क्या वैचारिक बदलाव के लिए तैयार होगा समाज

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क्या वैचारिक बदलाव के लिए तैयार होगा समाज

छाया : आज तक तथा हिन्दी पथ डॉट कॉम

• सर्वमित्रा सुरजन

दिग्गज कारोबारी सायरस मिस्त्री की कार दुर्घटना में मौत के बाद देश में यातायात के सुरक्षा मानकों पर चर्चा तेज हो गई। कायदे से तो ऐसी चर्चाओं के लिए किसी मौके का इंतजार नहीं होना चाहिए, लेकिन बहुत से मामलों में हिंदुस्तानियों की फितरत आग लगने पर कुआं खोदने वाली होती है। कार में सीट बेल्ट लगाने या दोपहिया वाहन की सवारी के दौरान हेलमेट पहनने से दुर्घटना होने पर भी हताहत होने की आशंका कम रहती है, यह बात जानते हुए भी आमतौर पर हिंदुस्तानी सीट बेल्ट और हेलमेट के उपयोग से बचते हैं। इनके इस्तेमाल के लिए सरकार ने कानून भी बनाए हैं, मगर उनके पालन में कोताही बरती जाती है। लेकिन अब एक दुर्घटना के बहाने फिर से इन सुरक्षा मानकों पर बात होने लगी है, जो अच्छी बात है। लेकिन यह गंभीर विषय भी सोशल मीडिया पर मज़ाक का मुद्दा बन गया है। पिछले दिनों कई ऐसी पोस्ट देखने मिलीं, जिनमें लिखा था कि सीट बेल्ट लगाने की इतनी नसीहतें मिल गई हैं कि लगता है अब घर के सोफे पर भी सीट बेल्ट लगाकर बैठ जाऊं। जिंदगी को लेकर या जिंदगी के मामले में ऐसा हास-परिहास, शायद भारत में ही मुमकिन है। हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला, जैसी पंक्तियों को हम कहीं भी चरितार्थ कर सकते हैं।

बहरहाल, सारे हंसी-मज़ाक के बीच भी सीट बेल्ट की अनिवार्यता को लेकर गंभीर विमर्श होते रहे और अब इससे जुड़ा एक विज्ञापन भी सामने आया है, जिस पर विवाद खड़ा हो गया है। दरअसल नेकनीयत से बनाए गए इस विज्ञापन में एक गंभीर लापरवाही की गई है। फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार इस विज्ञापन के केंद्र में हैं, जो पुलिस की भूमिका में हैं। विज्ञापन में दिखाया गया है कि बेटी की विदाई पर पिता रो रहा है और पुलिस वाला उनसे कहता है कि ऐसी कार दी है, तो रोना ही आएगा। जिस पर पिता कार की सारी खूबियां गिनाता है, लेकिन पुलिस वाला ध्यान दिलाता है कि सीट बेल्ट तो केवल दो हैं। उसके बाद पिता बेटी के लिए छह सीट बेल्टों वाली कार देता है। कार में सवार सभी लोगों के लिए सुरक्षा का जो संदेश देना है, वह मकसद इस विज्ञापन से पूरा होता है। इसलिए केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने भी इस विज्ञापन को अपने सोशल मीडिया हैंडल पर डाला। लेकिन श्री गडकरी, अक्षय कुमार समेत इस विज्ञापन को बनाने से जुड़े तमाम लोगों ने शायद इस ओर ध्यान नहीं दिया कि शादी में एक पिता का अपनी लड़की के लिए कार देना, सीधे-सीधे दहेज देने का उदाहरण है। सड़क पर सुरक्षा की बात तो कर ली गई, लेकिन दहेज जैसी कुप्रथा के कारण इस देश की लाखों लड़कियों की जिंदगी हमेशा ही खतरे में पड़ी रहती है, इस बात की ओर विज्ञापन निर्माताओं का ध्यान नहीं गया।

दहेज की इस बुराई को केवल कानून बनाकर खत्म नहीं किया जा सकता, ये बात हमारे नीति नियंता जानते हैं। इसके लिए सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। लड़के-लड़की को एक समान मानने के क्रांतिकारी विचार को जीवन में उतारा जाएगा, तभी दहेज जैसे रोग खत्म हो सकते हैं। लेकिन लड़का-लड़की सही में एक बराबर मान लिए जाएंगे, तो फिर पुरुष सत्ता का अस्तित्व खत्म हो जाएगा। इसलिए ऊपरी तौर पर लड़का-लड़की एक समान की बातें होती हैं और हकीकत में लड़कियों को दोयम दर्जे पर ही रखा जाता है। लड़कियों को पढ़ाई के मौके भी मिल रहे हैं, अब पुरुषों के लिए आरक्षित माने गए क्षेत्रों में काम के अवसर भी लड़कियां हासिल कर रही हैं। लेकिन समाज के अधिकतर लोगों की मानसिकता में लिंग भेद अब भी गहरी जड़ें जमाए बैठा है। इसलिए समाज से न छेड़छाड़ की घटनाएं खत्म हो रही हैं, न दहेज का लेन-देन रुक पाया है। कई भारतीय घरों में अब भी लड़की के पैदा होते साथ ही उसके दहेज के लिए चिंता शुरु हो जाती है। साक्षर, असाक्षर, अमीर, गरीब, युवा, बुजुर्ग ऐसे कोई भेद दहेज प्रथा के आड़े नहीं आते हैं। यह बुराई देश में सर्वव्यापी है और काफी हद तक सर्वस्वीकार्य भी। शादी में कितना नेग मिला, कितने का तिलक हुआ, लड़के वालों की मांग क्या है, कितने तोला सोना, कितनी नकदी, कौन सी गाड़ी दोपहिया या कार, बाकी घर-गृहस्थी का सामान, फ्रिज, वाशिंग मशीन, ड्रेसिंग टेबल, पलंग, सोफा, ये सब तो होगा ही, ऐसी बातें लगभग हर शादी वाले घर में सुनने को मिल जाएंगी। दहेज देने वालों को सारी तकलीफों के बावजूद इसमें कुछ गलत नहीं लगता, क्योंकि यही समाज का चलन है। और दहेज लेने वाले तो इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानकर चलते हैं। अपनी लड़की को दे रहे हैं, हमें क्या, ऐसी लचर दलील कई बार अपने चरित्र को ऊंचा बताने के लिए दी जाती हैं। दहेज ले-देकर भी अगर शादी अच्छे से निभ गई, तो अच्छी बात है। लेकिन जहां लड़की से अपने मायके से और अधिक रुपया लाने की मांग होने लगती है, वहां उन्हें कई बार प्रताडि़त होकर और कई बार अपनी जान देकर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है।

दहेज की यह बुराई हिंदुस्तान में इतनी अधिक फैली हुई है कि अब इस ओर लोगों का ध्यान भी तभी जाता है, जब कोई बड़ी घटना हो जाए। राष्ट्रीय समाचारों में तो दहेज प्रताडऩा जैसी खबरों को छोटी-मोटी मानकर बताने लायक ही नहीं समझा जाता, लेकिन अखबारों में, खासकर क्षेत्रीय अखबारों में दहेज प्रताडऩाओं के मामले अब भी लगभग रोजाना प्रकाशित होते हैं। मगर फिर भी अपने ही खड़े किए इस दानव से अपनी बेटियों को बचा सकें, ऐसी कोई सार्थक पहल समाज में होते नहीं दिखती। आजकल जिस तामझाम के साथ करोड़ो-अरबों के विवाह समारोह होने लगे हैं, वह भी दहेज के ही परोक्ष रूप हैं, क्योंकि उनमें अधिकतर भार वधू पक्ष पर पड़ता है। हिंदुस्तान अब भी गरीबों और मध्यमवर्गीय परिवारों की बहुलता वाला देश ही है। लेकिन यहां के वैवाहिक समारोह इंडिया शाइनिंग वाला एहसास देते हैं, मानो हर घर संपन्न है और कमजोर अर्थव्यवस्था जैसी कोई बात देश में है ही नहीं। दिखावे की इस चमक-धमक के पीछे वधू पक्ष की मजबूरी का कैसा अंधेरा छाया है, यह कोई देखना ही नहीं चाहता। इस माहौल में कभी कोई जोड़ा सादगी से विवाह बंधन में बंधता है, तो आदर्श विवाह के शीर्षक से उसका समाचार प्रकाशित होता है। लेकिन ऐसे आदर्श विवाहों की संख्या बढ़ती क्यों नहीं है, यह सोचने का विषय है। इसकी वजह भी शायद यही है कि वर पक्ष विलासिता की अपनी सारी ख्वाहिशें वधू पक्ष से पूरी करवाना चाहता है और इस तरह से समाज में लड़कियों के ऊपर लड़कों को अहमियत देने का चलन भी बदस्तूर जारी रहता है।

सीट बेल्ट लगाने की सलाह देते हुए दहेज को परोक्ष रूप से बढ़ावा देने की गलती विज्ञापन में हुई है, लेकिन उसे सुधारने का जिम्मा केवल विज्ञापन निर्माताओं की नहीं, बल्कि पूरे समाज पर है। वैसे यह पहली बार नहीं है, जब एक अच्छा संदेश देते हुए, किसी गलत बात को बढ़ावा मिला हो। कई साल पहले अखबारों में एक विज्ञापन प्रकाशित होता था, जिसमें बस स्टैंड पर खड़ी एक लड़की से कुछ असामाजिक तत्व छेडख़ानी करते हैं और वहां खड़े दूसरे पुरुष इस पर चुपचाप रहते हैं। विज्ञापन के कैप्शन में लिखा होता था, इस तस्वीर में कोई मर्द नहीं है। इस विज्ञापन से भी पुरुष नारी से बलवान होता है, वाली भ्रामक अवधारणा का संदेश दिया गया। क्योंकि यह कोई जरूरी नहीं कि लड़की को छेडख़ानी से केवल पुरुष ही बचा सकते हैं या लड़की अपना बचाव खुद नहीं कर सकती। यह वैसी ही सोच का हिस्सा है, जिसमें किसी की कायराना हरकत पर उसे चूड़ी भेंट की जाती है, ताकि उसे कमजोर बताया जा सके। कई बार महिलाएं भी चूड़ी भेंट करने पहुंच जाती है, और इस तरह अपनी ताकत को वे खुद कम आंकती हैं। चूड़ी एक सौंदर्य प्रसाधन है और उसे वहीं तक सीमित रखना चाहिए।

दरअसल पुरुषों को बलशाली मानना, स्त्री की रक्षा के लिए जिम्मेदार मानना या लड़कियों को घर के और लड़कों को बाहर के कामों के योग्य मानना, ये सारी बातें अकाट्य सत्य नहीं हैं, केवल धारणाएं हैं, जो पुरुषप्रधान समाज में सदियों से बनाई हुई हैं। महिलाओं के खिलाफ तमाम अपराधों की जड़ों में इन धारणाओं को देखा जा सकता है। चुटकुलों या अपशब्दों में जिस तरह की महिला विरोधी टिप्पणियां होती हैं, वह भी इन्हीं धारणाओं की देन है। इन भ्रामक बातों से मुक्ति तभी पाई जा सकती है, जब समाज में वैचारिक बदलाव हो।  सवाल ये है कि क्या समाज इस बदलाव के लिए कभी तैयार होगा।

संदर्भ स्रोत –  देशबन्धु में 15 सितम्बर 2022 को प्रकाशित आलेख

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