी का बुलावा आया, लेकिन उन्होंने लेकिन उन्होंने इंदौर की मिल इलाके का बीमा अस्पताल चुना । वे आजीवन इसी अस्पताल में नौकरी करते हुए मरीज़ों की सेवा करते रहीं। उन्हें इंदौर में मजदूर डॉक्टर के नाम से जाना जाता था। डाक्टर बनने के बाद इंदौर के सरकारी अस्पताल महाराजा यशवंत राव अस्पताल में उन्होंने सरकारी नौकरी की,जिससे बाद में उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने फिर भंडारी मिल द्वारा संचालित नंदलाल भंडारी प्रसूति गृह में बतौर स्त्री रोग विशेषज्ञ अपनी सेवाएं दीं।
1978 में भंडारी अस्पताल बंद हो गया तो उन्होंने वात्सल्य के नाम से उन्होंने घर पर नर्सिंग होम की शुरुआत की। वे संपन्न परिवार के मरीज़ों से भी नाम मात्र का फ़ीस लेती थीं, जबकि ग़रीबों को निःशुल्क सेवा देती रहीं। अपनी मृत्यु से पहले 20 सालों से वे बिना किसी फीस के इलाज कर रही थीं।निस्वार्थ भाव से मरीजों की सेवा करने के कारण ही लोग उन्हें ‘डॉ. दादी’ कहा जाता था। कई महिलाओं ने डॉक्टर की बजाय अपनी मां का दर्जा दिया था। इंदौर में उनकी मिसाल सेवा की प्रतिमूर्ति के रूप में दी जाती थी। 2014 में 89 वर्ष की आयु में उनके पति का देहांत हो गया। इसके बाद भी उन्होंने अपने काम से अवकाश लेने के बारे में नहीं सोचा. वह निरंतर काम कर रही थीं जबकि 2011 से ही वह ऑस्टियोपोरोसिस नामक ख़तरनाक हड्डियों की बीमारी से ग्रस्त थीं। उनका वजन लगातार घटते हुए मात्र 28 किलो रह गया था।
डॉ. यादव को उनकी सेवाओं के लिए डॉ. मुखर्जी सम्मान से नवाज़ा गया। 64 साल के करियर में डॉ. यादव ने एक लाख से ज़्यादा प्रसूतियाँ करवाईं। भारत सरकार ने इस उपलब्धि के लिए उन्हें जनवरी 2017 में पद्मश्री से सम्मानित किया। तब तक उनकी आयु 91 वर्ष की हो चली थी। उसी वर्ष 14 अगस्त को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। वर्तमान में उनके अस्पताल का संचालन उनके बच्चे कर रहे हैं।
संपादन: मीडियाटिक डेस्क
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