संगीत एवं नृत्य विमर्श
हिन्दुस्तानी समाज की यह बदकिस्मती है कि यहां समाज को विभाजित करने की प्रवृत्ति रही है। मसलन वर्ण के आधार पर, धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर, काम के आधार पर, धन के आधार पर और यहां तक कि महिला और पुरुष के आधार पर भी विभाजित करके रखा गया है। इसके साथ ही दोहरे मापदण्ड भी हर जगह अपनाये जाते रहे हैं। कुछ काम जो पुरुष करते हैं और महिलाएं भी उन कामों को बेहतर ढंग से अंजाम दे सकती हैं, किन्तु समाज में उन्हें महिलाओं के लिए वर्जित घोषित कर रखा है। यह पुरुष प्रधान मानसिकता को दर्शाता है।
इस मानसिकता से संगीत का क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा है। संगीत जिसमें गायन, वादन एवं नृत्य भी शामिल है इसके शिकार रहे हैं। आरम्भ में तो पूरे संगीत को ही सभ्य समाज से अलग रखा गया, जबकि उसका रसास्वादन सभ्य समाज ने ही सर्वाधिक किया जैसे गायन, वादन अथवा नृत्य करने वाले लोगों को सभ्य समाज का अंग न मानकर उन्हें एक अलग वर्ग में रखा गया। यहां तक कि उनके साथ लगभग अछूतों जैसा व्यवहार किया जाता रहा। इसमें भी महिला कलाकारों को तथाकथित सभ्य समाज से बहिष्कृत करके उन पर अभद्र आरोप लगाकर बहुत बदनाम भी किया गया। इस मानसिकता ने कला और संस्कृति के विकास में बहुत बाधाएं पैदा की, और न जाने कितनी प्रतिभाओं को इन कलाओं से दूर रखकर विकास को अवरुद्ध किया। अन्यथा आज हमारी कलाएं और अधिक समृद्ध होती।
इन महिला कलाकारों से सभ्य घर की महिलाओं को मेलजोल रखने की कतई इजाज़त नहीं थी, जबकि पुरुषों के लिए यह बिल्कुल भी वर्जित नहीं था। कालान्तर में इस मानसिकता में मुल्क के कुछ हिस्सों में परिवर्तन आना भी शुरू हुआ, जैसे महाराष्ट्र, बंगाल और दक्षिण के राज्यों में कुछ जांबाज़ महिलाओं ने इस प्रवृत्ति का विरोध करते हुए इन क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराना शुरू किया जिसमें प्रगतिशील विचारों वाले पुरुषों ने भी उनका साथ दिया। पिछड़ा कहलाये जाने वाले हमारे मध्यप्रदेश में भी इसकी कुछ सुगबुगाहट शुरू हुई, लेकिन यह बिल्कुल नगण्य सी थी।
संगीत के क्षेत्र में जब महिलाओं का प्रवेश हमारे यहां शुरू हुआ, तो उसमें गायन को ही अधिक तवज्जो दी गई। महिलाओं का भी रुझान गायन की तरफ ही ज्यादा नज़र आया। इसका एक कारण यह भी रहा कि वादन के पुरूषों के ही एकाधिकार में माना जाता रहा। खानदानी गाने बजाने का पेशा करने वाले लोगों ने भी अपने घर की महिलाओं को इस कला से जोड़ने की कोशिश नहीं की या यूँ कहूँ कि हिम्मत नहीं की, जबकि उनके घरों की महिलाएं संगीत में बहुत प्रतिभावान रही। अपवाद स्वरूप संगीत के महान गुरु उस्ताद अलाउद्दीन खां का नाम इसमें सबसे ऊपर आएगा कि उन्होंने अपनी बेटी अन्नपूर्णा को इस क्षेत्र में पदार्पण कराया, शायद इसके पीछे भी उनका बंगाली समाज से ताल्लुक रखना एक महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।
अद्भुत प्रतिभा की धनी अन्नपूर्णा जी ने अपने पिता के मार्गदर्शन में सुरबहार वादन की शिक्षा प्राप्त की और देखते ही देखते सारे देश में अपने ज्ञान और वादन कौशल का लोहा मनवा लिया। उनका विवाह भारत रत्न सम्मान से विभूषित पं. रविशंकर के साथ सम्पन्न हुआ। रविशंकर जी भी उस्ताद अलाउद्दीन खां के परम शिष्यों में से एक थे। अन्नपूर्णा जी ने अपने पति के साथ भी जुगलबंदी में सितार के साथ सुर बहार पर अविस्मरणीय कार्यक्रम प्रस्तुत किये। पं. रविशंकर से उन्हें संतान के रूप में एक बेटा मिला। दुर्भाग्य से आगे जाकर उनका विवाह विच्छेद हो गया। उसके बाद से अन्नपूर्णा जी स्थायी रूप से मुम्बई में रहने लगी और संगीत शिक्षण का कार्य प्रारम्भ कर दिया, किन्तु सार्वजनिक वादन फिर कभी नहीं किया। शीर्षस्थ बांसुरी वादक पं. हरिप्रसाद चौरसिया अन्नपूर्णा जी के ही शिष्य हैं।
मध्यप्रदेश में महिला वादिकाओं के मामले में आग़ाज़ तो बहुत अच्छा हुआ लेकिन उसके बाद एक लम्बा अन्तराल ऐसा आया कि उस स्तर को छूने वाली कोई वादिका पैदा नहीं हुई। लेकिन अन्नपूर्णा जी म.प्र. की वाद्य वादिकाओं के लिए एक रास्ता प्रशस्त करके गईं। मेरी नज़र में अन्नपूर्णा जी सही अर्थों में स्वयंसिद्धा साबित हुईं। बाद के वर्षो में कुछ नौजवान युवतियों ने वाद्य वादन के क्षेत्र में प्रवेश किया जिसकी प्रशंसा की जानी चाहिए जो अभी तक अपने तमाम सीमित साधनों के बावजूद अपना स्थान बना रही हैं।
सुश्री स्मिता नागदेव, जो कि एक अच्छी सितार वादिका हैं जिन्होंने देश और विदेशों में भी अपनी कला का सफल प्रदर्शन किया है। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा श्री आष्टेवाले गुरु जी से और बाद में विश्व प्रसिद्ध सरोद वादक उस्ताद अमजद अली खां से प्राप्त की। सुश्री श्रुति अधिकारी, प्रसिद्ध संतूर वादिका हैं, इन्होंने अपनी संगीत शिक्षा प्रारंभ में अपनी माता श्रीमती संगीता कठाले जी से प्राप्त की और बाद में विश्व प्रसिद्ध संतूर वादक पं. शिव कुमार शर्मा से प्राप्त की रही हैं। आपने देश के सभी प्रतिष्ठित मंचों पर अपना सफल प्रदर्शन किया है। श्रुति संभवत: देश की पहली और इकलौती महिला संतूर वादिका हैं।
श्रुति धर्मेश एक अच्छी सितार वादिका हैं, इन्होंने अपनी संगीत शिक्षा सुप्रसिद्ध सितार वादक प्रा. असित बनर्जी से प्राप्त की है। वे सितार वादिका के साथ- साथ एक अच्छी संगीत संयोजक भी हैं और अपने पति श्री धर्मेश के साथ इस क्षेत्र में बहुत काम कर रही हैं। इनके अतिरिक्त इन्दौर की कुछ महिला कलाकार वाद्य वादन के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही हैं जिनमें श्रीमती संगीता बाजपेयी जो बहुत अच्छी सितार वादिका हैं जो सोलो और संगत दोनों में ही पारंगत हैं। भोपाल की पद्मजा विश्वरूप उन चुनिन्दा महिलाओं में से हैं जो विचित्र वीणा वादन में निष्णात हैं। महादेवी वर्मा की प्रिय शिष्या जबलपुर की गायत्री नायक सितार और जलतरंग बजाती थीं, हालांकि उनकी सार्वजनिक प्रस्तुतियों की जानकारी नहीं। मिलती वे भातखंडे संगीत विद्यालय की प्राचार्य रहीं और उन्होंने सुरों के सहयात्री शीर्षक से एक किताब भी लिखी।
श्रीमती संगीता अग्निहोत्री एक बहुत अच्छी प्रतिभावान तबला वादक हैं ये भी सोलो एवं संगत में निपुण हैं। श्रीमती रचना पौराणिक एक कुशल हारमोनियम वादिका हैं, जिन्हें बहुत सराहा जाता है, वे अनेक कलाकारों के साथ हारमोनियम संगत कर चुकी हैं। चित्रांगदा आंगले एक सुप्रसिद्ध पखावज वादिका हैं, उन्होंने देश विदेश में अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत कर अपना नाम रोशन किया है। श्रुति की तरह चित्रांगना भी देश की पहली पखावज वादिका हैं। मिताली खरगोनकर एक बहुत अच्छी तबला वादिका हैं, आपने भी कलाकारों के साथ संगत कर बहुत नाम कमाया है। प्रगतिशील चेतना के जाने-माने कवि स्व. चंद्रकांत देवताले की छोटी बेटी अनुप्रिया सुप्रसिद्ध वायलिन वादिका हैं। वे देश-विदेश के अनेक मंचों पर प्रस्तुतियां दे चुकी हैं। इंदौर की पूर्णिमा राजपुरा भी युवा और प्रतिभाशाली वायलिन वादिका हैं। वे श्री श्याम लासूरकर और गोस्वामी श्री देवकीनंदन महाराज की शिष्या रही हैं।
ये सभी महिलाएं वाद्य वादिकाएं मध्यप्रदेश की प्रतिष्ठित कलाकारों में गिनी जाती हैं। इन्हें स्वयंसिद्धा ही कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी। ये आज भी स्वयं को सिद्ध करने के लिए अपने कठिन प्रयासों से जूझ रही हैं।
लेखक सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं कला मर्मज्ञ थे। उनके इस आलेख में कुछ नाम बाद में जोड़े गए हैं।
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