पति-पत्नी के तलाक की अर्जी पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण टिप्पणी की। हाईकोर्ट ने कहा कि गर्भावस्था को क्रूरता के खिलाफ ढाल नहीं बनाया जा सकता। कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि पत्नी की गर्भावस्था और उसके बाद गर्भपात हो जाना, पति पर किए गए मानसिक क्रूरता के लगातार पैटर्न को खत्म नहीं कर सकता। दिल्ली हाईकोर्ट ने पति को तलाक की डिक्री देते हुए, फैमिली कोर्ट के तलाक न देने के फैसले को पलट दिया।
जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और रेनू भटनागर की डिवीज़न बेंच ने कहा कि मेल-मिलाप की अस्थायी अवधियां विवाह के दौरान बार-बार किए गए दुर्व्यवहार, धमकियों और छोड़ने जैसे कृत्यों पर हावी नहीं हो सकतीं। हाई कोर्ट ने पाया कि पति की गवाही स्पष्ट और सुसंगत थी, जिसमें उसने विस्तार से बताया कि पत्नी ने उसे और उसकी विकलांग मां को मौखिक रूप से अपमानित किया, आत्महत्या की धमकिया दीं, वैवाहिक संबंध बनाने से इनकार कर दिया और अंततः बिना किसी कारण के वैवाहिक घर छोड़ दिया।
कोर्ट ने कहा कि ये सभी कृत्य एक साथ मिलकर हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(1)(ia) के तहत सिद्ध मानसिक क्रूरता माने जाते हैं। हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट की गलती पकड़ी कि उसने इन घटनाओं को अलग-अलग करके देखा, बजाय इसके कि अदालत परेशानी के लगातार पैटर्न को पहचानती। बेंच ने पत्नी के दहेज उत्पीड़न और ससुर की ओर से छेड़छाड़ के प्रयास के आरोपों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि पति के ओर से तलाक का मामला शुरू करने से पहले कोई शिकायत, FIR या कानूनी कार्रवाई दर्ज नहीं की गई थी। कोर्ट ने कहा कि सभी आपराधिक कार्यवाही बाद में ही शुरू हुईं, जिससे पत्नी के दावे कमजोर हो जाते हैं और ऐसा लगता है कि ये सच्चे होने के बजाय केवल प्रतिक्रिया के तौर पर लगाए गए थे।
हाईकोर्ट ने माना कि फैमिली कोर्ट का पत्नी की गर्भावस्था पर निर्भर रहना और यह निष्कर्ष निकालना कि उनके वैवाहिक संबंध सामान्य थे, "कानूनी रूप से अस्थिर" था। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि स्थिरता का एक क्षण पहले या बाद की क्रूरता को खत्म नहीं कर सकता, खासकर तब जब रिकॉर्ड यह दिखाते हैं कि गर्भपात के बाद भी अपमानजनक व्यवहार जारी रहा।
कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के स्वच्छ हाथ सिद्धांत पर भरोसा करने को भी सुधारा। कोर्ट ने जोर दिया कि यह सिद्धांत केवल तभी लागू होता है जब याचिकाकर्ता अपने स्वयं के गलत कार्य से लाभ उठाने की कोशिश कर रहा हो। चूंकि पति के हिस्से में किसी भी दुराचार का कोई सबूत स्थापित नहीं हुआ था, इसलिए इस आधार पर राहत से इनकार करना (तलाक न देना) अमान्य था।
यह देखते हुए कि यह जोड़ा जनवरी 2020 से अलग रह रहा है और उनके कोई संतान नहीं है, बेंच ने निष्कर्ष निकाला कि विवाह उस बिंदु पर पहुंच चुका है जहां मेल-मिलाप असंभव है। विशेष रूप से, यौन दुराचार के आरोप लगाए जाने के बाद तो एक साथ रहना अव्यवहारिक हो गया था। कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और मार्च 2016 में हुए इस विवाह को भंग कर दिया। कोर्ट ने टिप्पणी की कि जिस रिश्ते में अपूरणीय टूट आ चुकी है, उसमें मुकदमेबाजी को पार्टियों का दर्द नहीं बढ़ाना चाहिए।



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