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वित्त एवं आर्थिक क्षेत्र
आज़ादी के बाद, मंथर गति से ही सही महिलाओं की जीवन शैली में भी परिवर्तन आया। लोग रोजगार की तलाश में गाँव से शहरों की तरफ आने लगे, गाँवों का शहरीकरण हुआ, पारंपरिक प्रतिबंधों की कसावट ढीली पड़ी तो लडकियां पढ़ने भी जाने लगीं। फिर उनकी कामकाजी पीढ़ी भी तैयार हुई। कुछ महिलाएं अपनी पहचान के लिए तो कुछ मजबूरन नौकरी और कारोबार से जुड़ने लगीं। इसी सिलसिले में वित्तीय संस्थाओं – जैसे बैंक या ऋण देने वाली कंपनियों से भी उनका वास्ता पड़ने लगा। घरेलू महिलाएं कम ही बैंकों की तरफ रुख करती हैं। इस बदलाव को देखते हुए महिला बैंकों की ज़रुरत स्वाभाविक रूप से महसूस की जाने लगी। अर्थात ऐसा बैंक जहाँ महिलाएं बेझिझक और सहज होकर आ जा सकें, कुछ पूछ सकें अथवा शंका समाधान कर सकें।
इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए 19 नवम्बर 2013 को तत्कालीन सरकार द्वारा भारतीय महिला बैंक की स्थापना काफी धूमधाम के साथ की गई। बैंक की शुरुआत के लिए उत्साह इतना था कि पहली शाखा के उद्घाटन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और वित्त मंत्री पी चिदंबरम शामिल हुए थे। इसका मुख्यालय दिल्ली में रखा गया और इसकी पहली अध्यक्ष ऊषा अनंत सुब्रह्मण्यम थीं। भारतीय महिला बैंक का उद्देश्य महिलाओं में वित्तीय साक्षरता को बढ़ावा देना, महिलाओं की आजीविका के लिये सहायक बनना, समावेशी विकास को सुगम बनाना, महिलाओं की संपत्ति के स्वामित्व को बढ़ावा देना और महिला उद्यमिता को प्रोत्साहित करना था, साथ ही बैंकिंग एवं वित्तीय उत्पादों, सेवाओं तथा सुविधाओं को बिना किसी परेशानी के महिलाओं को उपलब्ध कराना भी।
लेकिन ये मकसद कितनी बुरी तरह नाकाम हुआ है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 3 साल में भारतीय महिला बैंक ने सिर्फ 192 करोड़ रुपये के लोन महिलाओं को दिए, जबकि जिस स्टेट बैंक में इसका विलय हुआ, वह महिलाओं को 46 हज़ार करोड़ रुपये का कर्ज दे चुका था।इतना ही नहीं, देशभर में स्टेट बैंक की 126 एक्सक्लूसिव विमेन ब्रांच हैं, जबकि भारतीय महिला बैंक के सिर्फ 7। और तो और, स्टेट बैंक के करीब 2 लाख कर्मचारियों में से करीब 22 फ़ीसदी महिलाएं हैं। संयोग से विलय के समय स्टेट बैंक की अगुवाई भी एक महिला के हाथ में थी। इसके बरक्स देशभर में भारतीय महिला बैंक की 103 शाखाएं थीं और कुल कारोबार महज 16 सौ करोड़ का था।
साफ है कि भारतीय महिला बैंक का विचार बिलकुल असफल साबित हुआ। अगस्त 2015 से ही इसे बंद करने की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी और 1 अप्रैल 2017 को इसका विलय देश के सबसे बड़े बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में हो गया।जबकि इसके कुछ प्रोडक्ट ऐसे भी थे, जो सिर्फ महिलाओं को ध्यान में रखकर लाए गए थे। किचन लोन, क्रेच लोन, होम-बेस्ड कैटरिंग लोन जैसे नवाचारी योजनाओं के सहारे महिलाओं को इसकी तरफ आकर्षित करने की कोशिश की गई। यहां तक कि दूसरे सरकारी बैंकों के मुकाबले बचत खाते खोलने पर ज्यादा ब्याज का ऑफर भी था।
लेकिन सच ये है कि पिछले 3 साल में न तो सरकार ने, न ही भारतीय महिला बैंक की तरफ से खुद के प्रचार-प्रसार पर ध्यान दिया गया। नतीजतन, जिन महिलाओं के लिए यह बैंक शुरू किया गया था, उन्हें पता भी नहीं चला। जब इस बैंक की योजना बन रही थी, तब भी कई लोग थे, जो महिला बैंक की अवधारणा से सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि महिलाओं के वित्तीय समावेशन के लिए अलग से महिला बैंक बनाए जाने की जरूरत नहीं है। हालांकि इस विचार के पक्षधर लोगों का मानना था कि महिला ग्राहकों को वो बैंक ज्यादा लुभाएगा, जहां सिर्फ महिला कर्मचारी हों। मध्यप्रदेश में इस बैंक की पहली शाखा इंदौर में खोली गई, फिर भोपाल, जबलपुर एवं उज्जैन में भी इसे आजमाया गया। इन चारों शाखाओं का विधिवत विलय 21 अगस्त 2018 को हुआ।
इस बहस में न भी पड़ें, तो भारतीय महिला बैंक की नाकामी की वजहें साफ दिखती हैं। एक तो इस बैंक की सभी शाखाएं शहरी इलाकों में खोली गईं, जहां पहले से ही बैंकिंग सेवाएँ अच्छी हालत में थीं। बैंक का लक्ष्य अगर वित्तीय समावेशन था बेहतर होता कि वह ग्रामीण इलाकों पर अपना ध्यान केंद्रित करता। साथ ही अगर वाकई एक नए बैंक को पुराने और स्थापित बैंकों के सामने खड़ा करने का लक्ष्य होता, तो योजना पुख्ता बननी चाहिए थी।
वजह चाहे जो हो, लेकिन ‘महिलाओं का, महिलाओं के लिए और महिलाओं के द्वारा बैंक’ की सोच सिर्फ नारे तक सीमित रह गई और भारतीय महिला बैंक इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।
स्रोत: द क्विन्ट डॉट कॉम पर प्रकाशित आलेख, संपादन : मीडियाटिक डेस्क
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