नई दिल्ली। बच्चों की अनिच्छा के बावजूद पिता को उनसे मिलने का अधिकार देने के आदेश के खिलाफ एक मां की अपील को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि विवाह टूटने से माता-पिता की ज़िम्मेदारी खत्म नहीं होती और बच्चे की भलाई माता-पिता की एकतरफ़ा धारणा के अधीन नहीं हो सकती।
जस्टिस अनिल क्षेत्रपाल और जस्टिस हरीश वैद्यनाथन शंकर की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि बेशक, यह अदालत किसी बच्चे को उसकी इच्छा के खिलाफ काम करने के लिए बाध्य करने का समर्थन नहीं करती है, लेकिन माता-पिता में से किसी एक के लिए फिर से मिलने की योजना के निरंतर अभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
मुद्दों को सुलझाने की कोशिश
हाईकोर्ट ने माना कि मौजूदा मामले में फैमिली कोर्ट ने तमाम मौकों पर इन सारे मुद्दों को सुलझाने की कोशिश की, लेकिन माता-पिता में से किसी एक से लंबे समय तक शारीरिक रूप से अलग रहना, जिसका कोई (मौजूदा मामले में) अंत नजर नहीं आता, बच्चों के लिए लाभकारी नहीं माना जा सकता।
क्या है मामला
कोर्ट एक मां की अपील पर विचार कर रहा था, जिसने कड़कड़डूमा की एक फैमिली कोर्ट के 16 जुलाई के एक अंतरिम आदेश को रद्द करने का अनुरोध किया। मां का विरोध खासतौर पर अदालत द्वारा बच्चों से पिता को शारीरिक मुलाक़ात की मंजूरी देने का निर्देश दिए जाने के खिलाफ था। तर्क यह दिया कि लगभग 15 साल की बड़ी नाबालिग बेटी ने लगातार पिता से मिलने में अरुचि दिखाई है। इसी के चलते, ऐसा निर्देश टिके रहने लायक नहीं है।
मौजूदा केस के सारे तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद हाई कोर्ट को अदालत का आदेश हर मायने में संतुलित नजर आया। कोर्ट ने कहा, ज़ाहिर है कि दोनों पक्षों की बड़ी बेटी वयस्क होने के कगार पर है। उम्र में बस तीन साल की कमी है। हालांकि, अदालत मानती है कि बेटी बुद्धिमान है और अपने फैसले खुद लेने में सक्षम है, जिसमें महीने में दो बार अपने पिता से दो घंटे के लिए भी मिलने से इनकार करने का विकल्प भी शामिल है, लेकिन यह ध्यान रखना जरूरी है कि वयस्क होने के बाद, अपने पिता के साथ अपने रिश्ते को फिर से बनाने या मजबूत करने का अवसर उसके लिए और भी मुश्किल हो सकता है।
हाईकोर्ट ने दोहराया कि अदालतें व्यावहारिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज़ नहीं कर सकतीं, जैसे कि बच्चों को सिखाने-पढ़ाने का जोखिम या लंबे समय तक दूसरे माता-पिता से दूर उनके एकमात्र पैरंट के रूप में दूसरे पैरंट के बारे में नकारात्मक धारणा बनाना। इसके अलावा, यह आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता कि बच्चे इतनी परिपक्व उम्र में हैं कि वे अपने जीवन से माता-पिता को हमेशा के लिए बाहर कर सकें।



Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *