दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कानूनी पत्नी के अधिकार को सर्वोपरि माना है। इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया है कि कोई भी पुरुष केवल इस आधार पर नहीं बच सकता कि वह अपनी लिव-इन पार्टनर और उसके बच्चों का खर्च उठा रहा है। पति के लिए कानूनी पत्नी के भरण पोषण की जिम्मेदारी सर्वोपरि है। इसलिए अन्य किसी भी प्रकार के खर्च का बहाना बनाकर कानूनी पत्नी को गुजारा भत्ता देने से इनकार नहीं किया जा सकता। यह फैसला दिल्ली हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति रेनू भटनागर की खंडपीठ ने सुनाया है। अदालत ने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत एक पति को निर्देश दिया कि वह अपनी पत्नी को निचली अदालत द्वारा तय की गई गुजारा भत्ता राशि का भुगतान करे।
कानूनी पत्नी का अधिकार सर्वोपरि
मामले की सुनवाई के दौरान पति ने तर्क दिया था कि वह हर महीने लगभग ₹62,000 की राशि अपनी लिव-इन पार्टनर और उसके तीन बच्चों की देखभाल में खर्च करता है। इसलिए उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अपनी कानूनी पत्नी को गुजारा भत्ता दे सके, लेकिन बेंच ने इस दलील को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि भले ही लिव-इन पार्टनर और उनके बच्चे भी उसकी जिम्मेदारी हों, लेकिन कानूनन उसकी पहली प्राथमिकता उसकी पत्नी है। जिससे उसका विवाह कानूनी रूप से मान्य है। अदालत ने यह भी कहा कि कानूनी पत्नी का एक स्वतंत्र और वैध अस्तित्व होता है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
कमाई और खर्चों के बीच विरोधाभास
मामले की सुनवाई के दौरान दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर के हलफनामे पर भी कोर्ट ने टिप्पणी की। दरअसल, अदालत ने प्रोफेसर के हलफनामे का विश्लेषण किया तो उसमें चौंकाने वाली जानकारी सामने आई। प्रोफेसर ने अपने हलफनामे में मासिक आय एक लाख 30 हजार रुपये दर्शाई। जबकि ईएमआई और अन्य व्यय मिलाकर मासिक खर्च एक लाख 75 हजार के आसपास निकल रहा था। ऐसे में अदालत ने इसपर हैरानी जताई। अदालत ने पूछा कि इस ₹45,000 की राशि का प्रबंध वह कैसे कर रहा है। जबकि हलफनामे में इसका कोई उल्लेख नहीं है। यह विरोधाभास उसकी दलीलों को कमजोर करता है।
सन्दर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट
Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *