पंचायती राज में महिला नेतृत्व और चुनौतियां

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पंचायती राज में महिला नेतृत्व और चुनौतियां

छाया : जागरण डॉट कॉम

राजनीति-विमर्श

• नीति दीवान

बीते कुछ वर्षो के दौरान कई राज्य सरकारों ने स्थानीय निकाय में महिलाओ की भागीदारी को और अधिक बढ़ाने के लिए 33 प्रतिशत से कहीं ज्यादा 50 प्रतिशत पद आरक्षित करने का अभूतपूर्व फैसला लिया था, इन राज्यों के इस सकारात्मक निर्णय से आगे बढ़कर पंचायत राज के दूसरे दशक की अन्तिम पारी पूरी होते-होते सरकार ने देश भर में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का निश्चय किया है, जिसके तहत वर्ष 2014 के पंचायत चुनाव मे अकेले म.प्र मे कुल पदों मे से आधे पद महिलाओं के लिए सुरक्षित किये गये। इन पदों मे पंच के रूप मे 180775 सरपंच के पद पर 11428 महिलाएं एवं जनपद सदस्य के रूप मे 3379 महिलाएं एवं जिला पंचायत मे 427 महिलाएं सदस्य के रूप मे नेतृत्व कर रही हैं । इस तरह 1,96,009 महिलाएं पंचायतराज के तीनों स्तरों पर नेतृत्व कर रही हैं।

वर्ष 2010 मे हुए चुनाव मे विदिशा जिले की हिनौतिया पंचायत एवं नरसिंगपुर जिले की मडे़सुर पंचायत पूर्णतः महिला पंचायत के रूप मे स्थापित हुई थी। गांव वालों ने इन पंचायतों की सत्ता पूरी तरह महिलाओं के हाथ में सौंप दी थी, ताकि गांव मे विकास की परिभाषा नये सिरे से गढ़ी जा सके।

ठीक तीन दशक पूर्व जब 33 प्रतिशत आरक्षण घोषित हुआ था, उस समय सत्ता मे व्यापक स्तर पर भागीदारी करने वाली महिला प्रतिनिधियों की भूमिका के बारे में सोचा गया था, कि आरक्षण के बहाने जब सत्ता मे महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो नेतृत्वकारी महिलाएं अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हुए निर्णय मे भागीदारी निभायेंगी और ग्रामीण विकास के वास्तविक और जरूरी काम करेंगी, वे प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और निर्णय जैसे अहम् पहलू पर भी काम कर सकेंगी इसके साथ ही नेतृत्वकारी महिलाएं संगठित ताकत के बल पर महिला हिंसा के विरूद्ध खुल कर काम कर सकेंगी जिससे समाज मे जड़ जमा चुकी समस्याएं जैसे लिंग आधारित गर्भपात, बालविवाह, दहेज प्रथा, यौन हिंसा जैसी जघन्य हिंसा भी पूरी तरह खत्म हो जायेगी। उससे भी आगे बढ़कर स्त्री पुरूष गैर बराबरी का ढांचा भी ध्वस्त हो जायेगा, साथ ही अपनी भूमिका को आत्मसात कर वे ग्रामीण क्षेत्र मे कई तरह के रचनात्मक काम कर सकेंगी। किन्तु डेढ़ दशक गुजर जाने के बाद भी समाज द्वारा स्वीकृति न मिलने के कारण कुछ उदाहरणों को छोड़कर महिला प्रतिनिधि मुखर होकर काम नही कर पा रहीं है। आज भी उनकी स्थिति दोयम दर्जे की ही बनी हुई है, जो शायद व्यापक और बुनियादी बदलाव के बिना आरक्षण मिलने के बावजूद भी बनी रहेगी। क्योंकि वास्तव में इन प्रतिनिधियों को सदियों से चली आ रही परम्परा को तोड़ना दुरूह साबित हो रहा है।

स्वंय परिवार, समाज और राज सत्ता के ताने बाने में वजूद बनाती इन स्त्रियों के लिये नेतृत्व के मायने भी परम्परागत नेतृत्व से अलग है ,कहीं वे जटिल व परम्परागत नेतृत्व को चुनौती देते हुये नेतृत्व के मायनों को अपने में ढालने की कोशिश कर रही हैं ,तो कहीं परम्परागत नेतृत्व को आत्मसात करने की। इन विपरीत और विषम परिस्थितियों के बावजूद आरक्षण के बलबूते सत्ता में आई कुछ नामचीन महिलाओं ने परम्परा को तोड़कर कठिन संघर्ष का रास्ता चुनते हुये, अपने महत्व को पहचाना है। ऐसी ही कुछ सम्मानित नेत्रियों में सुखिया बाई हो या धूला रत्नम या फिर उर्मिला बाई हो या प्रभावती देवी इन्होने चुनौती स्वीकार करते हुए जान गंवा कर महिला नेतृत्व को स्थापित किया है। ऐसी ही कई स्वनामधन्य नेतृत्वकारी महिलाओं ने चरित्र पर आरोप, जातिगत अपमान, मारपीट, हत्या, आत्महत्या, यौन हिंसा जैसी जघन्य हिंसा झेलकर नेतृत्व की कीमत चुकाई है। मगर इतने संघर्ष के बावजूद भी पीछे नही हटी। महिला नेतृत्व को स्थापित कर नेतृत्व मे आगे आई इन महिला नेत्रियों को आज आरक्षण के साथ-साथ ही सम्मान, सहयोग, समानता का दर्जा और सुरक्षित वातावरण की जरूरत है, तो दूसरी ओर उनमे आत्मविशवास पैदा करने, जानकारी के लिए स्रोत उपलब्ध कराने की लगातार जरूरत है, ताकि वे अपने महत्व को पहचानते हुऐ बेखौफ माहौल मे काम कर सकें।

ठीक 15 वर्ष पूर्व 73 वें पंचायतीराज संशोधन अधिनियम के तहत् महिला आरक्षण के मुद्दे पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुये भूतपूर्व सरपंच रुक्मणि दुबे (1965) सुधा गौर (1975) शिवकली बाई, सावित्री वर्मा (1989) ने कहा था, कि महिला आरक्षण सत्ता में महिला भागीदारी का एक सशक्त माध्यम बन सकता है, जिसके माध्यम से निश्चित ही महिलाओं के वर्तमान हालात को बदला जा सकता है। बशर्ते उन्हे अपनी यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए सम्मानजनक माहौल उपलब्ध हो।

इस डेढ़ दशक के दौरान राजनैतिक साझेदारी के इस सफर मे संघर्ष झेल चुकी महिलाओं में से कई महिलाएं ऐसी हैं, जो पूरी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए पुनः आगे बढ़कर काम करना चाहती हैं ,किन्तु समाज, प्रशासन और कानून के आगे वे विशश हैं। पंचायत में चुनकर आई महिला प्रतिनिधियों खासकर दलित आदिवासी महिलाओं ने अपने कार्यकालों में कई तरह के विकास कार्य किये, जबकि उन्हे हर कदम पर असहयोग का सामना करना पड़ा। उदाहरण के लिए-सीधि जिले के चैफाल पवई की आदिवासी महिला सरपंच रामरती बाई ने गांव वालों को साथ लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में पिछले कई वर्षो से चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई एवं ठेकेदार जो ब्लैक मे सामान बेचता था, उसे सजा दिलवाई एवं गांव मे कई विकास के काम किये। सामान्य महिला सीट से दो सवर्ण उम्मीदवारों को चुनौती देकर चयनित हुई सागर जिले के पथरिया पंचायत की दलित सरपंच फूलबाई ने पुलिस के भ्रष्टाचार का प्रकरण उजागर किया, अन्ततः पुलिस को उनके पैसे और अनाज वापिस करना पड़े। उन्हे फंसाने के लिए कई तरह के उपाय किये गये, उन पर जानलेवा हमला भी हुआ। बीड़ी बनाकर जीवकोपार्जन करने वाली फूलबाई को जब उत्कृष्ट कार्य के लिए एक राष्ट्रीय अखबार द्वारा 1100 रू का बजीफा मिला तो उसे वे कैश नही करा पाई कारण था, उनके नाम से कोई बैक खाता न होना।  फूलबाई के मुताबिक कभी हमारे पास इतना पैसा ही नहीं रहा कि बैक खाता खुलवाकर बैंक मे रखा जा सके। इकलेरा माताजी की सरपंच रामप्यारी बाई ने नुक्क्ड़ सभाओं के जरिये लोक चेतना जागृत कर बाल विवाह जैसी कुरीतियों पर रोक लगाई। इस तरह मन्दसौर के धुंधड़का पंचायत की सरपंच अनिता कुंवर ने टैक्स पद्धति लागू कर गांव को आत्मनिर्भर बनाया । मण्डला जिले के खापा पंचायत की सरपंच शिवकली बाई ने चैथी बार सत्ता संभालते हुए गांव मे कई विकास के काम किये।  बरगी बांध से विस्थापित शिवकली बाई गिट्टी तोड़ने की मजदूरी करती थी, उसी दौरान वे सरपंच बनी। विदिशा जिले के गंजबासौदा की दलित महिला सरपंच नब्बी बाई ने प्रभुत्वशाली लोगों द्वारा वर्षो से अतिक्रमित जमीन को छुड़वाया एवं गांव मे दाह संस्कार के लिए जमीन उपलब्ध करवाई। इसी तरह सीहोर के सतराना की सरपंच कुसुम बाई ने महिलाओं का  समूह बनाकर उन्हे रोजगार के साधन से जोड़ा एवं गांव मे बिक्री हेतु हाट की स्थापना की। झाबुआ जिले के छापरी पंचायत की सरपंच मानकीबाई ने बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अपनी पंचायत में  शिक्षा को लेकर कई काम किये। धार जिले के पडोनिया पंचायत की सरपंच लीलाबाई ने रोजगार गारन्टी योजना के तहत कई काम किये। इसी तरह श्योपुर के गोठरा पंचायत की सरपंच राजोबाई ने सबको नियमित राशन उपलब्ध कराने के लिये कई महत्वपूर्ण काम किये। मंदसौर जिले के रणायरा ग्राम पंचायत की सरपंच जसौदा बाई ने नवीन पंचायत का गठन करवाया।  दरअसल यहां के दो गांव से पंचायत कार्यालय की दूरी अधिक होने के कारण महिलाएं मीटिंग मे भाग नहीं ले पाती थीं, जिससे महिलाओं ने संगठित होकर नई पंचायत बनाने की मांग की, महिलाओं की समस्या देखते हुए यहां नवीन पंचायत का गठन किया गया।

73 वां अधिनियम लागू होने के बाद जब पहले चुनाव के दौरान घोषित किया गया कि अब कुल पदों मे से एक तिहाई पद महिलाओं के लिये आरक्षित किये जायेंगे तो परम्परा से घर की धूरी के इर्द गिर्द रही महिलाओं के लिये उनके परिवार और गांववालो ने सरकारी आदेश के चलते बेमन से चुनाव में उम्मीदवार बना दिया। इस तरह कई महिलाओं को पता भी नही चला और वे विभिन्न पदों पर जीत कर आ गई। तो कई स्थानों पर निर्विरोध रूप से चयनित हो गई। प्रथम चरण मे चयनित हुई प्रतिनिधियों के हालात जानने  के लिए एकत्र संस्था द्वारा किये गये अध्ययन के दौरान होशंगाबाद जिले के रैसलपुर पंचायत की भूतपूर्व सरपंच उषा पटेल ने अपने अनुभव मे बताया था कि अब मुझे पता चला है ,कि गांव की किस दिशा में हमारा घर है,स्कूल है और आंगनवाड़ी कहां है? पहले जब मैं मायके से आती या जाती थी, तो बंद बैलगाड़ी में घूंघट कर यात्रा करती थी,चुनाव के बहाने मुझे गांव के बारे मे ये जानने का मौका मिला।

पंचायत राज में अपने महत्वपूर्ण पद का सदुपयोग करते हुए इन महिलाओं ने सत्ता में अपना वजूद बनाने की कोशिश की तो वहां इन्हे कई तरह की प्रताड़ना झेलकर नेतृत्व की कीमत चुकाना पड़ी, खासकर दलित आदिवासी महिलाओं को।  एक तो उनका महिला होना ऊपर से जातिगत रूप से समाज द्वारा कमतर आंकना दोहरी चुनौती थी।  जमींदार एवं प्रभुत्वशाली लोग जो  परम्परागत रूप से गांव की सत्ता संभाल रहे थे, उन्हे राजनीति में महिलाओं की दखलंदाजी रास नही आई। यही कारण रहा, कि महिलाओं को प्रताड़नाओं का शिकार होना पड़ा, वो चाहे पारिवारिक स्तर पर हो, समाज के स्तर पर हो या फिर प्रशासन के स्तर पर, उन्हे हिंसा झेलकर अपना वजूद बनाना पड़ रहा है। साथ ही परम्परागत समाज में रह रही इन स्त्रियों को आगे आने के लिये स्वयं के द्वंदों से भी लड़ना पड़ रहा है, जहां परिवार मे उनकी भूमिका सिर्फ घर की कामकाज करने वाली स्त्री तक सीमित है, तो दूसरी ओर पंचायत मे पूरे गांव के नेतृत्व की। इस जद्दोजहद में अपना वजूद बना रही ये महिलाएं ग्रामींण विकास के लिये कई काम करना चाहती है, बशर्ते उन्हे समुचित माहौल उपलब्ध हो।  परिवार, समाज और राजसत्ता के ताने-बाने में अपने आप को स्थापित कर रही इन प्रतिनिधियों को कई तरह की हिंसा का सामना करना पड़ रहा है, इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है, कि महिलाओं के लिए वास्तव मे नेतृत्व करना कितना कठिन साबित हो रहा है।

50 प्रतिशत आरक्षित पदों के अलावा बाकी के पद सामान्य माने जाते हैं, जिन पर महिलाएं भी चुनाव लड़ सकती हैं, किन्तु चुनाव के दौरान प्रचारित यह किया जाता है, कि शेष पद पुरुषों के लिये आरक्षित हैं, जिससे उस पद पर चुनाव लड़ने की इच्छुक महिलाएं आगे नही आ पातीं, और जीतने की संभावना होने के बावजूद भी भ्रमपूर्ण शब्दावली की वजह से चुनाव लड़ने से वंचित रह जाती है।

जैसे-जैसे नेतृत्व मे महिलाओं की भागीदारी बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे हिंसा की वारदातें भी बढ़ रही हैं,  भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते हुये जान गंवा चुकी म.प्र. के बैतूल जिले के गुबरैल ग्राम पंचायत की आदिवासी सरपंच सुखिया बाई कर्मठ और ईमानदार नेता थीं।  वे गांव में वास्तविक विकास करना चाहती थीं, किन्तु इसके एवज मे उनसे पांच हजार रू. भ्रष्टाचार के रूप मे मांगे जा रहे थे, काफी संघर्ष के बाद जब समझौता नही हुआ तो अंततः सुखिया बाई ने निराश होकर मिट्टी का तेल डालकर आत्मदाह कर लिया। एक तरफ प्रशासन का नकारात्मक रवैया तो दूसरी ओर गांव की जरूरत ने सुखिया बाई को इतना प्रताड़ित कर दिया था, कि उन्हे मौत को गले लगाना पड़ा । इसी तरह जिले के डोंगरिया पंचायत की भूतपूर्व दलित पंच उर्मिला बाई ने फर्जी दस्तखत और मजदूरों को दी जा रही कम मजदूरी के खिलाफ आवाज उठाई तो दो बार बलात्कार होने के बाद उन्हे गांव से बहिष्कृत कर दिया गया। न्याय की आस में तीन वर्षो तक दर-दर भटकती रही उर्मिला बाई ने अंततः हार मानकर कलेक्टर कार्यालय में सल्फास की गोली खाकर आत्महत्या कर ली। इसी तरह मंदसौर जिले के अम्बा ग्रामपंचायत की सरपंच मौड़ी बाई भी दलित होने के बावजूद गांव के विकास कार्यों में हस्तक्षेप कर रही थी, पंचायत मे सक्रिय भागीदारी निभाने वाली मौड़ी बाई की ये दबंगता गांव वालो को पसंद नही आई।  उन्होंने पहले सरपंच के पति को प्रताड़ित किया। फिर उनके पति ने इस बात से नाराज होकर कि पत्नी की वजह से उसे अपमानित होना पड़ा, सरेआम उनकी हत्या कर दी।

परम्परागत भूमिका से हट कर नेतृत्व मे आगे आ रही इन महिलाओं को निराश करने और इनका मनोबल गिराने का सबसे सरल और कारगर हथियार है, उन पर चरित्रहीन होने का आरोप लगाना। इस तरह के मनगढंत आरोपों के कारण महिलाएं हताश हो जाती है, और मुखर होकर भूमिका निभाने से डरती हैं। पंचायती राज मे महिला हिंसा का ग्राफ धीरे-धीरे बढ़ता जा रहा है, खासकर यौन हिंसा का, पिछले कार्यकाल में छतरपुर के महोईकला ग्राम पंचायत की सरपंच रही इंदिरा कुशवाह का दलित होना ही काफी था, गांव का नेतृत्व करने को आतुर सरपंच को गांव के प्रभावशाली लोगों ने पहले डराया धमकाया, एवं विकास कार्य के लिए आई राशि में से पैसे देने का दबाब डाला।  यह दबाब स्वीकार न करने पर उन्हे निर्वस्त्र कर गांव मे घुमाते हुए उनकी पिटाई की गयी। शिवपुरी के सिनावतकला की दलित महिला सरपंच के साथ गांव के कुछ प्रभावशाली व्यक्तियों ने सामूहिक बलात्कार किया। होशंगाबाद की सोना सांवरी की दलित महिला सरपंच केसर बाई दलित सीट आरक्षित होते ही गांव की सरपंच बन गई। नेतृत्व में आगे आई केसर बाई को दूसरे दिन से ही सुनने को मिलने लगा कि अब निचली जाति की महिला हम पर राज करेगी और यहीं से उन पर हिंसा का सिलसिला शुरू हो गया।  पहले कार्यकाल के दौरान घर पर बम फेंकने, मारपीट करने की घटनाएं लगातार होती रही तो दूसरे कार्यकाल मे अपने बलबूते पर जीती केसर बाई पर झूठे आरोप लगाकर धारा 40 के तहत् पद से हटाने की कवायद हुई। किन्तु जांच होने पर फैसला इनके पक्ष मे आया, इससे नाराज विरोधी लोगो ने इन पर चाकू से वार किया, मारा पीटा जिससे 16 बार जांच चलने के कारण वे गांव के विकास के लिये काम नही कर पाई।  इन विषम परिस्थितियों के बावजूद आज भी वे आशान्वित हैं और आगे बढ़ना चाहती है, तीसरे कार्यकाल में केसर बाई ने जिला पंचायत का चुनाव लड़ा किन्तु वे हार गई। गुना के मावन ग्रामपंचायत की दलित सरपंच गुलाब बाई को बेरहमी से लाठियों से इसलिये पीटा गया क्योंकि वह गांव के प्रभावशाली लोगों को समिति मे शामिल होने से रोक रही थी। आजाद भारत में महिला नेतृत्व की कीमत चुकाने वाली धार जिले के नालक्षा ग्रामपंचायत की दलित सरपंच शांति बाई, टीकमगढ़ के पीपराबिलारी पंचायत की सरपंच गुंदीया बाई को दलित होने के कारण गांव के प्रभावशाली लोगो ने झंडा नही फहराने दिया।  यह सलूक गांव मे सरपंच के साथ ही नही हुआ, बल्कि होशंगाबाद जिले की जिला पंचायत अध्यक्ष उमा आरसे के साथ भी घटित हुआ। किन्तु उन्होंने हार नही मानी और गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराया।

कार्यस्थल पर इस समस्या के साथ ये महिलाएं घरेलू मोर्चे पर भी संघर्षरत रहती हैं।  नेतृत्व के लिये  एक ओर महिलाएं अपने स्वयं की सीमाओं और संकोच को तोड़कर बाहर निकलने की कोशिश करती हैं, दूसरी तरफ घरेलू मोर्चे पर भी अकेली जूझती रहती हैं।  घर संभालना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना, मजदूरी और खेती के काम करना उनकी अनिवार्य जिम्मेदारियां हैं । इस वजह से वे समय पर कार्यक्रम या मीटिंग मे नही पहुंच पाती, जिससे सार्वजनिक रूप से उनका सम्मान कम हो जाता है।  हिंसा के स्वरूप मे जातिगत संबोधन भी एक जघन्य हिंसा का रूप है। उन्हे एहसास कराया जाता है ,कि वे निचली जाति की हैं ,उन पर अश्लील टिप्पणियां की जाती हैं एवं उनके नाम के साथ जातिगत संबोधन भी किया जाता है। ऐसे संबोधनों के कारण वे अपमानित महसूस करती है और सार्वजनिक जीवन मे आगे आकर काम करने का साहस नही जुटा पातीं।

पहले कार्यकाल के दौरान आरक्षित पद पर चुनकर आई महिलाओं के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के मामले सबसे ज्यादा हुए थे। तो दूसरे कार्यकाल से वापिस बुलाने के अधिकार का इस्तेमाल पूरी तरह से महिला खासकर दलित, आदिवासी महिलाओं के खिलाफ किया गया जिससे प्रभावित हुई अनूपपुर एवं सांची की नगर पंचायत अध्यक्षों ने अपने-अपने ढंग से इस कानून की कीमत चुकाई। इसी तरह धारा 40 के कानून का व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल महिला प्रतिनिधियों के खिलाफ हुआ। ‘द हंगर प्रोजेक्ट’ द्वारा किये गये अध्ययन से निकले तथ्यों के मुताबिक सन् 2000 से 2004 के बीच 589 सरपंचों को हटाया गया, जिसमे 166 महिला सरपंच भी प्रभावित हुई, इनमें भी दलित आदिवासी महिलाएं सबसे ज्यादा है।  जातिगत रूप से कमजोर होने, अनपढ़ होने और महिला होने के नाते उनके पद का इस्तेमाल कोई और कर रहा था किन्तु पद पर होने के कारण आरोप की सजा उन्हे भुगतना पड़ी। खातेगांव की आदिवासी सरपंच प्रेमबाई जो बीड़ी कारखाने मे मजदूरी करती थी, उन्हे भी धारा 40 के तहत् जेल की सजा सुनाई गई थी। प्रेमबाई ने बताया कि हमने कोई पैसा नही खाया है, काम करते समय किसी ने मेरे सुपड़े मे पैसे डाल दिये थे, और मुझे फंसा दिया, मुझे मालूम ही नही चला और मुझसे कई कागजों पर दस्तखत करवा लिये गये। बाद मे उनकी मृत्यु हो जाने के कारण प्रकरण खत्म कर दिया गया।

धारा 40 के तहत की गई हिंसा के अलावा दो बच्चों के कानून की गाज भी महिलाओं पर ही गिरी, जहां दशक भर पहले सरकार ने महिलाओं को पंचायत के माध्यम से आगे लाने और सशक्त करने का बीड़ा उठाया था, वहीं इस तरह के कानून पूरी तरह उनके खिलाफत कर रहे थे। कई राज्यों मे अभी भी यह कानून लागू है जिससे कई महिला प्रतिनिधियों को गांव के समुचित विकास और अद्वितीय काम करने के बावजूद भी पद से हाथ धोना पड़ा और अब हमेशा के लिये घर की चारदीवारी मे कैद होना पड़ रहा है।  मध्यप्रदेश मे 26 जनवरी 2001 से उक्त कानून लागू हुआ । दो बच्चो के कानून का जन प्रतिनिधियों पर असर विषय पर समा संस्था दिल्ली के नेतृत्व मे तराशी संस्था म.प्र. की टीम द्वारा म.प्र. के 12 जिलो मे अध्ययन किया गया। अध्ययन से निकले निष्कर्ष काफी चैकाने वाले हैं। जहां कानून के शिकार  हुए 1200 प्रतिनिधियों मे अंतिम (आकड़ा बढ़ते क्रम मे रूका ) 6 प्रतिशत सामान्य वर्ग, 22 प्रतिशत पिछड़ा वर्ग, 72 प्रतिशत दलित आदिवासी प्रभावित हुए हैं। इसमे महिला प्रतिनिधियों की संख्या 40 प्रतिश त है, जिसमें सामान्य वर्ग की 12 प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग की 38 प्रतिशत एवं 50 प्रतिशत दलित आदिवासी महिलाएं प्रभावित हुई हैं। इसमे ज्यादातर महिलाएं प्रजनन काल का सबसे महत्वपूर्ण समय 25 से 40 के आयुवर्ग की हैं। दो बच्चों के कानून के कारण जहां पुरूष प्रतिनिधि प्रभावित हुये है, वहां भी हिंसा का सामना महिलाओं को ही करना पड़ा। इन महिलाओं पर चरित्र के आरोप लगने, तलाक देने, बच्चे को स्वीकार न करने जैसे संदेहास्पद आरोपो का सामना करना पड़ा । उससे आगे बढ़ कर प्रतिनिधियों ने पद बचाने की खातिर गर्भपात खासकर कन्याभ्रूण हत्या, अनचाहे आपरेशन, बच्चा गोद देने और बच्चे की हत्या करने एवं मारपीट करने जैसी हिंसा से भी गुजरना पड़ा।  इन प्रतिनिधियों ने अपने बचाव में कई रास्ते अख्तियार किये, कई प्रतिनिधियों ने न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया। भिंड जिले के शेरपुर  पंचायत की सरपंच ओमवती कुशवाह एवं सीहोर जिले के दौराहा की सरपंच तारावती रोडे़ ने उच्च न्यायालय मे याचिका दायर की,  उनका तर्क था कि यह नियम संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का खुला उल्लघंन है। उन्होंने न्यायालय से इस संशोधन को रद्द करने की गुजारिश की। अध्ययन से निकले तथ्यों के आधार पर सामाजिक संगठनों द्वारा कानून को रद्द करने के लिए एक देशव्यापी अभियान चलाया गया जिसके तहत न्यायालय मे याचिका लगाई गई एवं मीडिया और अन्य स्तरों पर लगातार चर्चाएं की गई, अन्ततः अभियान का असर ये हुआ कि मध्यप्रदेश सरकार को कानून रद्द करना पड़ा।

पंचायतीराज के इस तीन दशक के दौरान संघर्ष झेल चुकी अनेक महिलाएं ऐसी हैं, जो सभी चुनौतियों को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना चाहती हैं। मध्यप्रदेश की कई महिला प्रतिनिधि देश भर में उदाहरण बन गई हैं, जिसमें गुलाबबाई, फूलबाई, रामरती बाई, जसोदा बाई, केसर बाई, रामप्यारी बाई, गुदिंया बाई , शिवकली बाई, मानकी बाई जैसे सैकड़ो उदाहरण है।  इन्होनें सामाजिक बुराईयों को दूर करने, शिक्षा का प्रसार करने (खासकर बालिका शिक्षा) के साथ ही भ्रष्टाचार मिटाने, अतिक्रमण दूर करने एवं नई पंचायत का गठन करने जैसे जटिल और गंभीर काम तक कर दिखाए। जहां ग्रामीण विकास में इन महिलाओं ने संघर्ष के बलबूते पर बखूबी काम किये तो वहीं सामाजिक चेतना जगाने के लिये बालिका शिक्षा, बाल विवाह, महिलाओं को रोजगार मुहैया करवाने, साप्ताहिक बाजार लगवाने जैसे रचनात्मक काम भी किये। इतने व्यापक स्तर पर नेतृत्व में आई इन महिलाओं के बारे मे सोचा गया था ,कि वे अपनी संगठित ताकत के बल पर महिला हिंसा के खिलाफ खुलकर काम कर सकेंगी। किन्तु जो महिलाएं चुनौतियों को स्वीकार करते हुये नेतृत्व मे आगे आ रही हैं, वे भी महिला मुद्दों को नेपथ्य में डालकर पंचायत में सड़क खडंजा जैसे निर्माण कार्यों को करने, योजना लाने, हिसाब किताब रखने, और गांववासियों को खुश रखने जैसे पेचीदा और तकनीकि कामों में उलझ कर रह गई हैं। चर्चा के दौरान सरपंच उषा कबड़े ने बताया, कि वास्तव में हम सब पंचायत के काम-काज में इतना उलझ गये हैं ,कि महिलाओं पर हो रही हिंसा के खिलाफ कोई कदम नही उठा पाते और उसे व्यक्तिगत मसला मानकर कोई कार्यवाही नही कर पाते।

परम्परागत रूप से पुरूषों के हाथ मे रहा नेतृत्व जैसे-जैसे महिलाओं के हाथ मे आ रहा है, वैसे-वैसे नेतृत्व के मायने भी बदल रहे हैं। नेतृत्वकारी महिलाएं रचनात्मक काम के साथ ही नेतृत्व को स्वीकार करने और आत्मसात करने की कोशिश कर रही हैं। साथ ही परम्परागत नेतृत्व के पैमाने को महिलाओं के नजरियें से ढालने और कभी-कभी स्वयं ढलने की कोशिश कर रही हैं।  वे नेतृत्व का मूल्य भली-भांति समझकर समाज में जड़ जमा चुकी भ्रष्टाचार जैसी जटिल समस्या से लेकर अतिक्रमण के खिलाफ एवं सामाजिक बुराईयों से लेकर महिला हिंसा के खिलाफ मुखर होकर काम करना चाहती हैं। इन विषम परिस्थितियों के बावजूद भी, बशर्ते उन्हे समुचित माहौल उपलब्ध हो।


लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं ।

© मीडियाटिक

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