कुमुद सिंह : कम उम्र में सीखा संघर्ष, छेड़ी लिंगभेद से लड़ाई

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कुमुद सिंह : कम उम्र में सीखा संघर्ष, छेड़ी लिंगभेद से लड़ाई

• सारिका ठाकुर

कुमुद सिंह एक सक्रिय सामजिक कार्यकर्ता हैं जो लम्बे समय से अलग-अलग मुद्दों पर काम करती आ रही हैं, ख़ासतौर पर लिंग भेद को लेकर किये गए उनके कार्य रेखांकित करने योग्य है। उनकी जीवन यात्रा को गौर से देखें तो सहज ही समझ में आ जाता है कि उनके जैसे सामाजिक कार्यकर्ता न तो जन्मजात होते हैं, न ही वे किसी विश्वविद्यालय में प्रशिक्षित होते हैं। किसी योजनाबद्ध तरीके से भी उन्हें विकसित नहीं किया जा सकता। इसका सीधा-सीधा ताल्लुक शरीर की खोल के भीतर रहने वाले इंसान से है जिसकी स्मृतियों में बचपन से ही आसपास की घटनाएं, महत्वपूर्ण व्यक्ति और परिस्थितियां हमेशा के लिए छप जाती हैं और व्यक्तित्व निर्माण में समय आने पर उर्वरक के रूप में सक्रिय हो जाती हैं। कम से कम कुमुद सिंह के व्यक्तित्व निर्माण की तो यही प्रक्रिया रही है।

कुमुद जी का जन्म 24 जनवरी 1968 को भोपाल में हुआ। उनके पिता स्व वी.पी. सिंह वाणिज्य विषय के प्राध्यापक थे और माँ श्रीमती दमयंती सिंह सीधी सादी घरेलू महिला। अधिक पढ़ी-लिखी न होने के बावजूद वे एक जागरूक महिला हैं। पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियां निभाते हुए वे बच्चों की शिक्षा दीक्षा के प्रति सजग रहीं। सिंह परिवार भोपाल टॉकीज के पास रहता था। कुमुद जी ने वहीं श्री गांधी ज्ञान मंदिर से 8वीं तक की पढ़ाई की।   वर्ष 1983 में  सुलतानिया कन्या उच्चतर माध्यमिक शाला से उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई पूरी की। इस समय तक वह पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी जिसके आधार पर कुमुद जी के भविष्य ने आकार लिया।

कुमुदजी बताती हैं उनके घर में हमेशा आने-जाने वालों का ताँता लगा रहता था। उनके चचा और मामा भी साथ रहकर पढ़ाई कर रहे थे। इसके अलावा गाँव के ऐसे नाते-रिश्तेदार भी होते थे जिन्हें भोपाल में दो-चार दिन काम हो या इलाज करवाना हो। प्रो. सिंह सभी का दिल से स्वागत करते थे। रोज़ मुलाक़ात करने वाले लोगों की तादाद भी कम नहीं थी। प्रो. सिंह कुछ सामाजिक संगठनों से भी जुड़े हुए थे जिसकी वजह से आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर खुलकर चर्चा होती थी। लेकिन जीवन का एक पक्ष ऐसा भी था जिसकी वजह से परिवार के लोग अक्सर भयभीत हो जाया करते थे। दरअसल प्रो सिंह जिस कॉलेज में पढ़ाते थे वहां कुछ ऐसे छात्रों का प्रवेश हो गया जिन्हें कॉलेज का शांतिपूर्ण माहौल पसंद नहीं आ रहा था। कुछ लोगों के सिवा  सभी उनसे डरते थे और उन कुछ लोगों में सिंह साहब भी थे। कभी कभी माहौल इतना तनावपूर्ण हो जाता कि जब तक वे घर नहीं लौटते तब तक घर के लोगों की नज़र घडी की सुइयों पर ही टिकी रहती।

इसी माहौल में उन्होंने महारानी लक्ष्मीबाई कन्या महाविद्यालय में दाखिला ले लिया लेकिन उसके अगले ही साल वह हादसा हुआ जिसे भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जाना जाता है। कुमुदजी के बड़े भाई का परिचित एक मुस्लिम परिवार छोला रोड में रहता था। उस रात हवा में घुल रही जहरीली गैस से जान बचाने वह परिवार भागते हुए सीधे उनके घर ही पहुंचा। सर्दी के मौसम में दरवाजा खिड़कियाँ बंद होने के कारण घर के भीतर गैस का प्रभाव अभी तक बहुत कम था जो दरवाजा खुलने के साथ एकदम से बढ़ गया। हालात बिगड़ते ही पूरा परिवार कमला पार्क की ओर भागा। उस समय कुमुद जी के चाचाजी भी उसी क्षेत्र में रहते थे। रास्ते में उनकी दोनों बेटियाँ भी भागती हुई मिली। इस हादसे और भगदड़ में उस रात कई परिवार के सदस्य एक दूसरे से अलग हो गए थे। वह एक दर्दनाक मंजर था जिससे उबरने में सालों लग गए।

खुशकिस्मती से उस हादसे में परिवार के किसी सदस्य की जान नहीं गई लेकिन वह हादसा सभी को कुछ न कुछ जख्म ज़रुर दे गया, ख़ासतौर पर कुमुदजी और उनके बड़े भाई को। कुमुद की आँखें प्रभावित हुई थीं, जिसका लम्बे समय तक इलाज चला। इस हादसे की वजह से अगले वर्ष वे परीक्षा में शामिल नहीं हो सकीं। 1987 में उनका ग्रेजुएशन पूरा हुआ जिसके बाद सैफिया कॉलेज से उन्होंने आगे की पढ़ाई प्राणी शास्त्र में करने के लिए दाखिला ले लिया। इसी बीच किसी मुद्दे पर विवाद होने के कारण दो-ढाई सौ छात्रों ने उनके पिता को घेर लिया, कुछ समय बाद किसी ने उनके घर में आग लग जाने की झूठी खबर फायर ब्रिगेड को दे दी। इसके अलावा आए दिन वे धमकियों से वे दो चार हो रहे थे। इस वजह से सिंह परिवार में अपने मुखिया की सुरक्षा की चिंता बढ़ती गई। अच्छी बात यह थी कि इस मुश्किल दौर में भी सिंह साहब न तो स्वयं कभी भयभीत हुए न कभी अपने परिवार को घर में बंद हो जाने की सलाह दी। जीवन को यथा संभव सामान्य रखने की कोशिश वे कर रहे थे क्योंकि डर कर हार मान लेना उनकी फितरत नहीं थी। कुमुद जी के स्वभाव में निडरता संभवतः इन्हीं परिस्थितियों की देन है।

एम.एस.सी. के दौरान कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। एक बार इप्टा के बैनर तले एक नाटक का मंचन होना था जिसमें जिसमें एक बच्ची के साथ रसूखदार परिवार के लोगों द्वारा दुष्कर्म और उसकी हत्या का दृश्य था। यह भूमिका ऐसी थी जिसे एक बच्ची नहीं निभा सकती थी, इसलिए किसी ऐसी लड़की की तलाश होने लगी जो उम्र में परिपक्व हो लेकिन चेहरे-मोहरे से बच्ची दिखे। एक दिन कॉमरेड शैलेन्द्र शैली कुमुद जी के घर आए और उनके पिता से पूछा कि क्या कुमुद यह भूमिका करेगी? सिंह साहब ने फैसला पूरी तरह कुमुदजी के ऊपर ही छोड़ दिया। उस नाटक का निर्देशन श्री सुनील गुप्ता कर रहे थे। कुमुदजी ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई लेकिन अंत में एक गड़बड़ हो गयी। वे लाश बनकर लेटी थीं, ऊपर सफ़ेद कपड़ा था, उन्हें पता ही नहीं चला दृश्य चल रहा है या ख़त्म हो गया सो वे उठकर सीधा चल दीं। दर्शकों के बीच से आवाज़ें आने लगी –देखो लाश चल रही है !!!! हालाँकि इसके बावजूद नाटक काफी चर्चित और प्रशंसित हुआ।

कुमुद जी इंडो-सोवियत कल्चरल सोसायटी की सदस्या थीं, नेल्सन मंडेला उन दिनों जेल में थे। उनके जन्म दिन पर सोसायटी में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें कुमुद्जी ने मंडेला को केंद्र रखते हुए स्व रचित कविता पढ़ी। उस कार्यक्रम में सुनील गुप्ता भी एक श्रोता थे। वे बहुत प्रभावित हुए और बिना लाग लपेट के सीधा पूछ लिया - क्या हम जीवन में साथ चल सकते हैं? कुमुद जी इस अप्रत्याशित प्रश्न के लिए तैयार नहीं थीं सो उन्होंने कहा कि वे विचार करके बताएंगी। इसके बाद एक-दूसरे को देखने का नज़रिया जरुर बदल गया। कार्यक्रमों और बैठकों में मुलाकातें होती रहीं और ज़िन्दगी साथ बिताने की  समझ भी बन गई। लेकिन दोनों के ही परिवार वालों के लिए इस मुद्दे पर सहमत होना बहुत आसान नहीं था। कुमुदजी के पिता को सिद्धांतत: कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन परिवार में विवाह योग्य और बच्चियां भी थीं। अंतर्जातीय विवाह के बाद उनकी शादी में दिक्कत की आशंका सभी को थी। सुनील जी का परिवार भी बिरादरी से बाहर की शादी को लेकर खुश नहीं था। इसी तरह वक़्त बीतता रहा और आख़िरकार 1989 में दोनों ने अदालत में जाकर शादी कर ली। सिंह साहब ने उसके बाद एक भोज का आयोजन किया जिसमें आश्चर्यजनक ढंग से सभी लोग पहुंचे। इस रिश्ते से सुनील जी के परिजन बहुत नाराज़ हुए लेकिन बाद में सब कुछ सामान्य हो गया।

इसके बाद दौर एक ओर आर्थिक संघर्षों से भरा हुआ था दूसरी तरफ सबसे खुशगवार दौर भी वही था। सुनील जी उस वक़्त देशबन्धु अख़बार के भोपाल में कार्यरत थे। कुमुदजी अपने जीवन में कुछ करना चाहती थीं, लेकिन उस ‘कुछ’ की तस्वीर साफ़ नहीं थी। लेकिन इतना ज़रूर था कि वह बहुत पैसा कमा कर ख़ुशहाल ज़िन्दगी बिताने जैसी नहीं थी, जबकि माली हालत तंग थी। इस समस्या से निपटने के लिए वे स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाने लगीं और साथ ही आसपास के बच्चों को इकट्ठा कर लैंगिक समानता का सन्देश देने के लिए नुक्कड़ नाटक करने लगीं। यह काम उन्होंने शादी से पहले भी किया था। उस समय वे भोपाल के बैरसिया रोड पर एक निम्न वर्ग आवास में रहती थीं। वर्ष 1990 में उनके बेटे का और 1999 में उनकी बेटी का जन्म हुआ।

इसके बाद भी सामाजिक जागरूकता का उनका काम जारी था। एक बार कुछ ऐसा हुआ कि जिनके साथ नाटक की तैयारी हुई थी, उनमें से कोई भी नहीं आया। उस परिस्थिति में कार्यक्रम स्थगित कर देने के बजाय उन्होंने अपनी चार साल की बिटिया को तैयार किया और सफलतापूर्वक शहर के तीन चार ठिकानों पर नाटक किये। इसी दौरान ताजिंदगी महिलाओं के हक़ के लिए लड़ने वाली नुसरत बानो रूही से वे जुड़ीं और नौकरी छोड़कर वे अपना पूरा समय समाज सेवा को देने लगीं। रूही जी को कुमुदजी आज भीअपना गुरु मानती हैं। वर्ष 2006 में मित्रों के कहने पर व्यवस्थित रूप से काम करने के लिए ‘सरोकार महिला एवं बाल विकास जन कल्याण समिति’ की स्थापना की। हालांकि उस वक़्त उन्हें पता नहीं था कि कोई गैर सरकारी या स्वैच्छिक संस्था कैसे काम करती है।

समय के साथ बच्चे बड़े हुए, विचारों में स्पष्टता आई और नए रास्ते खुले जिसकी वजह से संस्था की गतिविधियों का भी विस्तार हुआ। मात्र नुक्कड़ नाटकों के जरिये शुरू हुआ सफ़र आज कई मोड़ों और मुकामों तक पहुच चुका है। लिंग भेद के विरुद्ध जागरूकता के लिए आज यह संस्था राष्ट्रीय स्तर कार्यशालाओं और सेमिनारों का आयोजन करती हैं। ख़ास बात ये है कि कुमुदजी ने अपनी संस्था के माध्यम से लड़कियों के जन्म पर ‘बधाई गीत’ रचने और गाने की प्रतियोगिता करवाई जिसे अकल्पनीय सफलता मिली। उल्लेखनीय है कि किसी भी अंचल में बच्चों के जन्म पर गाए जाने वाले सोहर या लोरी में बेटियों का जिक्र कहीं नहीं होता।

कुमुद जी की संस्था से जुड़ी हुई कई बच्चियां ऐसी हैं जिन्होंने न केवल संस्था के साथ मिलाकर जागरूकता का काम किया बल्कि कम उम्र में अपनी शादी भी होने नहीं दी। कुछ बच्चियां पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हैं और इज्ज़त की ज़िन्दगी बिता रही हैं। कुमुदजी लैंगिक भेदभाव से दूर एक आदर्श समाज की कल्पना करती हैं और इसे अपना अंतिम लक्ष्य मानते हुए आज भी काम कर रही हैं। उनका इंजीनियर बेटा बेंगलुरु में काम कर रहा है जबकि बेटी अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से स्नातकोत्तर करने के बाद एक संस्था के साथ मिलकर काम कर रही है।

संदर्भ स्रोत: सारिका ठाकुर से कुमुद सिंह की बातचीत पर आधारित

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