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अपने क्षेत्र की पहली महिला
बेगम मेमूना सुल्तान जब नाबालिग थीं, तभी उनका पूरा परिवार अफग़ानिस्तान से भोपाल आ गया था। नवाब सुल्तान जहां बेगम ने उनकी परवरिश अपनी निगरानी में कराई और बालिग होने पर उनका निकाह छोटे बेटे हमीदउल्लाह खां से कराया। कालांतर में नवाब हमीदउल्लाह की तीन बेटियां हुईं। 28 अगस्त,1913 को जन्मी आबिदा इनमें सबसे बड़ी थीं, इस नाते उन्हें बड़ी बिया कहा जाता था। वे 15 साल की थीं जब उन्हें औपचारिक रूप से भोपाल रियासत का उत्तराधिकारी घोषित किया गया और इस बात का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए वे अपनी दादी नवाब सुल्तान जहां बेगम के साथ सन् 1928 में लंदन गईं। 1930 में आबिदा अपने पिता हमीदुल्लाह खां के कैबिनेट की अध्यक्ष और मुख्य सचिव बनीं। वे चाँसलर ऑफ़ प्रिंसेस चैम्बर भी थीं और हमीदुल्लाह खां जब युद्ध के लिए जाया करते थे तब आबिदा बेगम ही राजकाज संभालती थीं।
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ग़ौरतलब है कि जब देश कई प्रकार की रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था और स्त्री शिक्षा के प्रयास चल ही रहे थे, उस वक्त आबिदा की परवरिश उनकी दादी सुल्तान जहां बेगम ने बिल्कुल ही खुले माहौल में की थी। बहुत कम उम्र में ही उन्हें कार ड्राइविंग, घोड़े और पालतू चीतल जैसे जानवरों की सवारी और निशानेबाज़ी में महारत हासिल हो गई थी। कहा जाता है कि उन्होंने 73 बाघों का शिकार भोपाल के जंगलों में किया। इससे पहले महज 8 साल की उम्र में वे पवित्र कुरान का शाब्दिक अनुवाद करना सीख गईं थीं। उस जमाने में भी वो बिना नकाब गाड़ी चलाती थीं। उपमहाद्वीप के मुस्लिम राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करने वाली आबिदा सुल्तान ने अपने पिता हमीदुल्लाह खां के कैबिनेट के अध्यक्ष और मुख्य सचिव भी थी। आबिदा पोलो और स्क्वॉश जैसे खेलों में भी दिलचस्पी रखती थी। सन् 1949 में वे अखिल भारतीय महिला स्क्वॉश की चैंपियन रहीं। आबिदा को प्रदेश की पहली महिला पायलट होने का गौरव प्राप्त था। 25 जनवरी,1942 को उड़ान लाइसेंस उन्हें मिला था।
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आबिदा का निकाह कुरवाई के नवाब सरवर अली खां के साथ हुआ, जिनसे उनके इकलौते बेटे शहरयार मो. खां हुए। यही शहरयार बाद में पाकिस्तान के विदेश सचिव बने। आगे चलकर अपने पति से आबिदा के सम्बन्ध तनावपूर्ण हो गए और वे बेटे सहित भोपाल में ही रहने लगीं। इस बीच नवाब हमीदउल्लाह ने बेटे की चाह में बेगम आफ़ताब जहां से दूसरा निकाह कर लिया। पति से अलग और यहां मां के होते हुए सौतेली मां के आने से आबिदा खिन्न रहने लगीं। इसी बीच हमीदउल्लाह खां को वायसराय से एक ऐसा ख़त आया कि रियासत का खेल ही बिगड़ गया। ख़त बड़ी बिया तक पहुंचा, तो वे आग बबूला हो गईं। उन्होंने अपनी शिकारी जीप निकाली और दो रिवाॅल्वर के साथ कुरवाई चल पड़ीं। शाम के करीब जब वे वहां पहुंचीं तो अफरातफरी मच गई। नवाब बाहर निकल आए तो बड़ी बिया ने एक रिवॉल्वर उन्हें देते हुए कहा कि अगर आईन्दा आपने वायसराय के जरिए शहरयार को कुरवाई लाने की कोशिश की, तो हम दोनों में से एक भी ज़िंदा नहीं रहेगा। यहीं से बड़ी बिया ने पाकिस्तान जाने का इरादा पक्का कर लिया। हालांकि उस समय वे भोपाल रियासत की अकेली वारिस थीं लेकिन बेटे की खातिर उन्होंने अपनी तमाम ज़मीन -ज़ायदाद छोड़ देना बेहतर समझा। 1950 में वे शहरयार को लेकर गुपचुप मुम्बई और फिर पानी के जहाज से लंदन होते हुए केवल एक सूटकेस के साथ पाकिस्तान जा पहुंचीं। जब उनके पाेते का विवाह भोपाल की केसर जमां बेगम की बेटी से हुआ तो भोपाल से एक बार फिर उनका रिश्ता जुड़ गया।
धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में विश्वास रखने वाली आबिदा पाकिस्तान में राजनीतिक रूप से काफी सक्रिय रहीं। उन्होंने 1954 में संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व और 1956 में चीन का दौरा किया। वे ब्राज़ील में पाकिस्तान की राजदूत नियुक्त हुईं लेकिन डेढ़ साल बाद उन्होंने उस पद से इस्तीफ़ा दे दिया। आबिदा काउन्सिल मुस्लिम लीग में शामिल हो गईं और मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को राष्ट्रपति बनाने के अभियान में सक्रिय भूमिका निभाई। 1960 में मार्शल कानून के विरोध में भी फातिमा का साथ दिया था। उन्होंने कभी भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। वे पाकिस्तानी अख़बारों में लोकतंत्र की हिमायत में नियमित रूप से लिखा करती थीं और टीवी पर भी निडर होकर अपनी बात कहती थीं। वे महिला अधिकारों की प्रबल पक्षधर थीं, इसके साथ ही वे इस्लामी धर्म गुरुओं के रूढ़िवादी और धर्मांध विचारों की प्रखर आलोचक भी थीं।
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जनवरी 1954 में उनके पिता ने उनसे भोपाल लौटने की पेशकश की थी जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। आबिदा पिता से 12 वर्षों तक दूर रहीं लेकिन उनकी मृत्यु के समय वे भोपाल आईं। अक्टूबर 2001 तक आबिदा अनेक रोगों से ग्रस्त हो चुकी थीं। 27 अप्रैल, 2002 को दिल के ऑपरेशन के लिए उन्हें कराची के शौकत उमर मेमोरियल अस्पताल में भर्ती कराया गया, 89 साल की उम्र में जहां 11 मई , 2002 को उनका निधन हो गया। उन्हें मलीर के भोपाल हाउस में दफ़न किया गया। मृत्यु से कुछ दिनों पहले उन्होंने अपनी आत्मकथा – ‘मेमॉयर्स ऑफ़ अ रेबेल प्रिन्सेस’ (Memoirs of a Rebel Princess) पूरी कर ली थी, जो 2004 में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित की गई।
संदर्भ स्रोत : डॉन डॉट कॉम, दैनिक भास्कर और सत्योदय डॉट कॉम
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