छाया: अलकनंदा साने के फेसबुक अकाउंट से
प्रमुख लेखिका
जन्म
ग्वालियर के एक उच्च विद्या विभूषित परिवार में 31 अगस्त 1954 को जन्म हुआ। पिता स्व. रघुनाथ विष्णुपंत शिरढोणकर ऐसे मराठी साहित्यकार थे, जिन्होंने पिछली शताब्दी में, 1930 के दशक में, अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में उत्तर भारत में मराठी पत्रकारिता की नींव रखी। अत: परिवेश को अनुभव करना और उस पर लिखना विरासत में प्राप्त हुआ।
बचपन
बचपन मध्यप्रदेश के गाँवों में बीता। आर्थिक कठिनाइयों की वजह से पिताजी को उनके द्वारा सम्पादित मासिक पत्रिका “हितचिंतक” बन्द करना पड़ी। तत्कालीन ग्वालियर रियासत के पहले तीन स्नातकों में से एक होने की वजह से उन्हें सरकारी नौकरी आसानी से मिल गई। इसी कारण गाँवों में रहना हुआ। नौ भाई-बहनों में सबसे छोटी थी, तो सबकी लाड़ली भी थी। अलकनन्दा नाम पुकारने के लिये आसान नहीं था। माँ और पिताजी हिन्दी में ही ”बिटिया” कहकर बुलाते थे। दो बड़ी बहनें और थीं, लेकिन बिटिया एक अकेली थी। यह सुख ज्यादा दिनों तक नहीं रहा। आयु दस साल की भी नहीं हुई थी, तभी सन १९६४ की गर्मियों में पिताजी का स्थानांतरण सारंगपुर से विदिशा हो गया। विदिशा पहुँचते ही विषम ज्वर (टाइफाइड) ने घेर लिया, जो लगभग 8 महीनों तक भुगतना पड़ा और इसी बीच पिताजी को लकवा मार गया। उस समय यह रोग असाध्य था। वे अपने अंतिम दिनों में 6 वर्ष तक बिस्तर पर ही रहे। उनकी बीमारी के कारण घर के आर्थिक हालात बहुत बिगड़ गए थे। एक भाई वेटरनरी, एक भाई मेडिकल और एक भाई की इंजीनियरिंग की पढाई चल रही थी। माँ ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं, किन्तु पढ़ाई का महत्व समझती थीं। उन्होंने कम पैसों में भी गृहस्थी को थामे रखा, लेकिन विपन्नता तो थी ही। अलकनन्दा बताती हैं कि बिना चप्पल के यानि चप्पल हाथ में उठाये और बाद में जब विद्यालय में जूते अनिवार्य हो गये तब जूते हाथ में उठाये जाती थी ताकि सड़क पर वे घिसे नहीं और ज्यादा दिन तक चले। टिफिन भी कभी नहीं ले गई, क्योंकि पराठों के लिये न तो अतिरिक्त तेल होता था और न ही घी। सब्जी कभी होती थी, कभी नहीं भी होती थी। कभी कभी रोटियाँ भी गिनी-चुनी बनती थीं और फिर वे अकेली तो थी नहीं कि किसी तरह जुगाड़ हो सके।
शिक्षा
असामान्य परिस्थितियों के बावजूद पढ़ाई चलती रही और साथ-साथ में दुर्भाग्य भी चलता रहा। वे जब दसवीं में थी तो मध्यप्रदेश में जोरदार राजनीतिक उठापटक चल रही थी। संविद सरकार ने आते ही शिक्षा के नियम बदल दिये और अन्य राज्यों की तर्ज पर इंटर मीडिएट कॉलेज शुरू हो गए। इसके तहत दसवीं के बाद दो वर्ष के लिये कनिष्ठ महाविद्यालय हो गये, किन्तु एक सत्र के बाद ही फिर नियम बदल गये। अलकनन्दा और उनके जैसे सभी ग्यारहवीं के बाद न तो बारहवीं कर पाये और न ही हायर सेकेण्डरी उत्तीर्ण कहलाये। बहुत जद्दोज़ेहद के बाद हायर सेकेण्डरी समकक्ष के प्रमाणपत्र मिले। अब महाविद्यालय में प्रवेश लेने का संकट सामने खड़ा था। पिताजी चाहते थे कि उनकी बिटिया डॉक्टर बने, किन्तु प्रवेश शुल्क की व्यवस्था नहीं हो पा रही थी। माँ ने अन्तिम तिथि के एक दिन पहले किसी तरह व्यवस्था की और दूसरे दिन कॉलेज जाना ही था कि सुबह पिताजी चल बसे। यह सब कुछ इतना अकस्मात हुआ कि किसी को सोचने का अवसर ही नहीं मिला। उस समय आज की तरह व्यावहारिक सोच भी नहीं थी। पिताजी के तेरह–चौदह दिन होने और मेहमानों की बिदाई के बाद जब ध्यान में आया तो विलम्ब शुल्क की अवधि भी समाप्त हो गयी थी। बीमारी में ही पिताजी सेवा निवृत्त हो गए थे, पेंशन शुरू नहीं हुई थी। मेडिकल का खर्चा उठाना सम्भव नहीं था और एक साल भी टूट जाता अत : निजी तौर पर कला विषय लेकर स्नातक परीक्षा देना तय हुआ। इस तरह वे महाविद्यालय कभी गयी ही नहीं। बी. ए. किया और राजनीति में शुरू से रुचि थी, अत: राजनीतिशास्त्र में स्नातकोत्तर करना तय किया।
ननिहाल शास्त्रीय संगीत से समृद्ध था। मामाजी और ममेरे भाई-बहन सभी ने विधिवत सीखा था। माँ चाहती थी कि अलकनन्दा भी सीखे । ईश्वर ने सुरीली आवाज दी थी और पिताजी की बीमारी के दौरान सब लोग अपने गृहनगर ग्वालियर आ भी गए थे। वहाँ संगीत चारों ओर बिखरा था। बी. ए. के पहले ही एक संगीत महाविद्यालय में प्रवेश लिया तथा पाँच वर्षों की मेहनत के बाद अत्यंत प्रतिष्ठित ”इंदिरा कला एवं संगीत विश्व विद्यालय, खैरागढ़” द्वारा आयोजित विशारद (स्नातक) परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। प्रायोगिक परीक्षा का केंद्र माधव महाविद्यालय,ग्वालियर था। सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ पं. बालासाहेब पूँछवाले वहाँ के प्राचार्य थे। पण्डित जी ने उनकी प्रस्तुति को सुना था। परीक्षा परिणाम आने के बाद उन्होंने बुला भेजा और कहा कि मैं तुम्हें आगे सिखाना चाहता हूँ। वे घर पर लौटीं और बताया तो लगा कि बरसों बाद निर्मल आनंद का अवसर आया है। सभी बहुत खुश थे, लेकिन चौथे दिन एक भाई के साथ बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई। माँ को लेकर कोटा जाना पड़ा। तीन महीने बाद ग्वालियर लौटे तो जीवन फिर अस्त-व्यस्त हो चुका था।
बी. ए. के बाद एम. ए. की पढाई घर पर ही शुरू की। साथ में नौकरी और कुछ बच्चों को पढ़ाने का काम भी किया। सन 1976 के फरवरी माह में इंदौर के साने परिवार से रिश्ता आया। परीक्षा के बाद प्रकाश साने के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। 7 वर्ष बाद सन 1983 में भारतीय शास्त्रीय संगीत में भी, एम.ए. ”इंदिरा कला एवं संगीत विश्व विद्यालय, खैरागढ़” से ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
परिवार
पति स्व. प्रकाश साने और दो संतानें स्वरांगी साने तथा विभास साने ।
नौकरी
- मध्यप्रदेश की पहली मैदानी महिला पत्रकार (रिपोर्टर) के रूप में इंदौर के विभिन्न समाचार पत्रों में कुल 17 वर्ष काम किया।
- पति की मृत्यु के बाद, उनके स्थान पर मिली अनुकम्पा नियुक्ति से 21 वर्ष भारतीय स्टेट बैंक की विभिन्न शाखाओं में कार्यरत रहीं और वहीँ से सेवा निवृत्त हुईं।
साहित्य की ओर रुझान
औपचारिक रूप से सत्रह वर्ष की आयु से लिखना शुरू किया। एक स्थानीय पत्रिका में आलेख छपा था। फिर अनायास ही कविता की ओर मुड़ गई। पहली कविता मराठी में लिखी और उस छोटी उम्र में भी वह कविता स्त्रीवादी थी, जो अभी तक भी कविताओं का मूल स्वर है। मराठी कभी सीखी नहीं,लेकिन पिताजी की वजह से मराठी साहित्य पढ़ने को मिला, बल्कि यह कहना चाहिये कि मातृभाषा में लिखने-पढ़ने और बोलने के प्रति वे आजीवन बहुत आग्रही रहे। आज भी मराठी व्याकरण के नियम मालूम नहीं है, फिर भी मराठी कवयित्री के रूप में जो प्रशंसा और प्रतिष्ठा मिली वह मराठी साहित्य के अध्ययन की वजह से ही मिली। हिंदी कविता की ओर बहुत देर से लगभग ३५/३६ वर्ष की आयु के बाद रुझान हुआ. प्रारम्भ में अपना दुःख यानी एक स्त्री का दुःख, लड़की, बेटी,बहन,पत्नी,आदि के रूप में बहुत बड़ा लगता था और वही कविताओं में व्यक्त हुआ, लेकिन उम्र और अनुभव बढ़ने के साथ साथ अन्य विषय भी समाविष्ट होते चले गए। पति प्रकाश साने पढ़ने के शौकीन थे। नियमित रूप से वाचनालयों में जाते थे। उन्हें जब पता चला कि मैं लिखती हूँ, तो उन्होंने इंदौर के मराठी साहित्यिक जगत से परिचय करवाया और जैसे-जैसे प्रशंसा, प्रोत्साहन मिलता गया, प्रगति की राह खुलती गयी।
साहित्यिक गतिविधियाँ
मराठी
- हिन्दी-मराठी में समान रूप से लेखन, किन्तु मराठी कवयित्री के रूप में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ।
- अत्यंत प्रतिष्ठित अ.भा.मराठी साहित्य सम्मेलन में महाराष्ट्र के बाहर से चार बार चयनित कवयित्री सहित महाराष्ट्र के अनेक शहरों में विभिन्न कार्यक्रमों के अंतर्गत आमंत्रित कवयित्री।
- म.प्र.के इंदौर,ग्वालियर,भोपाल,जबलपुर,उज्जैन,रतलाम,खंडवा,झाबुआ आदि प्रमुख शहरों में मराठी काव्य-पाठ।
- इंदौर के आकाशवाणी एवं दूरदर्शन केंद्रों से मराठी/हिन्दी कविताओं का नियमित प्रसारण।
- मेजेस्टिक प्रकाशन,मुंबई द्वारा प्रकाशित “महाराष्ट्रा बाहेरील मराठी” (महाराष्ट्र के बाहर की मराठी)संग्रह में कविता सम्मिलित।
- स्त्री, कोंकण दिनांक, तरुण भारत, लोकमत, महाराष्ट्र टाइम्स, अक्षर-चलवल, श्री सर्वोत्तम आदि के दीपावली विशेषांकों में मराठी कवितायेँ एवं आलेख प्रकाशित।
- मराठी में दो काव्य-संग्रह “धग” और “एक थरथरणारी वात” प्रकाशित तथा चर्चित
- मराठी कविताओं पर आधारित कार्यक्रम “मोहरला शब्दतरु” की संकल्पना एवं कई शहरों में सफल प्रस्तुति।
- मराठी भाषिक कवियों के समूह आम्ही रचनाकार का गठन एवं उसके अंतर्गत मराठी/हिंदी कविताओं के अनूठे कार्यक्रम ”माय मावशी”(माँ-मौसी) का निरंतर प्रस्तुतिकरण ।
मराठी से अनुवाद
- मराठी के नामचीन कवियों की कविताओं का हिन्दी अनुवाद साक्षात्कार, गगनांचल, भोर, अक्षर शिल्पी आदि विभिन्न पत्रिकाओं एवं प्रतिलिपि. कॉम में प्रकाशित।
- एकलव्य प्रकाशन की बाल पत्रिका ”चकमक” में निरंतर ढाई वर्ष तक अनुवाद प्रकाशित।
हिन्दी
- हिन्दी काव्य-संकलन “जब धूप नहीं थी, उन दिनों” प्रकाशित।
- म. प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, जनवादी लेखक संघ, वामा साहित्य मंच जैसे प्रतिष्ठित हिन्दी मंच से भी सफल काव्य-पाठ।
- स्व.कल्पना चावला की स्मृती में दिल्ली से प्रकाशित “नारी चेतना के स्वर” एवं साक्षात्कार, गगनांचल, भोर,अक्षर-शिल्पी आदि विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में हिन्दी कवितायेँ प्रकाशित।
- भा.स्टे.बैंक की पत्रिकाओं-“राजभाषा-प्रवाह”,”आकांक्षा” में कवितायेँ प्रकाशित।
- बैंक की इंदौर मुख्य शाखा के संवाद पत्र “आकलन” का सम्पादन ।
सम्मान
- म. प्र. मराठी साहित्य संघ द्वारा कवयित्री के रूप में दो बार सम्मानित।
- म. प्र. मराठी साहित्य सम्मेलन में सम्मानित।
- इंदौर की अहिल्योत्सव समिति, मराठी भाषा रक्षण समिति, वसंत राशिनकर स्मृति प्रसंग में सम्मानित।
- म. प्र. बैंक ऑफिसर्स एसोसिएशन द्वारा साहित्यिक अवदान हेतुसम्मानित
- इंदिरा बाई मेढ़ेकर स्मृति सम्मान, ठाणे (महाराष्ट्र)
- प्रसिद्ध सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था “सानंद न्यास” इंदौर द्वारा “कर्तबगार आई” (कर्तव्यनिष्ठ आदर्श माँ) सम्मान से विभूषित
- महाराष्ट्र साहित्य सभा,इंदौर द्वारा “गुणीजन सम्मान” से सम्मानित
- पेट्रोलियम कंजरवेशन रिसर्च एसोसिएशन द्वारा सम्मानित
- इंदौर के “आपले वाचनालय”,”मुक्त संवाद””सिका स्कूल”,दिगम्बर जैन समाज” आदि अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
- म.प्र.के लगभग सभी बड़े शहरों में कवयित्री के रूप में सम्मानित।
- म.प्र.के अनेक शहरों के साहित्यिक कार्यक्रमों में अध्यक्ष,मुख्य अतिथि,मुख्य वक्ता हेतु आमंत्रित
- विकलांग सेवा हेतु “विकलांग दर्शन” द्वारा राज्य स्तरीय सम्मान।
अविस्मरणीय प्रसंग
पुणे में संपन्न 89वें अ. भा. मराठी साहित्य सम्मेलन में,आमंत्रित कवयित्री होने के नाते एक कविता सुनने के बाद पंडाल में उपस्थित लगभग दस हजार श्रोताओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर मानवंदना की।
स्व संप्रेषित
© मीडियाटिक
Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *