ताल-मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं से अभिव्यक्ति को साकार करतीं मध्यप्रदेश की नृत्यांगनाएं

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ताल-मुद्राओं, भाव-भंगिमाओं से अभिव्यक्ति को साकार करतीं मध्यप्रदेश की नृत्यांगनाएं

संगीत एवं नृत्य विमर्श

डॉ. लता सिंह मुंशी

नृत्य का जन्म तो मनुष्य के पैदा होने के साथ ही हो गया था। पैदा होते ही बच्चा सबसे पहले जब हाथ-पैर हिलाता है वहीं से आगिंक अभिनय की शुरूआत हो जाती है। उसके बाद बच्चे के रोने की आवाज़ जो गले से निकलती है वही वाचिकाभिनय है, उसके पश्चात् तीसरी अवस्था जो उसे नहला धुलाकर कपड़े आदि पहना दिये जाते है वही आहार्याभिनय है। सात्विक अभिनय जीवन में बहुत बाद में आता है जब हम सोचने समझने लायक हो जाते है।

इस तरह मनुष्य के जीवन में नृत्य हमेशा से रहा है। चूंकि हम खास तौर पर मध्यप्रदेश की बात कर रहे हैं तो यहाँ 300 ई. के पहले से गोंड आदिवासियों का राज रहा है। ताज्जुब नहीं कि प्रदेश का बहुत बड़ा क्षेत्र गोंडवाना का हिस्सा था। इस समुदाय के सदस्यों के बारे में एक बात बहुत प्रसिद्ध है कि वे ताल एवं लय के बहुत धनी होते हैं। उनके अंदर ग़ज़ब की ताल-लय की समझ पाई जाती है और शरीर मजबूत पर बेहद लचीला होता है। यही ख़ूबी उनके नृत्य में परिलक्षित होती है। दिन भर की मेहनत के बाद रात को खा पीकर उनका मस्ती में झूमना ही नृत्य है। वो बहुत व्यवस्थित एवं नियोजित नृत्य नहीं था पर लोक नृत्य था।

म.प्र. के सभी हिस्सों में बहुत ही समृद्ध लोक नृत्य शैली रही है – चाहे वो मालवा क्षेत्र हो, बुन्देलखण्ड हो या छत्तीसगढ़, हरेक अंचल में लोक नृत्यों की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। इन्हीं लोक नृत्यों को नियमों में बाँधकर व्यवस्थित करने से ही शास्त्रीय नृत्यों को जन्म होता है। प्रदेश में नवाब बेगमों के काल में गायन की परंपरा अवश्य थी परन्तु नृत्यकला का अस्तित्व नहीं था। सन 1902 में एक बार सुप्रसिद्ध नर्तक बिरजू महाराज के दादा कालकादीन बिंदादीन महाराज अवश्य भोपाल पधारे थे।  उन्होंने नवाब बेगम के महल में अपनी प्रस्तुति दी थी जिसे उस समय खूब सराहना मिली थी। बिरजू महाराज कहते हैं कि जिन बक्सों भरकर इनाम-इकराम प्राप्त हुए थे वह आज भी उनके पास सुरक्षित है ।

अविभाजित म.प्र. में 1900 ई. के आसपास रायगढ़ के राजा चक्रधर महाराज हुए है जो स्वयं कथक के बहुत अच्छे नर्तक एवं रचनाकार थे। वे अपने राज दरबार में उस समय के बहुत बड़े-बड़े नृत्य कलाकार जैसे लखनऊ घराने के पं. शम्भु महाराज आदि नृत्य कलाकारों को अपने राज दरबार में बुलाया करते थे और छत्तीसगढ़ के युवाओं को नृत्य सीखने के लिए प्रेरित भी करते थे। उनमें से कुछ खूब प्रसिद्ध हुए, जिनमें से  पं. कार्तिक राम, पं. कल्याण दास जी, पं.फिरतू आदि। इन्होंने कथक नृत्य शैली के लिए बहुत काम किए। इस तरह चक्रधर महाराज द्वारा कथक के रायगढ़ घराने की शुरूआत हुई। चक्रधर महाराज ने कई गत, परण एवं कवित्त आदि की रचना भी की है। यहीं से म.प्र. में शास्त्रीय नृत्यों का खासतौर पर कथक का जन्म होता है, इससे पहले म.प्र. में शास्त्रीय नृत्य के प्रमाण नहीं मिलते हैं।

इसके पश्चात् उज्जैन में पं. दुर्गाप्रसाद जी आए जो जयपुर घराने के नर्तक एवं गुरू थे। उन्होंने वहीं रहकर अपने कुछ शिष्यों को तैयार किया। इस तरह से मालवा क्षेत्र में भी कथक नृत्य की शुरूआत हो गई। सन 1956 के मध्य में भोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी बना। उसके बाद प्रदेश में विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध कई लोगों का आगमन हुआ।  सन् 1955-56 के आसपास जयपुर के ही मास्टर मोहन भोपाल आये जो जयपुर घराने के नर्तक थे उन्होंने यहाँ कथक नृत्य जयपुर शैली में सिखाना शुरू किया। उनकी पहली शिष्या ज़रीन क़ादर हुई थीं। ज़रीन की माँ हमीदिया गर्ल्स स्कूल में प्रधानाचार्या थीं एवं प्रगतिशील विचारधारा की थीं। जिस ज़माने में नृत्य लड़कियों के लिए एक प्रतिबंधित क्षेत्र हुआ करता था, उस ज़माने में उन्होंने अपनी बेटी को कथक सीखने के लिए भेजा। इस लिहाज से नृत्य विधा में ज़रीन क़ादर को मध्यप्रदेश की पहली छात्रा कहा जा सकता है।

उस समय संगीत समारोहों के आयोजन का ख़ास चलन नहीं था, इसलिए स्थानीय स्तर पर कुछ छोटे-मोटे समारोहों और महिलाओं के आयोजन में ही ज़रीन अपनी कला का प्रदर्शन कर पाईं। 1959 के आसपास भरतनाट्यम के नर्तक एवं गुरू पं. शंकर होम्बल का भोपाल आना हुआ जिन्होंने भोपाल में भरतनाट्यम नृत्य की शैली की शुरूआत की एवं इसी समय जबलपुर में श्री नरसप्पा जी का आगमन हुआ और उन्होंने जबलपुर में भरतनाट्यम नृत्य शैली की शुरूआत की।कहा जा सकता है कि मध्यप्रदेश में नृत्य की दोनों विधाओं कथक और भरतनाट्यम का प्रादुर्भाव एक ही कालखंड में हुआ। दोनों ही शाखाओं में अलग-अलग प्रतिभाएं पुष्पित और पल्लवित हुईं। इसलिए दोनों विधाओं की अलग-अलग व्याख्या आवश्यक है।

कथक: मध्य प्रदेश में कथक नृत्य की पहली पीढ़ी की नृत्यांगनाओं में सविता गोडबोले, विभा दाधीच एवं रश्मि वाजपेयी का नाम उल्लेखनीय है। इन्दौर निवासी श्रीमती गोडबोले – जिनका संबंध लखनऊ घराने से है, ने भी इन्दौर में कथक नृत्य के प्रचार प्रसार में अत्यधिक योगदान दिया है। वे पं.लच्छू महाराज की शिष्या हैं एवं सी.आई.डी.(कौंसिल ऑफ़ इंटरनेशनल डांस) यूनेस्को की एकमात्र भारतीय सदस्या हैं। वर्तमान में वह इंदौर में लयशाला ललित अकादमी का संचालन कर रही हैं। इन्होंने बैठी हुई अवस्था में हस्त मुद्रा एवं भाव-भंगिमा पर आधारित कथक नृत्य शैली को पहचान दिलाई जो लखनऊ घराने की विशिष्टता मानी जाती हैं। वे आज भी प्रमुख मंचों पर प्रस्तुतियां देने के अलावा उदीयमान प्रतिभाओं को तराश रही हैं।

कथक नृत्यांगना विभा दाधीच लखनऊ घराने के प्रसिद्ध गुरू पं. शम्भु महाराज की शिष्या है। कथक नृत्यों के प्रदर्शन के साथ-साथ अपनी अनेक शिष्याओं को कथक नृत्य की शिक्षा दे रही हैं। नृत्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1993 में राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया गया, पुनः वर्ष 2016 में मध्य प्रदेश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार शिखर सम्मान से भी उन्हें सम्मानित किया गया। उनकी संस्था नटवारी की सात शाखाएँ वर्तमान में नई-नई प्रतिभाओं को प्रशिक्षित कर रही हैं। इसके अलावा कथक विधा पर उनके शोध कार्य भी सराहनीय हैं।

रश्मि वाजपेयी मूलतः उज्जैन की निवासी हैं, जो पिता के स्थानातरण के कारण दिल्ली चली गईं। वहीं उन्होंने लखनऊ घराने के सुप्रसिद्ध नर्तक बिरजू महाराज से कथक सीखा और मंच पर सक्रिय हो गईं। मध्यप्रदेश, संस्कृति विभाग के तत्कालीन सचिव श्री अशोक वाजपेयी से विवाह के बाद वह भोपाल आ गईं। विवाह के बाद भी देश-विदेशों में मंच प्रस्तुतियों का दौर जारी रहा। इनका संबंध रायगढ़ घराने से भी रहा है। कथक विधा पर उन्होंने कई किताबें लिखीं। कथक प्रसंग(1992) एवं कथक वितान-कथक की तथा कथा, इस विधा का प्रतिनिधि साहित्य माना जाता है।

भोपाल में श्री अशोक वाजपेयी के कार्यकाल में  चक्रधर नृत्य केंद्र एवं ध्रुपद केंद्र की स्थापना हुई थी। चक्रधर नृत्य केंद्र की स्थापना पारंपरिक गुरु-शिष्य परम्परा को ध्यान में रखकर की गयी थी। इसमें प्रतिष्ठित नर्तकों को गुरु के पद पर आसीन कर प्रशिक्षण लेने वाले छात्रों को चार वर्षों के लिए छात्रवृत्ति दी जाती थी। प्रवेश के लिए साक्षात्कार एवं परीक्षा का आयोजन किया जाता था एवं चयनित छात्रों को नित्य 8 घंटों का प्रशिक्षण दिया जाता था। इस बीच सामान्य पढ़ाई के लिए नियमित स्कूल – कॉलेज जाना वर्जित था। चक्रधर नृत्य केंद्र के पहले सत्र में तीन छात्राओं ने नामांकन करवाया, जिसमें सुचित्रा हरमलकर, अल्पना वाजपेयी एवं रुपाली वालिया सम्मिलित हैं। प्रशिक्षण समाप्त होने के बाद सुचित्रा हरमलकर एवं अल्पना वाजपेयी सतत परिश्रम से प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंची जबकि दुर्भाग्यवश रुपाली वालिया एक व्याधि से ग्रस्त हो गयीं, जिसकी वजह से उनका हाथ-पैर चलना बंद हो गया और मध्यप्रदेश ने एक अप्रतिम प्रतिभा को खो दिया।

इसके बाद की कड़ी में सुचित्रा हरमलकर की शिष्या रहीं डॉ. टीना ताम्बे का ख़ास महत्त्व है। टीना जी इंदौर की रहने वाली हैं एवं देश के प्रतिष्ठित मंचों के अलावा श्रीलंका, ग्रीस एवं मलेशिया जैसे देशों में अपनी प्रस्तुति दे चुकी हैं। इसके अलावा वे कई प्रतिष्ठित पुरस्कार व सम्मान भी अपने नाम कर चुकी हैं।

चक्रधर नृत्य केंद्र, भोपाल ने कई प्रतिभाओं को जन्म दिया जिनमें वी. अनुराधा सिंह, डॉ. विजया शर्मा, मोहिनी मोघे  का नाम रेखांकित करने योग्य है। विश्व की एकमात्र घुंघरू वादिका के नाम से प्रसिद्ध वी. अनुराधा सिंह भोपाल में रहती हैं एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर की नृत्यांगना हैं। वह प्रदेश की एकमात्र नृत्यांगना हैं जो भारत सरकार के संस्कृति विभाग में ‘आउट स्टेंडिंग’ श्रेणी में सूचिबद्ध हैं। वह वृंदा नृत्य केंद्र का संचालन भी कर रही हैं। डॉ. विजया शर्मा देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित मंचों के अलावा मास्को, चीन आदि देशों में अपनी प्रस्तुतियां दे चुकी हैं। सुश्री मोहिनी मोघे, ग्वालियर घराने के महान शास्त्रीय गायक राजा भैया पूँछवाले के खानदान से ताल्लुक रखती हैं। वर्तमान पीढ़ी की नृत्यांगनाओं में मोहिनी अग्रणी कलाकारों में से एक हैं।

कथक के क्षेत्र में मध्यप्रदेश का नाम रौशन करने वाली नृत्यांगनाओं में शाम्भवी शुक्ल, राखी दुबे, अमिता खरे, आस्था गोडबोले, हर्षिता शर्मा एवं रागिनी मक्खर का नाम भी उल्लेखनीय है। शाम्भवी शुक्ल म.प्र. के ही सागर शहर की अत्यंत प्रतिभावान नृत्यांगना है। उन्होंने कथक में खूब नाम कमाया है। वे पं. राजेन्द्र गंगानी की शिष्या है एवं जयपुर घराने की परंपरा का निर्वहन कर रही हैं साथ ही अपनी शिष्याओं के माध्यम से इस विधा को समर्पित नयी पीढ़ी को प्रशिक्षित भी कर रही हैं। उनकी पुस्तक कथक विनियोग के लिए मप्र हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा उन्हें पुनर्नवा पुरस्कार प्रदान किया जा रहा है।

राखी दुबे भोपाल की रहने वाली हैं एवं एक दुर्घटना में अपना पैर गवां देने के बाद भी नृत्य को अपने जीवन से जाने नहीं दिया। इसलिए इन्हें मध्यप्रदेश की सुधा चंद्रन कहा जाता है। उन्होंने कत्थक विषय लेकर इंदिरा कला विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. किया एवं अब तक देश के प्रमुख संगीत समारोहों में अपनी प्रस्तुति दे चुकी हैं और आज भी कथक को आगे बढ़ाने में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं।

आस्था गोडबोले पुणे में रहती हैं एवं पूरे लगन से अपनी माता श्रीमती सविता गोडबोले की विरासत को थामे हुई हैं। देश में आयोजित प्रमुख संगीत समारोहों में कथक नृत्यांगना के रूप में इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। इसी परंपरा का अनुपालन विभा दाधीच की पुत्रवधु हर्षिता शर्मा भी कर रही हैं। इन्हें सास और श्वसुर (पुरु दाधीच) दोनों गुरुओं से सीखने का अवसर प्राप्त हुआ।

उदीयमान कथक शैली की नृत्यांगनाओं में अमिता खरे का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। बांदा में जन्मी अमिता की शिक्षा-दीक्षा छतरपुर में हुई है। इन्होंने नृत्य की प्रारंभिक शिक्षा अपने मौसा जी  – जो पंडित बिरजू महाराज के शिष्य थे, से ली है। बाद में गांधी आश्रम में श्री रामकृष्ण चौरसिया जी से विधिवत नृत्य की दीक्षा ली। वर्तमान में अमिता एक निजी स्कूल में नृत्य की शिक्षिका हैं एवं विभिन्न प्रतिष्ठित मंचों पर सक्रिय हैं।

रागिनी मक्खर ने ‘इण्डिया गॉट टेलेंट’ नामक रियलिटी शो से करियर की शुरुआत की। वे इस शो में विजयी रहीं थीं। मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें ‘मप्र रत्न’ से सम्मानित किया है। ‘नादयोग ग्रुप’ ने शास्त्रीय नृत्य के एक समूह का वे संचालन कर रही हैं। अल्पावधि में ही उनकी प्रतिभा की पूछ-परख विदेशों में भी होने लगी है। हाल ही में वह यूरोप की यात्रा करके लौटी हैं।

वर्तमान में  कई उदीयमान प्रतिभाएँ भविष्य के प्रति उम्मीद सा जगाती हैं। जैसे –  मैथिली प्रचंड, उर्वशी साहू, अम्बिका जोशी, सृष्टि गुप्ता, मानसी शर्मा, हिमांशी शर्मा, इशिता लाल एवं पारुल सिंह आदि

भरतनाट्यम: 50वें दशक की शुरुआत में श्री शंकर होम्बल ग्वालियर पहुंचे और उनकी पत्नी श्रीमती गिरिजा होम्बल शासकीय कन्या विद्यालय में नृत्य की शिक्षिका बनीं। कहा जा सकता है कि ग्वालियर ही वह स्थान है जिसने मध्यप्रदेश का प्रथम परिचय भरतनाट्यम नृत्यकला से करवाया। इस दृष्टि से गिरिजा जी को भरतनाट्यम नृत्य शैली की ‘प्रथम गुरु’ होने का दर्जा प्राप्त है क्योंकि तब तक श्री होम्बल गायन क्षेत्र में ही सक्रिय थे। होम्बल दंपत्ति द्वारा स्थापित ‘गिरिजा-शंकर नृत्य केंद्र’ में नृत्य प्रशिक्षण का दायित्व गिरिजा ही उठा रही थीं। दूसरी संतान के जन्म के समय श्री होम्बल दक्षिण भारत स्थित ‘कला क्षेत्र’ गए और रुक्मिणी अरुण्डेल से नृत्य-प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद भरतनाट्यम क्षेत्र में उतरे। कहना न होगा कि भरतनाट्यम के क्षेत्र में सक्रिय मध्यप्रदेश की सभी नृत्यांगनाएँ या तो होम्बल दंपत्ति की शिष्याएँ हैं अथवा उनकी शिष्यों की शिष्याएँ। कालांतर में होम्बल दंपत्ति भोपाल आ बसे और यहाँ भी उन्होंने ‘नृत्य केंद्र’ की स्थापना की|

उनकी शिष्याओं में श्रीमती लता मुंशी का नाम रेखांकित करने योग्य है, जिन्होंने देश-विदेशों में अपने गुरु एवं प्रदेश का नाम ऊँचा किया। मप्र शासन ने उन्हें शिखर सम्मान से विभूषित किया है। वर्तमान में वे भोपाल में एक नृत्य केंद्र का संचालन कर रही हैं एवं आगामी पीढ़ी तैयार कर रही हैं| इसके अलावा विश्व स्तर के सभी प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुतियां दे रही हैं।

होम्बल दंपत्ति की दो पुत्रियों भारती होम्बल एवं पारिजाता होम्बल ने पारिवारिक विरासत को वर्तमान में संभाल रखा है| भारती जी माता-पिता द्वारा स्थापित ‘कला पद्म भरतनाट्यम नृत्य केंद्र, भोपाल का संचालन कर रही हैं। भारती जी भी लगभग सभी प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुतियां दे चुकी हैं।  इनकी छोटी बहन पारिजाता शिकागो में रहकर भरतनाट्यम का प्रसार कर रही हैं|

ग्वालियर की पूजा यादव, ग्वालियर भरतनाट्यम नृत्य केंद्र से प्राम्भिक प्रशिक्षण प्राप्त कर चेन्नई चली गईं एवं गूढ़ प्रशिक्षण प्राप्त कर वहीं बस गईं। वे जल्द ही वह वहाँ की जानी – मानी नर्तकियों में शुमार हो गईं। उनकी वर्तमान स्थिति के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है। होम्बल जी की प्रमुख शिष्याओं में श्वेता देवेन्द्र, मनोज मंजुल, सीतालक्ष्मी, सुषमा मिश्रा आदि का नाम उल्लेखनीय है| मनोज मंजुल वर्तमान में मुंबई रह रही हैं एवं देश के प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुतियां दे रही हैं। श्वेता देवेन्द्र भोपाल में ही निवास कर रही हैं एवं एक स्कूल में नृत्य शिक्षिका होने के साथ एक नृत्य केंद्र का संचालन करने के साथ-साथ मंच पर भी सक्रिय हैं। वे दक्षिण अफ्रीका के अलग-अलग पांच शहरों के साथ ग्लासगो में अपनी प्रस्तुति दे चुकी हैं जबकि अन्य राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी हैं। इनमें से अधिकाँश अब वरिष्ठ श्रेणी में पहुँच चुकी हैं एवं अपने-अपने स्थान पर रहकर भरतनाट्यम की आगामी पीढ़ी का निर्माण कर रही हैं। नई पीढ़ी के कलाकारों में लता मुंशी जी की बेटी आरोही और अन्य शिष्याएं भविष्य के प्रति आश्वस्त करती हैं।

ओडिसी नृत्य शैली भी अब म.प्र. में स्थापित हो रही है। प्रसिद्ध बाँसुरी वादक अभय फगरे से विवाह के बाद दिल्ली से भोपाल आ बसीं बिन्दु जुनेजा, माधवी मुदगल जी की शिष्या हैं। वे भी आजकल अपने मंच प्रदर्शन के साथ-साथ ओडिसी नृत्य शैली की शिक्षा अनेक शिष्याओं को दे रही है। उनकी जो शिष्याएँ प्रमुख रूप से मंच पर प्रदर्शन कर रही हैं, उनमें कल्याणी और वैदेही के नाम उल्लेखनीय हैं।

इस प्रकार भारत की तीन प्रमुख शास्त्रीय नृत्य शैलियां म.प्र. में महिलाओं के जरिए स्थापित होकर खूब फल फूल रही हैं। परन्तु यह हैरानी की बात है कि शानदार शुरुआत के बाद भी पिछले 50-60 वर्षों की कला यात्रा में नृत्य के क्षेत्र में मूर्धन्य 50-60 नाम भी नहीं मिलते। इस संदर्भ में विभिन्न वरिष्ठ कलाकारों का मानना है कि मंचों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ प्रस्तुति के स्वरूप में भी काफ़ी परिवर्तन आया है। पहले एकल प्रस्तुति के आधार पर कलाकारों की योग्यता तय की जाती थी जबकि वर्तमान में समूह-प्रस्तुतियों को आयोजकों द्वारा अधिक प्रोत्साहित किया जा रहा है। परिणामस्वरूप नृत्य समूह उभरते चले गए एवं ‘एकल प्रस्तोता’ मंच से विलुप्त होने लगे। दर्शकगण भी अब गूढ़ शास्त्रीय प्रस्तुति में रुचि नहीं लेते। ऐसे में नृत्य की कोई भी शैली हो – उनके समूह शीर्ष पर अवश्य नज़र आएँगे लेकिन उसमें किसी एक प्रतिभा को खोज पाना कठिन होगा।


लेखिका भरतनाट्यम की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना हैं।

© मीडियाटिक

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