जम्मू-कश्मीर एवं लद्दाख हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि किसी मां को केवल इसलिए बच्चे की कस्टडी से वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह आर्थिक रूप से पिता जितनी सक्षम नहीं है। कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चे की कस्टडी तय करते समय माता-पिता की आर्थिक स्थिति से ज्यादा बच्चे का कल्याण और उसकी बेहतरी प्राथमिकता होनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि मां की आर्थिक स्थिति कमजोर होने का मतलब यह नहीं है कि वह बच्चे की देखभाल करने में असमर्थ है। न्यायमूर्ति जावेद इकबाल वानी ने कहा कि बच्चों के लिए मां की भावनात्मक देखभाल और निरंतर संगति, पिता की आर्थिक संपन्नता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
ट्रायल कोर्ट का आदेश खारिज
यह आदेश उस अपील पर आया जिसमें एक मां ने श्रीनगर की निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। ट्रायल कोर्ट ने मां द्वारा पूर्व में दिए गए एक आश्वासन का हवाला देते हुए बच्चों की कस्टडी पिता को सौंपने का आदेश दिया था। अदालत ने यह भी कहा था कि पिता विदेश (कतर) में रहते हुए बच्चों को बेहतर आर्थिक सुविधाएं दे सकता है। हालांकि, हाईकोर्ट ने इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि कस्टडी का फैसला न तो किसी एक दायित्व के उल्लंघन पर आधारित हो सकता है और न ही केवल पिता की आर्थिक क्षमता पर।
मां की भूमिका को बताया "अत्यंत महत्वपूर्ण"
न्यायमूर्ति वानी ने कहा, "मां की अपेक्षाकृत सीमित आय उसे बच्चों की देखभाल के लिए अयोग्य नहीं बनाती। 'वेलफेयर' शब्द की परिभाषा केवल शारीरिक जरूरतों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें बच्चों का नैतिक और भावनात्मक विकास भी शामिल है।" अदालत ने यह भी कहा कि नाबालिग बच्चों के पालन-पोषण में मां की भूमिका को न्यायालयों ने बार-बार सर्वोपरि माना है। जब तक मां का आचरण बच्चों के कल्याण को सीधे प्रभावित न करे, तब तक कस्टडी उससे छीनी नहीं जा सकती।
पिता के खिलाफ घरेलू हिंसा का उल्लेख
हाईकोर्ट ने यह भी गौर किया कि मां बच्चों को लेकर कतर से भारत इसलिए लौटी थी क्योंकि वहां की एक अदालत ने पिता को उसके साथ मारपीट के मामले में दोषी ठहराया था। ऐसे में मां का कदम बच्चों की सुरक्षा के दृष्टिकोण से उठाया गया माना जा सकता है
अदालत ने अपने आदेश में 7 वर्षीय बड़े बेटे से हुई बातचीत का भी जिक्र किया। जब उससे पूछा गया कि अगर वह कतर जाए और मां साथ न हो तो उसका ख्याल कौन रखेगा, तो बच्चे ने झिझकते हुए जवाब दिया- "शायद एक मेड"। न्यायमूर्ति वानी ने कहा कि इस झिझक से बच्चे की मां के प्रति सहज लगाव और उसकी जरूरतें साफ झलकती हैं।
पिता ने दलील दी थी कि हिजानत (मुस्लिम पर्सनल लॉ) के अनुसार बेटे की उम्र 2 वर्ष तक ही मां को कस्टडी का अधिकार है। हाईकोर्ट ने इसे खारिज करते हुए कहा कि मां का अधिकार तब तक कायम रहता है जब तक उसके खिलाफ कोई वैधानिक अयोग्यता सिद्ध न हो। इसके अलावा, अदालत ने संविधान के आधार पर कहा कि लिंग समानता भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का मूल आधार है। पिता को केवल पुरुष होने की वजह से किसी भी स्थिति में वरीयता नहीं दी जा सकती। हाईकोर्ट ने पाया कि दोनों बच्चे 2022 से मां के साथ कश्मीर में रह रहे हैं, वहीं पढ़ाई कर रहे हैं और एक स्थिर वातावरण में हैं। ऐसे में उन्हें अचानक पिता के पास भेजना उनकी स्थिर दिनचर्या और भावनात्मक संतुलन को तोड़ देगा।
सन्दर्भ स्रोत : विभिन्न वेबसाइट



Comments
Leave A reply
Your email address will not be published. Required fields are marked *