मप्र विधानसभा में महिलाओं की भागीदारी

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मप्र विधानसभा में महिलाओं की भागीदारी

छाया : खासखबर डॉट कॉम

राजनीति-विमर्श

• मनोज कुमार

सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए सभी राजनीतिक दल सहमत होते हैं लेकिन जब व्यवहार में सत्ता में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने की बात होती है तब हालात कुछ और होते हैं। मध्यप्रदेश में सत्ता में भागीदारी को लेकर कोई बहुत साफ तस्वीर नहीं है। 1957 में पहली दफ़ा विधानसभा चुनाव का आगाज़ होता है तब 20 महिलाओं को विधानसभा के लिए चुना जाता है। लेकिन 1972 में जब राजनीतिक परिस्थितियां बदलती हैं, तब नाम मात्र को एक महिला विधायक का चुनाव होता है। 1957 से लेकर 2020 के उप-चुनाव की स्थिति में 1972 का चुनाव एकमात्र अपवाद है जब एकमात्र महिला प्रतिनिधि विधानसभा पहुंच पाई  थी। हालांकि पांच वर्ष बाद 1977 के विधानसभा चुनाव में यह संख्या बढ़कर 6 हो जाती है। सबसे बड़ा आंकड़ा महिला जनप्रतिनिधि चुने जाने का वर्ष 2008 का होता है। इस विधानसभा चुनाव में 26 महिला जनप्रतिनिधि विधानसभा में पहुँचती हैं। वर्ष 1967 में अपवादस्वरूप संविद सरकार में विजयाराजे सिंधिया सदन की नेता होती हैं।

मध्यप्रदेश में पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने का श्रेय भारतीय जनता पार्टी की तेज-तर्रार महिला नेत्री उमा भारती के हिस्से में जाता है।  कांग्रेस की ओर से वरिष्ठ महिला नेत्री दिवंगत जमुना देवी दो बार के लिए प्रोटेम स्पीकर की कुर्सी सम्हालती हैं तो दो बार नेता प्रतिपक्ष की ज़िम्मेदारी सम्हालने का भी उन्हें अवसर मिलता है। जमुना देवी मध्यप्रदेश की पहली महिला उप-मुख्यमंत्री भी बनी रहीं। उमा भारती को राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का गौरव हासिल है तो हिना लिखीराम कांवरे प्रथम विधानसभा उपाध्यक्ष बनने का अवसर मिला है।

इस बात से संतोष किया जा सकता है कि आदिवासी अंचल की विधानसभा सीटों पर महिला प्रतिनिधियों की सत्ता कायम रही है। इसका एक कारण हो सकता है इन विधानसभा सीटों का आरक्षित होना। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि महिला प्रत्याशियों को बदलने की कोशिश नहीं की गई। कई महिला प्रत्याशियों को एक से अधिक बार विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने अवसर दिया तो ज़्यादातर सामान्य सीट पर एक बार की निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि के स्थान पर अन्य को अवसर दिया गया।

मध्यप्रदेश विधानसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को समझना ना केवल रोचक है बल्कि ऐसा करने से मध्यप्रदेश की राजनीतिक तासीर और तस्वीर साफ़ होती है। 1957 में 16 महिला जनप्रतिनिधियों का निर्वाचन मुकम्मल होता है। 1957 में मुरैना, विजय राघवगढ़ और कोतमा में उप-चुनाव सम्पन्न होते हैं और इन तीन सीटों पर हुए उप-चुनाव में तीन महिला प्रत्याशी विजयी होती हैं। इनमें मुरैना से सागर चमेली बाई, चंदा बाई एवं कोतमा से गिरजा कुमारी विधायक चुनकर विधानसभा में पहुँचती हैं। इस प्रकार 1957 के विधानसभा चुनाव में 19 महिला विधायक कांग्रेस की टिकट पर चुनी जाती हैं। 1957 की विधानसभा में कुल महिला विधायकों की संख्या 19 में 6 सीटें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित रही है।

1962 के विधानसभा चुनाव में महिला जनप्रतिनिधि की संख्या घटकर 9 रह जाती है। इस चुनाव में कोई उप-चुनाव नहीं होता है। अलबत्ता इस चुनाव में निर्वाचित होने वाली महिला जनप्रतिधियों की 2 सीटें अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित रही है। 1967 के विधानसभा चुनाव में महिला जनप्रतिनिधि की संख्या में कोई इज़ाफा नहीं होता है और पूर्ववत 9 महिला जनप्रतिनिधि विधानसभा के लिए निर्वाचित होती हैं। इस चुनाव में पाटन की एकमात्र सुरक्षित सीट से कांग्रेस से आशालता विजयी होती हैं।

1972 में एकमात्र महिला जनप्रतिनिधि के निर्वाचन का उल्लेख मिलता है। पिपरिया विधानसभा सीट से सामान्य पर रतन कुमारी देवी विधानसभा के लिए निर्वाचित होती हैं। रतन कुमारी देवी इसके पूर्व 1962 और 1967 में भी विधानसभा के लिए कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित होती रही हैं।  1980 में कांग्रेस ने सविता वाजपेई को टिकट दिया और वे विजयी रहीं। सविता वाजपेयी इसके पहले 1977 में सीहोर विधानसभा सीट से चुनाव जीत चुकी थीं। चुनाव आयोग, भारत सरकार के साइट पर दर्ज परिणाम के अनुसार इसके बाद पिपरिया से किसी भी महिला को, किसी भी दल ने अपना प्रत्याशी नहीं बनाया।

1957 में कोतमा से गिरजा कुमारी कांग्रेस की टिकट पर निर्वाचित हुईं थीं जिन्हें पार्टी ने 1962 में फिर से कोतमा से ही प्रत्याशी बनाया था और वे विजयी रहीं। 1962 में कोतमा विधानसभा सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित कर दी गई। तीसरी दफ़ा कांग्रेस ने उन्हें अनूपपुर से प्रत्याशी बनाया और वे विजयी रहीं।

केवलारी विधानसभा क्षेत्र से 1967 में कांग्रेस की टिकट पर चुनाव जीतने वाली विमला वर्मा को 1972 एवं 1977 में भी अवसर मिला और वे कांग्रेस की टिकट पर विजयी रहीं। इसके बाद 1980 एवं 1985 में भी कांग्रेस की टिकट पर केवलारी विधानसभा क्षेत्र से विजय हासिल की, जबकि यह एक सामान्य सीट थी।

छिंदवाड़ा विधानसभा को लेकर नाथ परिवार का ही उल्लेख मिलता है जबकि छिंदवाड़ा सामान्य सीट से तीन बार कांग्रेस की टिकट पर तीन महिला विधायक का निर्वाचन होता है। 1957 में पहली बार और 1962 में दूसरी बार विद्यावती मेहता ने कांग्रेस की टिकट पर जीत दर्ज की थी। 1967 में एक बार फिर कांग्रेस की टिकट पर विद्यावती मेहता ने जीत दर्ज की। 1985 में कांग्रेस की टिकट पर कमलेश्वरी शुक्ला ने छिंदवाड़ा सामान्य सीट को फ़तह किया था।

मध्यप्रदेश के अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर लगातार जीत दर्ज करने वाली महिला जनप्रतिनिधियों में कांग्रेस की वरिष्ठ नेता दिवंगत जमुना देवी, डॉ. विजयलक्ष्मी साधो, निर्मला भूरिया एवं रंजना बघेल प्रमुख हैं। गंगाबाई एकमात्र ऐसी आदिवासी जनप्रतिनिधि रही हैं जिन्हें 1957 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जोबट सुरक्षित सीट से प्रत्याशी बनाती है। इसके बाद 1972 में एक बार फिर सुरक्षित विधानसभा सीट झाबुआ से वे कांग्रेस प्रत्याशी बनती हैं। 1980 और 1985 विधानसभा चुनाव गंगाबाई पेटलावद विधानसभा सुरक्षित सीट से जीतकर विधानसभा पहुँचती हैं।

जमुना देवी की राजनीतिक पारी की शुरूआत पहले मध्यभारत की पहली विधानसभा की 1952 से 1957 तक सदस्य रहीं। इसके बाद वे लोकसभा एवं इसके बाद राज्यसभा के लिए निर्वाचित होती हैं। 1985 के विधानसभा चुनाव से नए मध्यप्रदेश में उनकी चुनावी राजनीति आरंभ होती है। कुक्षी विधानसभा क्षेत्र से वे पहली बार विधायक चुनी जाती हैं। 1990 में भाजपा प्रत्याशी रंजना बघेल कुक्षी विधानसभा सीट से जीत दर्ज कर जमुना देवी को परास्त कर देती हैं। हालांकि 1993 के विधानसभा चुनाव में जमुना देवी फिर से विधायक निर्वाचित हो जाती हैं। कांग्रेस की इस दिग्गज को परास्त करने वाली भाजपा नेत्री रंजना बघेल अगले चुनाव में कुक्षी छोड़कर धार जिले की ही मनावर सीट से 2003 एवं 2008 का चुनाव जीत लेती हैं।

महेश्वर विधानसभा सुरक्षित सीट से डॉ. विजयलक्ष्मी साधो अपने पिता सीतराम साधो की सीट से पहली बार 1985 में चुनाव जीत जाती हैं. इसके बाद 1993, 1998, 2008 एवं 2018 का विधानसभा चुनाव जीत जाती हैं. जोबट सुरक्षित विधानसभा सीट से निर्मला भूरिया 1993 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस की टिकट पर जीत जाती हैं। इसके बाद 1998 एवं 2003 का विधानसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर लड़कर चुनाव में विजयी हो जाती हैं। हालांकि इसके बाद फिर उन्हें कांग्रेस की सुलोचना एवं कलावती भूरिया से पराजय का सामना करना पड़ता है। इसी तरह डबरा सुरक्षित विधानसभा क्षेत्र से श्रीमती इमरती देवी 2018, 2013 एवं 2018 का चुनाव कांग्रेस की टिकट पर जीत जाती हैं, लेकिन 2020 में हुए उप-चुनाव में डबरा सुरक्षित विधानसभा सीट से इमरती देवी को पराजय का सामना करना पड़ता है। जबलपुर सेंट्रल विधानसभा क्षेत्र से 1977 में पहली बार जयश्री बनर्जी ने जनता पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़कर चुनाव जीता तो 1990 जबलपुर पूर्व विधानसभा क्षेत्र भाजपा की टिकट पर विजय हासिल की। इसी विधानसभा क्षेत्र से उन्होंने 1993 का चुनाव भी भाजपा की टिकट पर जीता।

मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम का विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि 1957 के पहले विधानसभा चुनाव में महिलाओं का दख़ल ज़्यादा था।  यह समय अविभाजित मध्यप्रदेश का था, लेकिन छत्तीसगढ़ अलग हो जाने के बाद जिस तरह महिलाओं की सत्ता में भागीदारी बढ़नी चाहिए थी, वह नहीं बढ़ी। मध्यप्रदेश देश का इकलौता राज्य है जहां स्थानीय निकाय एवं पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित है। ऐसे में यह विश्वास किया जा सकता है कि आने वाले समय में सुरक्षित विधानसभा सीटों के अलावा मुख्यधारा की विधानसभा सीटों पर महिलाओं की सहभागिता बढ़ाई जाएगी। विश्लेषण में यह भी पता चलता है कि जिन सीटों पर महिलाएं विजयी होती रही हैं, उन पर बाद के चुनावों में पुरुषों को खड़ा कर दिया गया।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

© मीडियाटिक

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