सुप्रीम कोर्ट ने कहा घर बनाने के लिए पैसे मांगना भी दहेज

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सुप्रीम कोर्ट ने कहा घर बनाने के लिए पैसे मांगना भी दहेज

छाया : न्यूज़क्लिक

भारत में दहेज प्रथा एक ऐसा सामाजिक अभिशाप है, जिसके नुकसान देखने, समझने और भुगतने के बावजूद इस बुराई को दूर करने के लिए व्यावहारिक तौर पर बहुत कम कोशिशें होती हैं। इस बुराई की चपेट में हर धर्म और हर तबके के लोग आते हैं, और देश की आधी आबादी के लिए तो यह प्रथा कई बार जानलेवा साबित हो चुकी है, फिर भी आदिकाल से यह बदस्तूर चल ही रही है। दहेज की मांग पर आज सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसला सुनाया है, जिसे व्यापक तौर पर लागू किया जाए, तो महिलाओं का उत्पीडऩ काफी हद तक रुक सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने दहेज हत्या के एक मामले में दोषी व्यक्ति और उसके पिता की सजा को बहाल करते हुए कहा है कि घर के निर्माण के लिए पैसे की मांग करना एक ‘दहेज की मांग’ है, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 304बी के तहत अपराध है।

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में एक महिला को घर बनाने के लिए पैसे देने के लिए ससुराल वाले परेशान कर रहे थे और उस पर अपने मायके से पैसे लाने का दबाव बना रहे थे। महिला का परिवार घर के निर्माण के लिए पैसे देने में असमर्थ था। इस कारण महिला ने परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी। निचली अदालत ने इस मामले में महिला के पति और ससुर को आईपीसी की धारा 304बी, 306 और 498ए के तहत दोषी ठहराया था। दोषी पति और ससुर ने इस फैसले को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने यह कहते हुए दोषसिद्धि और सजा के फैसले को खारिज कर दिया था कि मृतक ने खुद ही अपने परिवार से घर के निर्माण के लिए पैसे देने के लिए कहा था। हाई कोर्ट ने पाया कि आरोपियों के खिलाफ 304बी के तहत अपराध स्थापित नहीं किया गया था। क्योंकि मृतक महिला से कथित तौर पर घर बनाने के लिए पैसे की मांग की गई थी, जिसे दहेज की मांग के रूप में महिला की मौत के उक्त कारण से नहीं जोड़ा जा सकता। लेकिन सु्प्रीम कोर्ट की बेंच ने निचली अदालत के फैसले को सही माना है और हाई कोर्ट के फैसले को पलटते हुए आरोपियों को दोषी ठहराकर सजा की बहाली कर दी। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच ने कहा ‘दहेज’ शब्द को एक व्यापक अर्थ के रूप में वर्णित किया जाना चाहिए ताकि इसमें एक महिला से की गई किसी भी मांग को शामिल किया जा सके, चाहे संपत्ति के संबंध में हो या किसी भी तरह की मूल्यवान चीज के संबंध में। बेंच का कहना है कि आईपीसी की धारा 304बी के प्रावधान समाज में निवारक के रूप में काम करने और जघन्य अपराध पर अंकुश लगाने के लिए हैं।

इससे पहले पिछले साल दिसंबर में भी सुप्रीम कोर्ट ने एक टिप्पणी में कहा था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि दहेज एक सामाजिक बुराई है और इसको लेकर समाज के भीतर ही बदलाव होना चाहिए। कानून होने के बावजूद दहेज जैसी सामाजिक बुराई के कायम रहने पर सुप्रीम कोर्ट ने कानून पर फिर विचार करने की जरूरत भी बताई थी। गौरतलब है कि भारत में शादी के मौकों पर लेन-देन यानी दहेज की प्रथा आदिकाल से चली आ रही है। पहले इसे वधू पक्ष की तरफ से स्वेच्छा से वरपक्ष को दिया गया उपहार समझा जाता था, लेकिन यह स्वेच्छा कब लडक़ी वालों पर दबाव बन गई, कब शादी का बाजार तैयार हो गया और उसमें दूल्हों पर कीमत तय होने लगी, यह समाज ने आंख खोलकर देखा ही नहीं। दहेज की मांग पूरी न करने के कारण लड़कियों को जला कर मारने जैसे जघन्य अपराध भी हुए, मगर फिर भी दहेज का रिवाज चल ही रहा है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2020 में दहेज से संबंधित कम से कम 6,966 मौतें हुईं और 7,045 दहेज उत्पीडऩ की रिपोर्ट दर्ज की गईं हैं।

विश्व बैंक ने पिछले साल जुलाई में दहेज प्रथा पर एक अध्ययन किया था। विश्व बैंक की अर्थशास्त्री एस अनुकृति, निशीथ प्रकाश और सुंगोह क्वोन की टीम ने 1960 से लेकर 2008 के दौरान ग्रामीण इलाके में हुई 40 हजार शादियों के अध्ययन में पाया कि 95 प्रतिशत शादियों में दहेज दिया गया। भारत में साल 2008 से लेकर अब तक बहुत कुछ बदल गया है। लेकिन शोधकर्ताओं का कहना है कि दहेज भुगतान के रुझान या पैटर्न में किसी परिवर्तन के संकेत नहीं हैं। क्योंकि आज भी शादी के बाज़ार को प्रभावित करने वाले कारकों में कोई ढांचागत परिवर्तन नहीं आया है। यह शोध भारत के 17 राज्यों पर आधारित है। इसमें ग्रामीण भारत पर ही ध्यान केंद्रित किया गया है जहां भारत की बहुसंख्यक आबादी रहती है। लेकिन शहरी इलाकों और पढ़े-लिखे संपन्न तबकों के बीच भी अगर कोई शोध होगा तो दहेज के पैटर्न में कोई खास अंतर देखने नहीं मिलेगा। क्योंकि ये कड़वा सच है कि आज की स्मार्ट युवा पीढ़ी भी दहेज के मामले में पुरातनपंथी तरीके से ही चल रही है।

यह स्थिति तब है जबकि वर्ष 1961 से ही भारत में दहेज को गैर-कानूनी घोषित किया जा चुका है। इसके बाद वर्ष 1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था। इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए। कानून के ये सारे प्रावधान महिलाओं के हक में हैं। मगर किसी न किसी बहाने से दहेज का दबाव वधूपक्ष पर पड़ ही रहा है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नयी उम्मीद देता है।

सन्दर्भ स्रोत: देशबन्धु में 13 दिसम्बर को प्रकाशित सम्पादकीय  

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