छाया: एएसएमइ डॉट आरजी
साहित्य विचार
• डा. रिज़वानुल हक़
मध्यप्रदेश की मौजूदा राजधानी भोपाल दुनिया के ऐसी अकेली रियासत है, जिस पर तकरीबन सौ साल तक लगभग लगातार (1837 से 1844 तक जहाँगीर मोहम्मद खाँ के अलावा) औरतों ने हुकूमत की, क़ुदसिया बेगम ने 1819 से 1837 तक, सिकन्दर जहाँ बेगम 1844 से 1868 तक शाहजहाँ बेगम 1868 से 1901 तक और आखि़र में नवाब सुल्तान जहाँ बेगम ने 1901 से 1926 तक हुकूमत की। इस तरह सौ साल तक भोपाल में औरतों ने हुकूमत की। इन ख़्वातीन हुक्मरानों ने औरतों की तालीम और फ़लाह के भी बहुत से काम किए, इन कामों में पूरे हिन्दुस्तान के अदीबों की पासदारी भी शामिल थी। ख़ुद इन हाकिमों ने अपनी मसरूफ़ ज़िन्दगी के बावजूद शाइरी के भी कुछ वरक़ स्याह किए।
भोपाल और मध्यप्रदेश में अव्वल ख़ातून अदीब होने का फ़ख्र शाहजहाँ बेगम को हासिल है। उन्होंने शाइरी और नस्र दोनों में लिखा। इसके बाद उनकी बेटी ने बड़े पैमाने पर उर्दू में किताबें लिखीं और लिखवायीं, हिन्दुस्तान से अहम अदीबों को यहाँ लिखने पढ़ने का काम करने के लिए दावत दी गयी और कई अहम अदीब इसमें शामिल हुए। नवाब सुल्लतान जहाँ ने ख़ुद 41 किताबें लिखीं या सम्पादित कीं। उनके दौरे हुकूमत में औरतों के दो रिसाले ‘अलहिजाब’ और ‘ज़िल्लुल सुल्तान’ भी यहाँ से निकाले गये। सुल्तान जहाँ के बाद उनकी बहू ने भी उर्दू में कई किताबें लिखीं जिनमें ‘ज़िक्रे मुबारक’ और ‘खि़लाफ़ते राशिदा ’ ख़ास तौर से क़ाबिले ज़िक्र हैं। इन बेगमात ने नान फिक्फ़िशन ही लिखा।
सबसे पहले हम मध्यप्रदेश की उन ख़्वातीन के लेखन के बारे में बात करेंगे जिन्होंने नस्र यानी गद्य में साहित्य रचना की। जैसा कि ऊपर ज़िक किया जा चुका है मध्यप्रदेश में उर्दू में शाहजहाँ बेगम और उसके बाद उनकी बेटी सुल्तान जहाँ बेगम और उसके बाद उनकी बहू मैमूना सुल्तान ने नस्र में लिखने की दाग़ बेल डाली। नियाज़ फ़तेहपुरी 1915 में भोपाल रियासत से जुड़े, वह अफ़साने भी लिखते थे और एक पत्रिका ‘निगार’ के संपादक भी थे। उन्होंने ख़्वातीन को भी अफ़साने लिखने के लिए हौसला अफ़ज़ाई की तो सबसे पहले अख़्तर जमाल और ज़ोहरा जमाल नाम की दो बहनें सामने आयीं जिन्होंने अफ़साने लिखने शुरू किये। इनके अफ़सानों के बारे में मर्ज़िया आरिफ़़ अपनी किताब ‘काविशे क़लम’ में लिखती हैं ‘‘ज़़ोहरा जमाल की कहानियों में जहाँ इख़्तसार मिलता है वहीं अख़्तर जमाल ने अपने अफ़सानों में वज़ाहत से काम लिया है लेकिन दर्दमन्दी और इन्सानियत नवाज़ी दोनों का मुश्मुतरका जौहर है, दोनों की कहानियों के संग्रह छप चुके हैं।’’ (पेज 98)
इन दोनों बहनों के बाद कौसर जहाँ ने मध्यप्रदेश में अफ़साने की रवायत को आगे बढ़ाया. उनका कहानी संग्रह ‘जादू नगरी’ काफ़ी मशहूर हुआ। इनमें मुहब्बत और भाईचारा व कु़र्बानी के जज़्बे को उभारा गया है। फ़रहत जहाँ के अफ़साने मामूली वाक्यात से शुरू हो कर एक अजीबो ग़रीब सूरते हाल में ले जाते हैं और गहरे तास्सुर के साथ अफ़साना ख़त्म होते हैं। जावेद अख़्तर की माँ सफ़िया अख़्तर के ख़तों के दो संग्रह ‘हरफ़ आशना और ‘ज़ेरे लब’ काफ़ी मशहूर हुए। वह लगभग पाँच साल भोपाल में रहीं। और हमीदिया कालेज में पढ़ाती थीं। उनके ख़तों का उर्दू अदब में एक ख़ास मक़ाम रहा है। उनके बाद सबसे अहम नाम प्रोफ़ेसर शफीका फ़रहत का है. उन्होंने यूँ तो कहानियाँ भी लिखीं आलोचना भी लिखी लेकिन उनकी बुनियादी पहचान तन्ज़ ओ मिज़ाह (हास्य एवं व्यंग्य ) से है जिसके चार संग्रह ‘लो आज हम भी‘, ‘राँब नम्बर’, ‘गोल माल’ और ‘टेढ़ा क़लम’ छप चुके हैं। इनके तन्ज़ ओ मज़ाह में भोपाल की तहज़ीब की ख़ूबियाँ और ख़ामियाँ सब उभर आई हैं। जिन्हें उन्होंने बहुत सलीक़े से तन्ज़ का निशाना बनाया है। भोपाल की तहज़ीब भी इनमें बहुत अच्छे से उभर कर आई है।
डाक्टर रज़िया हामिद एक अफ़साना निगार भी हैं और पच्चीस साल से वह एक रिसाला ‘फ़िक्र ओ आगही’ भी निकाल रही हैं। उनका कहानी संग्रह ‘लम्हों का सफ़र’ छप चुका है मध्यप्रदेश की अफ़सानवी तारीख़ में इसका एक ख़ास मक़ाम है इसे काफ़ी पसन्द किया गया। डाक्टर अनीस सुल्ताना शोध के अलावा तन्ज़ ओ मिज़ाह भी लिखती हैं जिसका एक संग्रह ‘कु़सूर माफ़’ 2003 में छप चुका है। इसी के साथ मध्यप्रदेश में एक और अहम नाम उभरा है वह हैं वसीम बानो क़िदवई का उन्होंने न सिर्फ़ कहानियाँ लिखी हैं बल्कि उन्होंने नावेल भी लिखा है इस तरह से ख़्वातीन की नावेल निगारी की रिवायत का आग़ाज़ उनसे होता है। ज़किया सुल्तान हज़ीं भी मध्यप्रदेश की ही रहने वाली हैं और उन्होंने भी काफ़ी अफ़साने लिखे हैं।
जहाँ तक सवाल उर्दू शायरी का है तो उसका भी आग़ाज़ जहाँ बेगम से होता है, उनके बाद जो सबसे अहम नाम उर्दू शायरी में उभरता है वह राजकुमारी सूरज कला सहाए का है वह रियासत भोपाल के प्रधान मंत्री राजा सर अवध नरायन बिसरिया की बेटी थीं, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्नातक थीं। और अपने ज़माने के भोपाल की ख़्वातीन शायरों में सबसे बेहतर शायरा थीं। उनका काव्य संग्रह ‘‘हरीमे नाज़’’ की प्रस्तावना रघुपति सहाय फ़िराक़ गोरखपुरी ने लिखी थी। उनकी शाइरी के चन्द नमूने पेष हैं।
मजाज़ी रंग में जो रंगे इरफाँ देख लेते हैं
वह अपने कुफ्ऱ में भी नूरे ईमाँ देख लेते हैं
कभी अपना था गुम पाए तलबे मंज़िल के दामन में
मगर अब पाँव को मंज़िल ब दामाँ देख लेते हैं
हमारी कश्कतिए उम्मीद साहिल तक नहीं आती
ये कैसी मौज ओ तूफा़ँ में रही है गुफ़्तगू बरसों
इन शेरों से ज़ाहिर है सूरज कला उर्दू की क्लासिकल शाइरी की परम्परा और रूपकों से अच्छी तरह वाक़िफ़ थीं और उनसे किस तरह मानी पैदा किए जाते हैं इसे भी अच्छी तरह जानती थीं। जुबान को बरतने का सलीक़ा भी उनमें ख़ूब था, ख़ास तौर से उनहोंने ‘‘कुफ़्र में भी नूरे ईमां’’ में जैसा ख़ूबसूरत पैराडाक्स खींचा है, इससे अन्दाज़ा हो जाता है कि उन्हें जु़बान के इस्तेमाल और रूपक बनाने में पूरी महारत हासिल थी. वह शाइरी की परम्परा भी जानती हैं, साथ ही अपने स्वाभिमान की हिफ़ाज़त करना भी जानती हैं।
आज के जमाने में भी भोपाल में कई शाइरात मौजूद हैं, अनीस सुल्ताना का शेरी मजमूआ ‘तंगनाए ग़ज़ल’ छप चुका है जिसमें ग़ज़लें भी हैं और नज़्में भी। ग़ज़लों में जहाँ ज़ात का एहसास और जज़्बात की अक्कासी है, वहीं उर्दू ग़ज़ल की रवायत की पासदारी भी है। लेकिन इनकी नज़्में ज़्यादा ग़ौर ओ फ़िक्र की दावत देती हैं, उनमें ज़ात का रंग ज़्यादा गहराई से नुमायाँ हो सका है और कहीं कहीं औरत होने का दर्द भी छलकने लगता है, अगरचे बात बग़ावत या आज़ादी और ख़ुदमुख़्तारी तक नहीं पहुँचती लेकिन औरत होने का एहसास ज़रूर पाया जाता है। चन्द मिसालें पेशे खि़दमत हैं।
चेहरा दर चेहरा मैं ख़ुद को ढूँढती तो किस तरह
आईने भी घर के सारे अजनबी लगने लगे
मैं किस लिए हूँ? कहाँ हूँ कहाँ से आई हूँ?
हूँ मुबतला मैं अज़ल से इन्हीं सवालों में
मेरा वजूद भटकता रहा फ़िज़ाओं में…. (मेरा वजूद)
मैं पस्पा होते हुए आखि़री मंज़िल पे आ पहुँची
यहाँ मैं हूँ, मेरी रूसवाइयाँ हैं और ज़माना है …. (पस्पाई)
आज कल शाइरात में सबसे नुमायाँ नाम नुसरत मेंहदी का है, अगरचे वह मुशायरों की शाइरा के तौर पर ज़्यादा शोहरत रखती हैं और तक़रीबन पूरी दुनिया के मुशायरों में अपनी शाईरी पढ़ चुकी हैं लेकिन इसके साथ साथ वह उर्दू अदब की रवायत से अच्छी तरह से वाक़िफ़ हैं यह बात उनकी शाइरी से झलकती है। नमूने के तौर पर उनकी एक ग़ज़ल पेश है।
तो ये हुआ कि फिर अना की जंग हार दी गयी
उदास था कोई तो उस पे जीत वार दी गयी
तमाम उम्र मैंने कोई शर्त ही नहीं रखी
कहा गया गुज़ार दो तो बस, गुज़ार दी गयी
उठा रही थीं इक के बाद एक सर तो ये हुआ
कि ख़्वाहिषों की इक बड़ी क़तार मार दी गयी
जब उसके लफ़्ज़ कुंद होके बे असर से हो गए
तो फिर ज़बान पर नए सिरे से धार दी गयी
खुलेंगे कितने ज़ख़्म और सुलग उठेगी ज़िन्दगी
ख़मोशियों की ये परत अगर उतार दी गयी
किताब ए ज़ीस्त खोलकर है नुसरत आज सोच में
सफ़ाई किन ख़ताओं की ये बार बार दी गयी
अन्जुम रहबर का नाम अस्सी की दहाई में मुशायरों की दुनिया में बड़ी तेज़ी से उभरा था अपनी ग़ज़लों की सादगी और तरन्नुम की पुरकारी और गीतों में गाँव की ज़िन्दगी की अक्ककासी की वजह से पूरी दुनिया के उर्दू मुशायरों में वह छा गयी थीं। उनकी शायरी के चन्द नमूने पेश हैं।
कुछ दिन से ज़िन्दगी मुझे पहचानती नहीं
यूँ देखती है जैसे मुझे जानती नहीं
ये कौन जा रहा है मेरा गाँव छोड़ के
आँखों ने रख दिए हैं समुन्दर निचोड़ के
परवीन कैफ़ भोपाल के मशहूर शाइर और नग़मा निगार कैफ़ भोपाली की बेटी हैं उनकी शायरी में उर्दू शाइरी का रिवायती रंग नुमायाँ है। शाइरी के चन्द नमूने पेश हैं।
एक दिन आई तो फिर वापस न तनहाई गयी
मेरे उजड़े घर में उसको जाने क्या अच्छा लगा
और वहशत में कुछ काम करते भी क्या
धज्जियाँ आँचलों की उड़ाने लगे
मुझको ग़मे हयात से फ़ारिग़ न जानिए
होंठों पे कुछ हँसी है सो दीवानापन की है
हाल के दिनों में भोपाल की कुछ नवजवान शाइरात ने अपनी तरफ़ लोगों का ध्यान खींचा है वह हैं, अर्जुमन्द बानो आफ्शां, रुश्दा जमील और ग़ौसिया खान सबीं। इनसे बड़ी उम्मीदें हैं। इन अदबी फ़नकरों को बग़ौर पढ़ने के बाद एहसास होता है कि इनमें बहुत सी ख़ूबियाँ तो हैं लेकिन वह निसाई आवाज़ बहुत कम है या नहीं है जो आज के ज़माने में आलमी सतह पर अदब में ख़्वातीन की शिनाख्त है, आज़ादी और ख़ुद मुख़्तारी व औरतों के दीगर मसाइल की अक्कासी इनमें तक़रीबन नहीं है। जबकि उर्दू में रशीद जहाँ, इस्मत चुग्ताई, से होते हुई किश्वर नाहीद, फ़हमीदा रियाज़, परवीन शाकिर, ज़ोहरा निगाह वगै़रा तक निसाई अदब की बहुत मज़बूत रवायत है। इन लोगों ने न सिर्फ़ उर्दू बल्कि पूरे हिन्दुस्तान की तमाम ज़ुबानों के अदब की रहनुमाई की है।
लेखक क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, भोपाल में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं
© मीडियाटिक
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