परिवार पेंशन को लेकर एक ऐसा मामला सामने आया है, जिसने हज़ारों सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए एक अहम सबक दे दिया है। अक्सर लोग समझते हैं कि पेंशन किसे मिलेगी, यह तय करने का अधिकार कर्मचारी का है और वह जिसे चाहे नॉमिनेट कर सकता है। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ज़बरदस्त फ़ैसला सुनाते हुए यह साफ कर दिया है कि परिवार पेंशन कोई वसीयत या दान नहीं, बल्कि एक वैधानिक अधिकार है।
मामला एक दिवंगत सहायक शिक्षक प्रभु नारायण सिंह से जुड़ा है। उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने परिवार पेंशन के लिए आवेदन किया, लेकिन अधिकारियों ने यह कहकर उनका दावा खारिज कर दिया कि पति ने पेंशन दस्तावेज़ों में उनका नाम नहीं लिखवाया था, बल्कि अपने बेटे अतुल कुमार सिंह को नॉमिनेट किया था। अधिकारियों का यह भी कहना था कि पत्नी का फोटो भी आवेदन के Part-III में नहीं था। लेकिन पत्नी ने इस फ़ैसले को चुनौती दी और हाईकोर्ट में याचिका दायर की। उनका पक्ष था कि वह कानूनी रूप से विवाहित पत्नी हैं, जिसके प्रमाण में ग्राम प्रधान का प्रमाण पत्र और यहां तक कि भरण-पोषण के लिए फैमिली कोर्ट का 2015 का आदेश भी था। इस आदेश में उन्हें ₹8,000 प्रति माह की राशि मंजूर की गई थी।
‘पेंशन कर्मचारी की निजी संपत्ति नहीं’
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस मामले में उत्तर प्रदेश रिटायरमेंट बेनिफिट रूल्स, 1961 और सिविल सर्विस रेगुलेशन्स का गहराई से अध्ययन किया। कोर्ट ने साफ़ किया कि इन नियमों के तहत, परिवार पेंशन पाने वालों की सूची में कानूनी रूप से विवाहित पत्नी या पति को पहली प्राथमिकता दी जाती है। नियम 7(4) के अनुसार, यदि मृत कर्मचारी पुरुष था, तो पेंशन सबसे पहले सबसे बड़ी जीवित विधवा को ही मिलेगी।
इस मामले में बेटे अतुल कुमार सिंह को नॉमिनेट किया गया था, लेकिन कोर्ट ने पाया कि पिता की मृत्यु के समय बेटा करीब 34 साल का था और एक अन्य बेटा 32 साल का। नियमों के तहत, बेटे को तभी पेंशन मिल सकती है जब वह कुछ शर्तों, जैसे कि निर्धारित आयु सीमा और आर्थिक निर्भरता, को पूरा करता हो। 34 वर्ष की आयु में, बेटा इन मानदंडों के तहत अयोग्य हो जाता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि परिवार पेंशन एक कानूनी हक़ है, जिसे कोई कर्मचारी अपनी मर्ज़ी से किसी भी नॉमिनेशन या कार्यवाही से रद्द नहीं कर सकता। इस बात पर कोर्ट ने केरल हाईकोर्ट के एस साथिकुमारी अम्मा मामले के फ़ैसले का भी हवाला दिया।
नियम क्या कहते हैं?
नियम 6 यह कहता है कि कर्मचारी को नॉमिनेशन केवल परिवार के सदस्यों के पक्ष में ही करना होता है, जो नियम 3(3) में परिभाषित हैं (जिसमें पत्नी, पति, बेटे, बेटियां, माता-पिता आदि शामिल हैं)। लेकिन, नॉमिनेशन का मतलब यह नहीं कि वह प्राथमिकता क्रम को बदल सकता है। प्राथमिकता हमेशा नियम 7(4) के अनुसार ही तय होती है, और इसमें पत्नी सबसे पहले आती है। अगर पत्नी नहीं है या वह पेंशन पाने के लिए अयोग्य है, तभी बेटे या बेटी जैसे अन्य सदस्यों को मौक़ा मिलता है, वह भी उनकी योग्यता (जैसे कि आयु और निर्भरता) को देखते हुए।
कोर्ट ने अधिकारियों द्वारा केवल नॉमिनेशन को आधार बनाकर पत्नी का आवेदन खारिज करने के तरीके को भी गलत बताया। कोर्ट ने कहा कि पत्नी 62 वर्ष की थीं और पति की मृत्यु के बाद उनके पास गुज़ारा करने का कोई अन्य साधन नहीं था। उनका पति से ₹8,000 मासिक भरण-पोषण लेना, उनकी आर्थिक निर्भरता को भी साबित करता है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले में स्पष्ट रूप से कहा कि पत्नी कानूनी रूप से विवाहित हैं और उनके पास आजीविका का कोई अन्य साधन नहीं है, इसलिए वह परिवार पेंशन की हक़दार हैं। कोर्ट ने उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पत्नी का आवेदन खारिज किया गया था, और संबंधित अधिकारियों को निर्देश दिया कि वे तत्काल प्रभाव से पत्नी के पक्ष में परिवार पेंशन जारी करें।



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